पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/२९४

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प्रत्येष्टा अपकपाय अन्वेष्टा–वि० [सं० अन्वेष्ट T F जी० अन्वेष्ट्री | खोजनेत्रा ना । अप-उ० [ग] उलटा । विरुद्ध । बुरा । हीन । यधिक । तलाश करनेवाला । विशेप---यह उपसर्ग जिस शब्द के पहले ग्राता है, उसके अर्थ में अन्वेप्य–वि० [ म० 1 अन्वेषण के योग्य [को०] । निम्नलिखित विशेपता उत्पन्न करता है |---१ निषेध । जैसेअन्हरा --वि० [म० अघ, प्रा० अघल] अधा। नेत्रहीन । सूर। । अपकार । अपमान । २ अपकृष्ट (दूपण)। जैसे-अपकर्म । . उ०---जो कुछ रहा से ग्रन्हरे माखा, कठवे कहेसि अनूठी । अपकीति। ३ विकृति । जैसे—अपकुक्षि । अपाग ४ विशे बचा रहा सो जोलहा कहिंगा, अव जो कहैं तो झूठी --- पता । जैसे--पुकलुक । अपहरण । }। प्रेमघन०, 'मा० २, पृ० ३६६ । । अप’--सर्व० [हिं०] 'आप' का सक्षिप्त रूप जो यौगिक शब्दो मे आता अन्हवाना(५)-क्रि० म० [हिं० अन्हाना फा १ रू०] स्नान कराना। है । जैसे-अपस्वार्थी । अपकाजी। उ०—-दृगनि के मग नै नहलाला। उ०—(क) वद करत पूजा हरि देखत। घट , मोहन कहियाँ । घरि के अप अपने हिय महिया ।--नद० ग्र०, वजाइ देव अन्हवाय, दल चदन ले भेटत |-मुर०, १०५२६१॥ पृ० २६५।। (ख) रामचन्ति सर विन अन्हवाएँ ।—मानस, ११११ । यौ०---अपशाप = अपने आप । खुद ब खुद । उ०---नाला अपशाप अन्हवैया–वि० [हिं० अन्हाना+वैया (प्रत्य॰)] स्नान कराने | सागर हुआ । काहे के कारण रोता है कुवा दक्खिनी, वाला। नहावा । उ०—-भरत, राम, रिपुदवन, नखन के पृ० २१ । चरित सरित अन्वैया !-—तुलसी ग्र०, पृ० २७९ ।। अप -मज्ञा पुं० [म० अप्] जन्न । पानी । उ०---रज अप अनल अन्हान--सज्ञा पुं॰ [स ० स्नान, प्रा० पहाण, अण्हान, नहान] १० अनि7 नभ जड जानत मब कोई t--स० सप्तक, पृ० १६ । 'म्नान' । उ०—कै मज्जन तब किए अन्हानू । पहिरे चोर अपक-सज्ञा पु० [सं०.अप् +क] पानी। जल । (डि०) । गएउ छपि मानू -जायनी ग्र० । अपकरण-सज्ञा पु० [सं०] १ अनिष्ट कार्य । २ दुष्टाचार । दुराचार । अन्हाना---क्रि० अ० [ हि० अन्हान से नाम० ] स्नान करना। ३ बुरा वतव । नहाना । उ०—हम लकेश दूत प्रतिहारी समुद नीर कौं जात अपकरुण-वि० [सं०] निठुर । निर्दयी । वेरहुम । कठोरहृदय । | ग्रन्हाए ।--मूर०, ६[१२० ।। अपकर्ता–मज्ञा पुं० [सं०] [नी अपकत्र १ हानि पहुँचानेवाला । अपकिल—वि० [सं० अपङ्किल] १ पकरहित । सूखा । विना कीचड़ | हानिकारी । २ बुरा काम करनेवाला । पापी । ३ शत्रु [को०] । की । २ शुद्ध । निर्मल ।। अपकर्म--सज्ञा पुं० [म ०] बुरा काम । खोटा काम। कुर्म । पाप । अपग-वि० [म० अपाङ्ग-हीनाङ्ग] १ अगहीन । न्यूनाग । २ । | : लँगडा । लूना। ३ काम करने मे अशक्त । वेवम । असमर्थ । उ०--पति को धर्म इहे प्रतिपाल, युवती सेवा ही को धर्म । । युवती सेवा तऊ न त्यागै जो पति कोटि कर अपकर्म ।--- उ०—प्रापुन लोभ अस्त्र नै 'धावत, पलक कवच नहि अग सूर (शब्द०)। हाव भाव मेर लरत कटाञ्छनि, 'भृकुटी धनुष अपंग ।--- अपकर्मा--वि० [स० अपकर्मन्] दुष्कर्मी भ्रष्टाचारी । । सुर०, १०२८६ ।। अपचीकृत--वि० [स० अपवीकृत] पच महाभूतो का अभिन्न सूक्ष्म अपकर्ष - सज्ञा पु० [सं०]-१ उत्कर्ष का विनोम। नीचे की अर ओर प जिसका पचीकरण न हुआ हो ।। खिचाव । गिराव । २ घटाव । उतार। कमी । ३ किमी वस्तु अपंजीकृत--वि० [म ०= नहीं +पञ्जीकृत जो सूची, वहीं, रजिस्टर यी व्यक्ति के मूल्य वा गुण को कम समभाना या बतलाना । या खाते में दर्ज न हो। बेक़दरी । निरादर । अपमान । ‘अपंडित--वि० [सं० अपण्डित] मूर्ख । निरक्षर । ज्ञ'नहीन । अपकर्षक-वि० [स०] अपकर्प करनेवाला । निरादर करनेत्रा नः । | जिससे अपमान होता हो । अपडी--वि० [म० अ + पिण्डिन्] पिंड या शरीर में रहित (ईश्वर)। अपकर्षण-प्रज्ञा पुं॰ [सं०] १ अपमान। तिरस्कार । बेदरी । उ०। उ०—वस अपडी पड मे ता गति पै न कोइ ।—कवीर धन्य वन्य जन भी न सह सके यह अपकर्षण ।---साकेत, ग्र०, पृ० १६ ।। अपय–सझा पु० [सं० = बुरा+हि = पय] दे० 'अप्थ' । उ०--- । पृ० ४१६ दे० 'अपकप' ।। कहे कबीर गह अचरज बाता । चलटी रीनि अपथ जग जाता। अपकर्षसम-संज्ञा पुं० [स०] न्याय में जाति के चौवीम भेदों में से ---कवीर सा०, पृ० ४३१ ।। एक । दृष्टात में जो न्यूनताएँ हो उनका साध्या में अ'रो। करना। अपपर -वि० [हिं॰] दे॰ 'अपरपार' । उ०---(क) प्रथम सुमर जैसे यह कहना---'यदि घट का सादृश्य शब्द में है तो जिस इण विध परमेश्वर । पूरण ब्रह्म प्रताप अप पर ।—० रू०, प्रकार घट का प्रत्यक्ष श्रवणेंद्रिय से नहीं होता, उसी प्रकार पृ० ३ । (ख) नमो अविगत नमो अापू नमो पर अपपरम् ।-- शब्द का भी श्रवणेंद्रिय से प्रत्यक्ष नहीं होता।' राम० धर्म०, पृ० ५१ । अपरुपत--वि० [म०] अपमानित । अपकृष्ट । हटाया गया [को०] अप प्रवेशन--सज्ञा पुं० [सं०] कौटिल्य के अनुसार पानी में डुबाकर अपकलक-मज्ञा पु० [म ० अपरेल अमिट कलक । न मिटनेवाला | मारने का दड जो राजविद्रोही ब्राह्मणों को दिया जाता था। कलक [को० ।। अपु---मज्ञा पुं० [म०] १ ज ।। पानी। २ वायु । हवा (को०) । ३ । अपकल्मप–वि [ स०] १ निष्पाप । २ निष्कलक [को०) । चित्रा नक्षत्र [को०] । . अपकषाय-वि० [स०] दे० 'अपकल्भप' [को॰] ।