पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/२९२

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अन्यापेक्षा ३३६ अन्वयगत अन्योति । जैसे,—- हे पिक पचम नाद को नहिं भीलन को ज्ञान। अन्योन्य-सज्ञा पुं॰ वह काड्यालकार जिममे दो वस्तुग्रो की किसी यह रीझिवो मान तु जो न हुने हिय वान । यहाँ कोकिल और क्रिया या गुण का एक दूसरे के कारण उत्पन्न होना वर्णन माल की बात कहकर मूवं दुर्जनो और गुणियो का स्वभाव किया जाय । जैसे--सर की शोभा हम है, जहम यी ताल । दिखाया गया है। करत परस्पर हैं सदा गुरुता प्रकट विशाल ।। अन्यापेक्षी–वि० [म० अन्यापेक्षिन | दुमरे का प्रामर रखनेवाला । अन्योन्यभेद संज्ञा पु० [स] अापसी वर 1 शत्रुता का०]। दूसरे का अवलंब लेनेवा ना । उ०——वह मूलन एक उन्मुग्नु अन्योन्यविभाग–सा पुं० [स०] पैतृक मपति की पारस्परिक भाव है, अन्यापेक्षी भाव जो दूमरे की उपस्थिति से ही | बँटवारा (को०] । रसात्रम्था तक पहुंचता है।-नदी०, पृ० २५६ । अन्योन्यवृत्ति--सज्ञा स्त्री॰ [भ] पारस्परिक या ग्रापमी प्रभाव को०]। अन्याय-सच्चा पुं० [सं०] [वि० अन्यायी [१ न्याय के विरुद्ध आचरण । अन्योन्यव्यतिकर--संज्ञा पुं० [सं०] कार्य और कारण का पारम्परिक अनीति । व इमाफी । २ अधेर । अन्यथाचार । ३ जुल्म ! सवध को०] । अन्यायी'- वि० [म० अन्यायिन्] अन्यथाचारी। अनुचित कार्य करने । अन्योन्यसश्रय---सज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अन्योन्यव्यतिकर [को०]। | वान्ना दुराचारी। जालिम ।। अन्योन्याभाव--संज्ञा पुं० [सं०] किसी एक वस्तु का दूसरी वस्तु न अन्यायी--वि० [सं०] न्याय के प्रतिकून । अनुचित । होना । जैसे----धद पट नहीं हो सकता और पट घट नही अन्यारा--वि० [सं० प्र=नहीं+हि० न्यारा १ जो पृथक् या हो सकता । जुदा न हो । २ अनोखा । निराले । ३ खूब । वहुत । बढे । अन्योन्याश्रय-सज्ञा पुं० [सं०] १ परस्पर का महारा। एक दूसरे की बस जग माह अन्यारा । छत्र धर्म धुर को रखवारा (--- अपेक्षा । २ न्याय में एक वस्तु के ज्ञान के लिये दूपर) वस्तु के ज्ञान की अपेक्षा । सापेक्ष ज्ञान । जैसे--सर्दी के ज्ञान के लिये लाल० (शब्द॰) । गर्मी के ज्ञान की, और गर्मी के ज्ञान के लिये सर्दी के ज्ञान की अन्यारी--वि० स्रो० [हिं०] दे॰ 'अनियारा । उ०—काम झूले उर श्रीवश्यकता है। मे उरोजन में दाम झूले, राम झूले प्यारी की अन्यारी अन्चक्---क्रि० वि० [सं०] १ वाद मे। पीछे से । २ मैत्री से । अँखियान में ।--पद्माकर ग्र ९, पृ० ३२१ ।। अनुकूलता से [को॰] । अन्यार्थ---वि० [स] प्रस्तुत अर्थ से भिन्न अर्थ प्रकट करनेवाला (को०] । नकद करनेवाला । अन्वक्ष'--वि० [सं०] १ प्रत्यक्ष । साक्षान् । २ पीछे या वाद अन्याव --संज्ञा पुं० [हिं०] २० 'अन्याय' । उ०---देवनि हु’ देब का (को०) । परिहर यो प्रन्याव न तिनको, ही अपराधी सब के --तुलसी अन्वक्ष’--क्रि० वि० १ मामने । २ पीछे। बाद । उपरात ।। ग्र०, पृ० ५९६३। अन्वय-सञ्ज्ञा पुं० [सं०] [वि० अन्वयी] १ परम्पर । नारतम्य । अन्याश्रित-वि० [सं०] दूसरे पर निर्भर या अवलवित [को०] । २ भयोग । मेल । ३ पद के शब्दो को वाक्यरचना के नियमअन्यास -क्रि० वि० [हिं०] दे० 'अनायाम' । उ०—-दाम मनि नुसार यथास्थान रखने का कार्य । जैसे--पले कर्ता फिर | काहे को अन्यान दर सावनी भयावनी भगिनी सी वेनी लौटि कर्म और फिर क्रिया । ४ अवकाश । खाली स्यान । लौटि है --भिखारी० अ ०, पृ० १७४ ।। अन्या साधारण---वि० [म०] असाधारण । असामान्य । विचित्रको ५ वश । कुल । घराना । खानदान । ६. भिन्न भिन्न बस्तु को माधर्म्य के अनुसार एक कोटि में लाना । जैसे,-चलने अन्यून---वि० [सं०] जो न्यून न हो। जो कम न हो । काफी । बहुत । अन्येद्यु --क्रि० वि० [२०] [वि० अन्येद्युक] दूसरे दिन । फिरनेवाले मनुष्य, बैल, कुत्ता आदि को जगम के अनर्गत मानना । ७, कार्य कारण का सवव । ८ अनुगमन (को०)। अन्येद्यु ज्वर--मज्ञा पु० [सं०] वह ज्वर को वीच में एक एक दिन का ६ आशय (को०) । अतर देकर चढे । एकता ज्वर । अँतरिया बुखार। अन्वयज्ञ--वि० [सं०] व शपरपरा का ज्ञाता (को०] । अन्येद्युक'- वि० [म०] दूसरे दिन होनेवाला । अन्वयव्यतिरेक--- सज्ञा पुं० [सं०] १ सहमति प्रौर असहमति । अन्येद्युक–सा पु० दे० 'अन्वेच्च ज्वर'। सगति प्रौर असगति । २ नियम और अपवाद [को॰] । अन्योका--वि० [सं० अन्यो फस्] अपने घर में न रहनेवाला (को०] । अन्वयव्यतिरेकसबंध-सज्ञा पुं० [म० अन्वयव्यतिरेकसम्बन्ध] दो अन्योक्ति--मझा जी० [म०] वह कथन जिमका अर्थ साधर्म्य के विचार वस्तुओं का बह सवध जिसमें एक के होने पर दुमरी का होना मे कथिन वस्तु के अतिरिक्त अन्य वस्तु पर घटाया जाय । तथा इमरी के न होनेपर पहली का न होना निर्भर करता है। । अन्यापदेश । जैसे,—केतो मोम कला करो, को सुधा को दान। जैसे, और चक्र तथा घड़े का सवध । 'दड और चक्र के रहने नही चद्रमणि जो द्रवं, यह तेलिया पखान । यहाँ चद्रमा और पर ही बडे का बनना', यहाँ दड और चक का घड़े के बनने से ।। तेरिया पत्थर के बहाने गुणी और अगुणग्राही अथवा मज्जन अन्वय सबध है। साथ ही दड़ और चक्र के अभाव में घडे का न और दुर्जन की बात कही गई है। रुद्रट 'श्रादि दो एक बनना यहाँ दड और चक्र के अभाव का घडे के न बनने से प्राचार्यों ने इसको अलकार माना है । व्यतिरेक सबध हैं। अन्योदर्य-दि० [सं०] [ वि० स्त्री० अन्योदर्या] इमरे के पेट से पैदा ।। अन्वयव्याप्ति-सज्ञा ली० [सं०] निश्चय या स्वीकारात्मक तर्क (को०)। सहोदर का उलटा । अन्वयागत--वि० [सं०] जो वशपरपरा से चला आ रहा हो । अन्योन्य-सर्व० [सं०] परस्पर । आपस में । नशानुगत [को०] ।