पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/२९१

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अन्यथाभावे २२६ । अन्यापदेश रात को खाता है क्योकि विना खाए मोटा होना असभव है। अन्यमानस--वि० [१०] १० 'अन्य मनस्क' (को०] । न्याय में यह अनुमान के अतर्गन और मीमांसा में अर्थपत्ति अन्यमातृज-शा पुं० [सं०] दूसरी या गानेली माता से उत्पन्न। प्रमाण के अतर्गत है । सौतेला भाई [को॰] । . अन्यथाभाव--संज्ञा पुं० [सं०] विरोधात्मक भाव या विचार । गन्न अन्यमार्गी-fi० [सं०. अन्य नागिन] इन। मद । धर्म माननेउना । | रूप में होना (को०] । । उ०----अन्य मार्गी को अहसान मोन किया।--दो मौ वाचन, अन्यथावाही---सज्ञा पुं० [सं० अन्यथावाहिन्] अर्थशास्त्रानुसार विना | भा० १, पृ० ३१८ ।। चुगी या महसूज दिए ही माल ले जानेवाला । अन्यह–अव्य० [सं०] किमी अन्य समय (को०) ।। अन्यथासिद्धि--सज्ञा स्त्री० [सं०] न्याय में एक दो जिजमे यथार्थ अन्यवादी-वि० [म० प्रन्यादिन्] १ झूठी गवाही देनेवाला । नही किंतु और कोई कारण दिखाकर विपी वान की सिद्धि २ प्रतिवादी [को०] । की जाय । असवद्ध कारण से सिद्धि । जैसे,—कही कुम्हार, दड अन्यवाप-सी पुं० [२०[ कोयल (को०] ।। या गधे को देखकर यह मिट्ट करना कि वहीं घट है।' अन्यविर्वाचित----वि० [म०] निगा पानन दूसरे द्वारा किया गया अन्यदा--प्रव्य० [म०] १ दूसरे समय । दूसरे अब पर पर। २ एक ) [को०)। " दिन । एकवार। एक समय । ३ किसी समय ' के भी फा०] । अन्यन्नत---वि० [सं०] अन्यधर्मानुगामी। अनाय । अन्यदीय–वि० स०] अन्य का । दूसरे से संबधिन । उ०—अन्यदीय विशेप --नार्यों की अपनी भाषाएँ था जो प्राप्नों को अर्जाव की इच्छा के द्वारा उसका सचान नहीं होता।---मपूर्णा० अभि० मालूम होती थी। आर्यों ने उनको प्रन्यन्नन इत्यादि कहा है। ग्र ०, पृ० ११६ । जिसमे जाहिर होता है कि उनके धर्म, देवता, नि म इवादि अन्यदुवंह--वि० [सं०] जो दूसरे के वहन करने योग्य न हो । दूसरे के पृथक् थे । लिये कठिन [को॰] । अन्यशाख-संज्ञा पुं० [२०] वह याह्मण जिसने प्राना धम त्याग अन्यदेशीय--वि० [स०] [वि० सी० अन्यदेशीय] विदेशी । दूसरे देश | दिया हो (को० ।। | का परदेशी ।। अन्यशाखक--सज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अन्याय' (को०] । अन्यधी--वि० म०] जिसका विचार ईश्वर के पक्ष में न हो । ईश्वर अन्यसक्रात--वि० [सं० अन्य पर क्रान्त] दूसरी स्त्री के संवों कर लेनेको न माननेवाला (को॰] । याला को०] । अन्यनाभि---वि० [स०] दूसरे व शवाला [को०] । अन्यसंगम--सा पु० [सं० अन्यसङ्गम] अवैध यौननवध [को॰] । अन्यपर-वि० [सं०] अन्य विपयक । दूसरे के बारे में [को०)। अन्यमभूयक्र—संज्ञा पुं० [स० अन्यसम्भूपक र] शो का दूसर( दाम अन्यपुरुप सज्ञा पुं० [भ] १ दूसरा अादमी। गैर । २ व्याकरण जो पहले दाम पर न रिने पर लगाया जाय ।। में पुरुषवाची मर्वनाम का तीसरा भेद। वह पुरुप जिसके मवध । विशेप---चंद्रगुप्त के समय बहुत से पदार्थ ऐसे थे जिन्ह राज्य हो |मे कुछ कहा जाय । यह दो प्रकार का है--निश्चयात्मक जैसे। वेचता था ।। 'यह', 'वह' और अनिश्चयात्मक जैसे कोई' । अन्यसभगदु खिता--सज्ञा जी० [ भ० अन्य सम्भोगयि र ] वह अन्यपुष्ट-सज्ञा पु० [सं०] [स्त्री० अन्यपुष्टा] वह जिपका पोपण अन्य नायिका जो अन्य पी मे न भो । केविन देवर और यह जान| के द्वारा हो । कोकिल । कोयन । काकपाली । कर कि इसने हमारे पति के साथ रमण किया है, दुविन हो । विशेष--ऐसा कहा जाता है कि कोयल अपने अडो को सेने के अन्यसाधारण--वि० [नं०] वहूतों में पाया जानेवाला [को०] । लिये कौवो के घोमलो मे रख प्राती हैं। अन्यसुरतिदु खिता---सज्ञा स्पी० [न०].३० ग्रन्यन भोगद् खिता' । अन्यपूर्वा---सज्ञा स्त्री० [सं०] वह कन्या जो एक को ब्याही जाकर या उ०—अन्यमुरनिदुचिता कहाँ, करे पेच-रिम-नेह-ननिरान | वाग्दत्ता होकर फिर दूसरे से व्याही जाय। इसके दो भेद हैं--- |ग्न ०, पृ० २९२ । पुनभू गौर स्वैरिणी । । अन्याइG---सझा पुं० [हिं०] दे० 'अन्याय' । उ०—सुनि पावै नीवन अन्यबीजज-सज्ञा पुं० [म०] दत्तक पु । [को॰] । | को राइ । तो यह होइ बडो अन्याः --नद० ग्र०, ३० ३४४॥ अन्यबीजसमुद्भव--सज्ञा पु० [सं०] दे॰ 'अन्यवीजज' [को०] । अन्याईq--सज्ञा पुं० [हिं०] २० ‘अन्याय' । उ०--सेए नाहि चरने अन्यबीजोत्पन्न--सज्ञा पुं० [सं०] दे॰ 'अन्यबीजज' (को०)। गिरिधर के बहुत करी अन्याई ।--पूर० ११४७ । अन्यभृत्--वि० [सं०] दूसरे का पालन करनेवाला (को०)। अन्याई -वि० [हिं०] दे० 'अन्यायी' । उ० --या ब्रज मे लरिका अन्यभृत्—सच्चा पै० काक । कौश्रा (को॰] । घने हाँही ग्रन्याई ।—तुलसी नं १, पृ० ४३० । अन्यभृता--सज्ञा स्त्री० [सं०] कोयल [को०] । अन्याउ –सज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अन्याय' । उ॰—जे मन्याउ करहिं अन्यमन--वि० [सं० अन्यमनस्] अनमना । उदास 1 चितित । ' काह को ते सिसु मोहि न भावह --तुलसी १ ०, पृ० ४३३ । अन्यमनस्क-वि० [सं०] जिसका जी कही न लगता हो । उदास । अन्यादृश-वि० [स०] १ दूसरे प्रकार का । २ परिवर्तित [फा०] । चितित । अनमना । उ०--कितु अन्यमनस्क होकर वह टहलने अन्यापदेश--सज्ञा पुं० [सं०] वह कथन जिसका अर्थ साधम्र्य के विचार ही लगी।-कानन०, पृ० १८। से कथित वस्तुओं के अतिरिक्त दूसरी वस्तुओं पर घटाया जाय।