पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/२९०

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अन्नपस्थिति २७ अन्यथानुपपत्ति अन्नपाकस्थान--सज्ञा पुं० [सं०] १० ‘पाकम्प ' । । अन्नित—वि० [हिं०] दे० 'अनीति' । उ०—-[ नीति जानि अन्नित अन्नपूरना---सज्ञा स्त्री० [हिं०] दे॰ 'अन्नपुण । ३०--जौलो देवी । न करि ।—पृ० रा०, ३५३ ।। द्रवे न भवानी अन्नपूरना --नुल भी ग्र०, पृ० २३५।। अन्य-वि० [सं०] इमरा । और कोई'। मिन्न । गैर । पराया। अन्नपूर्णा--सज्ञा स्त्री० [सं०] अन्न की अधिः नी देवी । दुर्गा का एक उ०-असुर मुर नाग नर यक्ष गधर्व खग रजनिचरसिद्ध ये रूप । ये काशी की प्रधान देवी हैं । चापि अन्ये ।-तुलसी ग्न०, पृ० ४८७ ।। अन्नपूर्णेश्वरी-सज्ञा स्त्री॰ [स०] १ अन्नपूर्णा । २ त नोक्त एक भैरवी यी--अन्यजात । अन्यमनस्क। अन्यान्य । अन्योन्य । | का एक नाम कि०] 1 अन्यक---वि० [सं०] दे० 'अन्य' (को॰] । अन्नप्रलय--वि० [सं०] मरणोपरान शरीर का व्रत रूप में परिनन । अन्यकारुका---सचा ० [सं०] मल का कीडा [को॰] । होना (को॰] । अन्यक्रोत–वि० [सं०] दूसरे का खरीदा हुआ । अन्नप्राशन–सज्ञा पु० [सं०] बच्चो को पहले पहन, अन्न चटाने का अन्यग--वि० [म०] दूसरे की स्त्री के साथ गमनं करनेवानी । सम्कार । चटावन 1 पेहनी । पसनी । व्यभिचारी (को॰] । विशेष—स्मृति के अनुसार छठे या आठवें महीने बालक को और अन्यगामी-वि० [म० अन्यागामिन्] १० ‘अन्यग' (को०] । पांचवें सातवें महीने बालिका को पहले पहल अन्न चाना अन्यचित्त---वि० [सं०] जिसका मन अन्यत्र लगा हो । अन्यचाहिए । | मनस्क [को॰] । अन्नप्रासन -संज्ञा पुं० [हिं०] ६० 'अन्नप्राशन' । ३०---नामकरण अन्यच्च-किं० वि० [म०] और भी । सु अन्नप्रासन वेद वाँधी नीति --नुलसी ग्र०, पृ० १२६ ।। अन्यजात--वि० [म०] खोई हुई या नष्ट (वस्तु) । अन्नमयकोश---सज्ञा पुं॰ [म०] बेदात के अनुसार, पचकोशो मे में । अन्यत्-वि० [म०] ई० 'अन्य' । प्रथम । अन्न मे वना हुआ। त्वचा से लेकर वीर्य तक का । अन्यत –क्रि० वि० [स०अन्यतस्] १ किसी और से । २ किसी और भमुदाय । म्यू न शरीर । वौद्भशास्त्रानुसार पक्रद । उ०— | स्थान से । कहीं और से । अन्नमयको । मुनी पिंड है प्रकट यह प्रानमा कोश पचवायु । श पचवायु अन्यतम–वि० [सं०] जिसकी तुलना में और कोई न हो । सर्वश्रेष्ठ। हू वेपानिये ।--सु दर अ ०, पृ० ५६८ । । मवसे वडा [को०] । अन्नमल---संज्ञा पुं० [सं०] १ यव अादि अन्नो से वनी शराब । २० । अन्यतर--वि० [म.] दूसरा । मिन्न । दो में से एक । मल 1 विष्टा । अन्नराशि-तज्ञा झी० [म.} अन्न की ढेरी । गज । । अन् इतस्त्य-सज्ञा पु० [म०]। शत्रु । दुश्मन । प्रतिपक्षी (को॰] । अन्नविकार-सज्ञा पुं० [सं०] अन्न का परिवर्तित रूप । अन्न पचने अन्यतोपाक-सञ्ज्ञा पुं० [सं०] दाढी, कान, भौं इत्यादि में वायु का से क्रमश बने हुए रस, रक्त, मान, मज्जा, चरबी, डी और प्रवेश होने के कारण अखिो की पीडा । शुक्र अादि ।। अन्यत्र- वि० [सं०] श्रौर जगह। दूसरी जगह । उ०—ना नृप को अन्नव्यवहार--संज्ञा पुं० [सं०] पारम्परिक भोजन या खानपान का परमातम मित्र । इक छिन रत न सो अन्यत्र ।---सूर० ४।१२। व्यवहार [को॰] । अन्यत्व-सझा पु० [सं०] परायापन । भिन्नता । अन्नशेष--सज्ञा पुं० [सं०] बचा हुआ-भोजन । उच्छिष्ट [को०]। अन्यत्वभावना-सज्ञा स्त्री० [सं०] जैनशास्त्रानुसार जीवात्मा को अनुसस्कार-सज्ञा पुं॰ [सं०] देवतादि के कार्यों में अन्न का प्रयोग । शरीर से मिन्न समझना ।। देवकार्य मे अन्नोत्सर्ग (को॰] । अन्यथा-वि० [सं०] १ विपरीत । उलटा। विरुद्ध । और का और। अन्नसत्र--संज्ञा पुं० [सं०] वह स्थान जहाँ भूखों को भोजन -' दिया । २ असत्य । झूठा। उ०—किएँ अन्यथा होइ नहिं विप्र श्राप " जाता है । अन्नक्षेत्र 1 लगर। अति घोर ।—मानस, १॥१७४ ।। अन्ना--सज्ञा स्त्री० [सं० ॐ अग्निक, प्रा० ॐ अग्निम) अन्ना] १ वह अन्यथा--अव्य० नहीं तो । जैसे,--याप समय पर थाइए अन्यथा छोटी अँगीठी या वोरसी जिसमें सुनार सोना आदि रखकर हमसे भेंट न होगी (शब्द०) । 'भाथी के द्वारा पाते या गलाते हैं । । । । अन्यथाकारिता-सच्ची स्त्री० [सं०] विपरीत या विरुद्ध करने की अन्ना-सच्चा स्त्री० [सं० अम्बा या अल्ला = माँ अथवा देश०, दाई ] प्रवृत्ति । उ०-हा | होती है प्रकृति रुचि मे अन्यथाकारिता धात्री । दूध पिलानेवाली स्त्री ।। अन्नाकाल--सझा पुं० [सं०] अनाकाल । दुमक्ष [को०१ ।। भी |--प्रिय० प्र०, पृ० २१९ । अन्नाद'-.-सझा पु० [सं०] १ वह जो सव' को ग्रहण करे । ईश्वर । २ अन्ययाचार:-सी पुं० [सं०] अनुचित या विपरीत कार्य। विरुद्ध विष्णु के सहस्र नामो में से एक ! चरण । उ०--तव उसका परिणाम अन्यथाचार के अन्नाद-वि• अन्न खानेवाला । अन्नाहारी । । । । । अतिरिक्त क्या होना है।--प्रेमघन॰, भा०२, १० ३१६ ।। अन्नाम -वि० [हिं०] ६० ‘अनाम' । उ०—-इह मु नाम अन्नाम । अन्यथानुपपत्ति--ससी स्त्री० [सं०] किसी वस्तु के अभाव में किसी जेन नामह घर जाइये 14-पृ० ०, ३३।१६। । चूसरी वस्तु की उपपत्ति या अस्तित्व की असु भावना ।। अंन्नि(G)---वि० [हिं०] ६० 'अन्य' । उ॰—प्रहंत अन्नि एक पति, उर्च विशेष--३१, मोटा देवदत्त दिने को नहीं जाता, इन कपन से इसे , जात, तुम्थय -=१० ६०, ५८/२४१ । । बात का अनुमान होता है या प्रमाण मिलता है कि वेद