पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/२६८

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गी* कवि, अनिष्टकारी ३५ अंनौति अनिष्टकारी--- वि० [ मा० अनिष्टगरिन्] [ ० अनिष्टकारिणी] दे० अनिस्तीर्णाभियोगमा पु० [१०] वह अभियुन जिनने अभियोग 'अनिष्टकर' । । का डन कर उसे मुक्ति न पा ली हो [को॰] । अनिष्टग्रह-श पु० [२०] हानि करनेवाला ग्रह् । अशुभ ग्रह को०] । अनीसा झी [ रा ० अणि = अग्रभाग, नोक ] १ नोक । मिरा । अनिष्टप्रवृत्तिक-वि० [स]प्ट्र या राज्य वेः अनिष्ट माधन में तत्पर । कोर । उ०—-मतगुर मारी प्रेम की ही कटारी टूटि । वैसी ( वागी 1 [प्ट्रद्रोह। । अनी न सा नई जैसी साले मूठि ।—कबीर (शब्द॰) । २ नाव विशेप-चाणक्य के नमद में ऐने लोगो को अग्नि में जाने का या जहाज का अगला मिरा । मांगा । माया । गलही । ३ जूते देड़ दिया जाता था। की नोक । ४ पानी में निकली हुई जमीन की नोक ।। अनिष्टप्रमग—अशा पु० न० अनिष्टप्रसङ्ग १ अवछिन या अनिच्छिन अनी---सा रही० [सं० अनौक - समूह, मैना] १ समूह । झुड । दल । घटना । २ गत वस्तु, तर्क, अथवा नियम का मवध [को०] । उ०—नारदादि मनकादि प्रजापति, मुर नर असुर अनी।-- अनिष्टफल-संज्ञा पुं० [३०] अवाछित परिणाम । बुरा नतीजा[को०] मूर०, १३७१ । २ सैन । फौज । उ०—बेपु न नो मेखि मीय अनिष्टशका-सा जी० [१० ग्रनिष्टशङ्कर दुर्भाग्य या अवाछित को न मगा । झागे अनी चली चतुरगा ।—तुलसी (शब्द०)। ग्रामका । अनि होने का डर [को०] ।। अनी-सज्ञा स्त्री॰ [ हि० अन = मर्यादा ] *नानि । खेद । लाग । अनिष्टसूचक-वि० [म०] अनिष्ट या अहित की सूचना देनेवाला । जैसे-उनने ग्रनो के वम कनी खा ली (शब्द०) । | [को०] ।। अनी —सयों स्त्री० [म० अयि १० अनौ] रो। अरी । म्रो 1 अनिष्ट हेतु-- संज्ञा पु० [सं०] बुरा नक्षण । अपशकुन । अनीक-सज्ञा पुं० [सं०] १ सेना । फौज । २ ममूह । झुड। ३. अनिष्टानुवधी–वि० [सं० अनिष्टानुवन्धि] एक के बाद एक विपत्ति युद्ध । सग्राम । लडाई । का ग्राना । लगातार । विपत्तियो का आगमन (को०] । अनीक’ –वि० [अ० = नहीं +फा० नेफ, हि० नीक] जो अच्छा न अनिष्टापत्ति--सा स्त्री० [सं०]अनिष्ट या अशुभ की प्राप्नि। अयाछिन हो । वुवा । खराव । घटना [को०) । अनीकिनी--नशा स्त्री० [स०] १ अक्षौहिणी या पूरी सेना का दमयां अनिप्टापादन--संज्ञा पुं० [सं०] १० ‘अनिष्टापत्ति' [को०] । | मागे जिसमें २१८७ हाथी ५६६१ घोडे और १०९३५ पैदल अनिष्टाप्ति--संज्ञा स्त्री० [सं०] अनिष्ट की प्राप्ति अर्थात् प्राप्ति । होते है । २ कमलिनी । पद्मिनी । नलिनी । अनिष्टापत्तिा [को॰] । अनीक्षण—सज्ञा पुं० [सं०] न देखना । दृष्टिनिक्षेप न करना (को०] । अनिप्टाशमी--वि० [म० अनिष्टाशमिन्] अनिष्ट : नवना देने । अनोच-वि० [म ०] १ जो नीचा न हो । उत्तम । अादर के योग्य । | वाला । अनिष्टमूच ।। २ जिनका उच्चारण अनुदारी न्वर में न हृग्रा हो । उदात्त अनिप्टी-१० [न० अनिदिन्] जिनने यज्ञ प्रादि न किया हो (को०)।। न्वर में उच्चाग्नि (को॰) । * प्रभागा । भाग्यहीन । अनोवदर्गी-मज्ञा पुं० [म० शनीचर्दाशन् ] एक बुद्र का नाम [को०] । अनिष्टोत्र क्षण माझा पु०[सं०]अनिप्ट की कल्पना । उनिप्ट होने की अनोचानुवर्ती--वि० [ स ० अनिघानुर्वानन्] १ नीच अथवा अशिष्ट | सभापना (को०)। जना से मपर्क न रखनेवाला ।२ निष्ठावान या विश्वसनीय पति अनिष्ठा---मज्ञा पुं० [स०] अदृढता । निष्ठा का प्रभाव (को०)। या प्रणयी [को०] अनिष्ठर-वि० [म०1 जो कर न हो । जो निर्दय न हो। दयावान । अनटि –वि० [सं०अनिष्ट, प्रा० अगिठ्ठ] १ 'जो इष्ट न हो । अनि श्चिन । अप्रिय । २ बुरा । बर।। उ०—(क) जाउ जू जैए यो मनचित्त [को०] । अनौठ बड़े अरु ३ वडे पर दी बड़े हो ।---देय (गन्द॰) । अनिष्ण---वि० [सं०] जो प्रवीण न हो। अदक्ष । अरुणग्न [को०] ।। (a) हा हा व नाइ यो पीठ दे बैठुरी काहू अनोट की दीठि अनिप्पत्ति-संज्ञा सी० [सं०] अप्र्णन । अधूरापन । असिद्धि । परेगी ।—देव (शब्द॰) । अनिष्पन्न–वि० [१०] १ अधूरा। अपूर्ण । २ अमपन । अमिट् । अनोठि(७–सज्ञा स्त्री॰ [म० अन+इप्टि] १ अनिच्छा । २ बुराई । अनिस -क्रि० वि० [हिं०] "० 'अनि श' । । ३ क्रोध । अनिसर्ग---वि० [१०] अम्बा माविक । अप्राकृतिक [को०] । अनोड-वि० [स०] बिना घोसने का । २ अाश्रयहीन । जिसका अनिष्ट----वि० [सं०] १ जिसने अधिकार या शाज्ञा न प्राप्त की हो। । निश्चिन अायाम न हो । ३, अशरीरी ।। | २ जिम’ यवहार या उपयोग की प्रज्ञा ने ने जो ३ । । धनी_ना पु० अग्नि का एक नाम (३०] । अनिसष्टपभोक्ता---सज्ञा पुं० [स०अनिसृष्टोमनो] वह जो मालिक अनीतसा झी० [हिं०] ६० प्रनीति' । उ०—मी और न को अजा के बिना धरोहर रखी हुई वस्नु कम में न्नाए । जानवी जग प्रनीत करना। जाम उपज्यौ मरन नौ नाको मानिस्तीर्ण-वि० [सं०]१ जो पार न किया गया हो । जो अम्वीकृत वेधत मार सि० मप्नक, पृ० ३६५ ।

  • कि गदा हो । निमसे छुटकारा न मिना हो । २ अभियोग प्रनीति–वा ग्नी० [सं०] १. नीति का विरोच । प्रन्याय । वैदमाफी । f, डार न दिया गया हो। जिसका खटन ने किया गया ३. शरारत । ६. अधेर । प्रयीवार । ४, ईति अर्धा विपरि। हो [को०)।

या कष्ट का अभाव (को०)।