पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/२६१

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अॅनायकै अनार्यतिक्त अनायक----वि० [सं०] १ नायरहित । २ जो व्यवस्थित न अनारन’---वि० [१०] १ नि रनर | अनन्त । २ नित्य । स्थायी | हो [को०) ।। | [को०] । अनायत--सज्ञा वि० [सं०] १. 'जी नियत्रित न हो। २ अनिवारित । अनारत’--मा ५० प्रविच्छिन्न । निरर, 7 [२] । ३ अनाश्रित । बेसहारा । ४ जो विच्छिन्न न हो । अवि- अनारदाना-- पु० [फा० अनारदान,J१ वटटे अनार या मुख्या च्छिन्न । ५ स ग्न । ६ बिना लवाई का [को०)। हा दाना । ३ रामदाना । अनायतन--संज्ञा पुं० [सं०] वह स्थान जो विश्रामस्थ या वेदी न अनारपन--गशा पुं० [हिं० अनारी +पर (प्रत्य०) ] गैरएन। हो [को॰] । नासमझी । अनाडीपन । उ०—ो मित्र देम ज नैन अनायतन-वि० विश्रामस्थान या वेदी से रहित [को०] । नारगी बान । नप न फु उरि पनि जान हो वह अनापन अनायत्त- वि० [स०] [स्त्री० अनायत्ता] १ अनधीन । अवशीभूत । २ | लान ।—म० मप्त, पृ० २२० । स्वतत्र । खुद मुख्तार । अनारम्य–यि+ [ग] जो प्रारभ हग्ने प्रोग्य न हो (ो०] । अनायास-क्रि० वि० [न०] १. विना प्रयास । विना परिश्रम । अनारी -वि० [हिं०1 prn नाड़ी' । ३०-----त्रा पारी दिप्ति विना उद्योग । वैठे बिठाए । उ०—-जोई तनु धरौ तजौ पुनि चारी चपना चमतकारी, यग्ने अनारी में कटारी तवा अनायास हरि जान |--भानस ७/१०६ । २ अकस्मात् । अचानक । महमा । एकाएक । उ०—-भरत बिबेक बराहे । है ।--भिखारी० ग्र०, भा० २, पृ० १०२ ।। विसाला । अनायास उधरी तेहि काला ।—मानस, २२६६। अनारी --वि० [हिं० प्रनार + ई (१०)] अनार के रंग का । लाल। अनायुष्य–वि० [म०] अायुष्य या दीर्घजीवन के लिये हानिकर [को०]। अनारी-नशा पुं० १ नान रग की प्रक्विान्ना फवूनः ३ एक अनारभ-वि० [स० अन् + आरम्भ] प्रारभरहित । उ०---अनारभ प्रकार की पगवान । भीर मीठा या नमकीन पूर ने भी एक | अनिकेत अमानी ।---मानस, ७॥४६ । प्रकार का समोसा ।। अनार--सझा पुं० [फा०] १ एक पेड और उसके फन का नाम । अनारोग्य-वि० [म०] १ जो म्वन्य न हो । २ मान्थ्य के लिये दाडि म । | हानिकर (को०] । विशेप-यह पेड १५-२० फुट ऊँचा और कुछ छतनार होता है। अनारोग्यकर-वि० [म०] जो स्वास्थ्यमर न हो (०) । इसकी पतली पतली टहनियो मे कुछ कुछ काँटे रहते है। इसके अनार्की-सा पी० [अ० एना] १ राज्य या राजा ने रहने की फूल लाल होते हैं। फल के ऊपर के कड़े छिलके को तोड़ने से अवस्था। शासन या राज्यव्यवस्था का अभाय ।राजनीतिक उथन रस से भरे लाल सफ़ेद दाने निकलते है जो खाए जाते हैं। फल पुथल । अराजमना। विप्नब । २ एका मताद जिम अनुनार खट्टा मीठा दो प्रकार का होता है। गर्मी के दिनों में पीने के ममाज तभी पूर्णता को प्राप्त होगा जब राज्य या मानव्यवस्था लिये इमका शरवत भी बनाते हैं । फूल ग बनाने और दवा न रहेगी और पूर्ण व्यक्तिन्वानन्य हो जायेगा । अराजकवाद । के काम में आता है । फन का छिलका अतिसार, संग्रहणी अनार्जव–ना पु० [म०] १ निधाई का अभाव । टॅढापन । २ अादि रोगों में दिया जाता है। पेड़ की छाल में चमड़ा सिझाते मरलता का अभाव । अग्नजुना । कुटिलता । केपट । हैं । पश्चिम हिमालय और सुलेमान की पहाडियो पर यह वृक्ष अनार्तव'--वि० [म०] विना ऋतु का । बेमौसम । नवनर । आप से आप उगता है । इसका कलम भी लगता है। प्रति वर्ष अनार्तव--संज्ञा पु० स्त्रियो के ऋतुधर्म का अवरोध । रजोधर्म की खाद देने से फल भी अच्छे आते हैं। काबुल और कधार के । कृपावट ।। अनार प्रसिद्ध है। अनार्तवी-वि० सी० [म०] जो ऋतुमती न हो । २ एक अतिशवाजी ।। अनार्य-वि० [२०] १ आर्य जाति ने रहिन । २ अथैः5 [क]।। विशेष-अनारे फल के समान मिट्टी का एक गोल पात्र जिसमे अनार्य–सशी पु० [ ० अनार्या ] १ वह जो अयं न हो। २. लोहचून और बारूद भरा रहता है और जिसके मुंह पर आग म्लेच्छ । । लगाने से चिनगारियो का एक पेड सा बन जाता है । यौ०-अनारदाना । अनार्यक-संज्ञा पुं० [२०] अगुरु की नकडी [को०] ।। विशेष—दाँतो की उपमा कवि लोग अनार से देते आए हैं । अनार्य कमी-वि० [ मुं० अनार्य कमन् 1 प्रायचित कर्म न करने ३ वह रस्सी जिसमे दो छप्पर एक साथ मिलाकर वाँधे जाते हैं। वाला [फा०] । अनार --सज्ञा पुं० [सं० अन्याय] अनीति । अन्याय । धनार्यज-सज्ञा पुं० [सं०] अगुरु का पेड [को०] । अनारकिस्ट-सज्ञा पुं० [अ० एनाकस्ट] वह जो राज्य में विद्रोह को अनार्यज-वि० [वि॰ स्त्री० अनार्यजा] १ जो अार्य से उत्पन्न न हो। उत्तेजन दे या अगाति उत्पन्न करे। वह जो राज्य या राज्य २ अनार्य देश में उत्पन्न [को॰] । व्यवस्था अथवा सामाजिक व्यवस्था को उलट देना चाहता हो । अनार्यंजुष्ट---वि० [सं०] जो अनार्य द्वारा प्रावरित या व्यवहृत हो अराजक । विप्नवपथी । कौ०] । अनारज)---वि० [हिं०] ६० 'अनार्य' । ३०----भावे देह छुटी देश अनाता–सझी मी० [२०] १ अर्व धर्म हा में राव । २ अश्रे८१ अरज अनारज मैं भाव देह छूट जाहू वन में नगर में ---- ३. लघुना । नीचता । ४ नेच्छता । सुदर में से, भा॰ २, १० ६४२ । अनार्यतिक्त-सी पुं० [सं०] चिरामता [को॰] ।