पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/२५०

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अनवीनता ६४७ अनभिलाय विशेष—-पशु के निये इग विशेषग का बहुत प्रयोग प्राप्त अनभाव-मण पुं० [[हिं० अन + भाव] गाने या प्रेम का भार । | होता है । अनभावत -वि० [हिं०] १० ‘मन भावना' ।। अनवोन्नता--वि० [हिं०] [स्त्री० अनबोलनी] २० 'अनवोन' । अनभावता--वि० [हिं०]० 'अन माया'। उ० ---तेरे ला न माग्न अनवोलाई-वि० [हिं०] दे० 'अनवोलता' । प्रायौ । ऊबन्न चढि, तीके को नन्ही अनभावन भू मैं मुरअनबोला–मज्ञा पुं० [हिं० अन+बोल] बोलचान या बातचीत का कायौ ।--सूर० १॥३३१ ।। अभाव । अनवन । अनमेल । | अभावरी –मन्ना स्त्री० [हिं० प्रन + भावरी] नामद होने का अनवोले--- क्रि० वि० [हिं०] विना बोने हए । उ०—-मैं तो तुम्हें भाव या स्थिति । उ०---भावरि अनार भरे नारी पोरि हेम खेलतहि छाँडि गई, झाई अप न्यारे अनबोले रहे। वेकवादु । अपनी अपनी भाँति की छुढे न मजु राव। दु । दोऊ ।—मूर ०, १०।२७६१ । विहारी र०, दो० ६३७ ।। अनब्बर - वि० [सं० अन् + अपर प्रबल ] बली । वनवान। अनभिगम्य---वि० [सं०] जो अभिगम्य या नमझने योग्य न हो । ३० --चढची चहान अनार ।—पृ० , ५८ । ७ ।। अबोध । उ०—सदैव के किये यह उन्हे अनभिगम्य हुआ । अनव्याहा -वि० [हिं० अन +व्याहा ] [स्त्री० अव्याही ] अविवा प्रेमघन०, भा॰ २, पृ० २७५ ।। हित । विन याहा । क्यारा। उ०—नयाही यह पुरय मो अनभिग्रह-वि० मि०1 भेदशुन्य । समभाबविणष्ट्र ।। अनुराग जा हुई । ताहि अनूठा या ६ बि ६ सय अनभिग्रहमा पुं० १ भेदशून्यता । एलगता। नगकता । कोइ -रमराज, पृ० १५ ।। | २ जैन मतानुसार मन मन को अच्छा प्रौर सत्र में मोक्ष मानने अनभग(G)---वि० [ हि० अन +भग = टूटना [अडित । अभग । | का मिथ्यात्व । । परिपूर्ण । उ०--- यरहरात उर कर कंपत फरवत अधर सुरग । अनभिज्ञ--वि० [सं०] [वि० झी० अनभिज्ञा, ना अनभिज्ञता 1 अझ । परग्नि पीउ पकनि प्रगट पीक लीका अन मग । पद्माकर जनजान । अनाडी । मुम्वं । उ०—( क ) मैं तप कितनी ग्र०, पृ० १६६ ।। अनभिज्ञ थी प्रतिबिंबित शशि को पाकर । वीणा, पृ० अन्भजला - वि० [ हि० अन+भजना ] न भजनेवाला । न ३६ । २ अपरिचित । नावाकिफ । उ०—(घ) निपट अनभिज्ञा चाहनेवाला । उ०—इक मेजते की भजे एक अनभजतन अभी तुम हो वहिन, प्रेमिका का गर्व रखती हो बृया ।—प्रथि, 'मजही ।-नद० ग्र०, पृ० २० । पृ० ७८ ।। अनभया--वि० [ हिं० अन+भया ] बिना हुए। विना मत्ता या अनभिज्ञता--संज्ञा स्त्री० [स०] १ अञता । अनाडीपन । अनजानपने । स्थिति हुए । उ०—-जागेउ नृप अनभएँ विहानी ।—मानस, । मूर्खता । २ परिचय की अभाव । नावाकफियत । १।१७२।। अनभिप्रेत--वि० [म०] १ अभिप्राय विरुद्ध । अनभिमन । नात्पर्य में अनभल –सा पु० [हिं० अन = नहीं + भले ] बुराई । हानि ।। गिन्न । अौर का और। जैसे--अपने इस बात का अनभिप्रेत अहिन । उ०—जारइ जोगु सुभाउ हमारा । अन भ ल देखि न अर्थ लगाया है (शब्द०)। २ अनिष्ट। इच्छा के पतिकून । जाइ तुम्हारा ।—मानम, ३५१६ । नापसंद । जैसे-ऐसी ऐमी कार्रवाइयाँ हमे अनभिप्रेत है--- मु०–अनभल ताकना = बुराई चाहना । चु०----जेहि राउर अति अन मल ताका । सोइ पाइ हि येहु फल परिपाका ।—मानस, (शब्द०)। अनभिभूत--वि० [सं०] १ जो पराजित न हो। २. अबाधित [को॰] । २।२१ । ०ी 1 अनभिमत–वि० [सं०] १. मत के विरुद्ध । राय ने खिलाफ । २. निदिन । हेय । परबि । उ०—कटु कहिए गाढे परे सुनि समुझि । तात्पर्य विरुद्ध । और का और । ३ अनमीप्ट । नापमद । सुसाई । करहिं अनमले को भलो अपनी भलाई -—तुलसी अनभिमान–सा पुं० [सं० अन् +अभिमान] अभिमान को प्रभाव । ग्र०, पृ० ४७२ । उ०—संपत्ति में अनभिमान प्रौर युद्ध में जिनकी स्थिरता है अनभाउता -वि० [हिं०] दे० 'अनभानता' । उ०—स्य पदमाकर वह ईश्वर की सृष्टि का रत्न है ?--भारतेंदु ग्रं॰, भा॰ १, सौति सँजोगनि रोग भयो अनभाउतो जी फो ।—पाकर पृ० २६४ । अ०, पृ० १७० । अनभिमानुक-वि० [सं०] किसी के प्रति दुर्भाव न नेपाली [को॰] । अनभाया--वि० [[हिं० ग्रन + भावना अच्छा लगनी ] [ झी० अनभिम्लात--वि० [सं०] जो मुरझाया या म्हनायः न हो । अनभाई ] जो न भावे । जिनकी चाह न हो । अप्रिय । अनभिम्लातवर्ण–वि० [सं०] जिनका वर्ण या रग फी या मद न अरुचिकर। नापसदं । उ०—-अवई तकल नर नारि दिल हुअा हो [को०) । अति, अँकनि वचन अनभाये । तुलसी रामवियोग सोग इस अनभिरूप--वि० [सं०] जो मदन या समान न हो । २ जो सुदर में समुश्त नहि समुझाए ।-तुलसी ग्र०, पृ० ३६२। हों [को०] । अभय(५.वि० [हिं०] ऋत्रित्र । अनिष्ट । उ० --गरुई को यही अनभिलाप'-वि० [३०] इछान्य [को०)।। कियौ भन भायौ । जाते यह ६ हि दह मैं गयी ।-नद १०, अनभिलापस घे० १. मूत्र वा रा रा में ना । ३. २१ १० २८२ ।। वाद को अभाव (को०) । या गुन्हा ° [सं०] जिन हुअा हो १०, पृ० ३६, सोग उस