पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/२४९

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अनुपाकर्मविवाद अनवोस तो वेतन सबधी और दूसरा दान संबंधी पराशर ने लिखा है विशेष-कुडनी में जिस स्थान पर चद्रमा वैठा हो उसने वरिइवें कि श्रमी या भृत्य को उसके काम के बदले वेतन न देना या स्थान में यदि कोई ग्रह हो तो इस योग को अनफा कहते हैं । वेतन देकर लौटा लेने का काम 'वेतनस्यानपाकर्म' है। इसी अनव छ७ि)---वि० [हिं० अने+चा छिन, प्रा० बछिय] अबाधित । प्रकार दिए हुए माल को लौटानी और ग्रहण किए हुए मान अनचाही । उ०—प्रौर सकन यह बरतनि कहिए अनबछी ही को देना ‘दत्तस्यानपाकर्म है। ग्रावे जू सुदर० प्र०, मा० १, पृ० ३११ । अनुपाकर्मविवाद सज्ञा पुं० [सं०] मजदूरो और काम करनेवाले अनवन-सी पुं० [हिं० अन = नहीं+ यत = वेतना] विगाई। पूजीपतियो के वीच वेतन संवधी झगहा । विरोध । फूट । पटपट । विशेप---नारद ने लिखा है कि कर्मस्वामी अर्थात् पूजीपति भृत्यो अनवन -वि० भिन्न भिन्न । नाना (प्रकार) । विधि । अनेक 1 को निश्चित की हुई मृति दे ( ना० स्मृ० ६०२ )। । उ०—(क) अनबन ब्रानी तेहि के माहि । चिन जाने नर भटका अनपाय-वि० [सं०] अपाय का क्षय से रहित [को॰] । ब्राहि ।—कबीर (शब्द०)। (ख) पुनि अभरन बहु कोड अनपाय--सज्ञा पुं० अनश्वरता । २ नित्यता । ३ शिव [को०] । अनवन भाँति जगन् ।---जायसी ग्र० (गुप्त), पृ० ३४४ । अनपायनी–वि० स्त्री० [सं० शत्रपायिनी] विश्लेपरहित । स्थिर । दृढ। अनवनता--वि० [हिं० अन+Vबन] जिसमे वनत या बनाव या । उ०—-प्रेम भगति अनपायनी देहु महि थीराम -- | मेल न हो । उ०—वीर कहते क्यो वनै अनवनता के संग, मानस, ७५३४ । दीपक को भावं नहि जरि जरि मरे पतग ---वीर मा० अनपायपद-सज्ञा पुं० [सं०] यिर पद । अनश्वर पद । परम स०, पृ० ५६ । पद । मोक्ष । अनवनी--वि० [हिं० अनबन] [वि० स्त्री० अन्वनी बुरा। खराद । अनपायी--वि० [सं० अनपायिन्] [स्त्री० अनपायिनी निश्चल । बिगड़ा। उ०—बन्यो अनबन्यो समुझि के, मोघि लेहिंगे साधु । स्थिर । ऋचल । दृढ । अनश्वर । --भिखारी ग्र॰, भा॰ २, पृ० ४ ।। अनुपाश्रय-वि० [अ०] १ जो किसी का प्राश्रित न हो । २ अनवनियत--सा यी० [हिं० अनव T] वह जो बननेवानी ने स्वतंत्र (को॰] । हो । उ०—गुरु विन मिटइ न दुगधुगी अनवनियत न नमाइ ।अनपेक्ष-वि० [स०] १ अपेक्षा या चाह न रखनेवाला । २ तटस्थ । कवीर (शब्द०) । ३ निष्पक्ष । ४ सवधहीन । ५ स्वतंत्र [को०] । अनबलई -वि० [हिं० अन+वल] विना जताया । जो प्रवक्त अनपेक्षा)---वि० [सं०] अपेक्षारहित । निरपेक्ष । बेपरवाह ।। न किया गया हो । उ०—अनवलई दव परजलई -वीसन० अनपेक्षा-सज्ञा स्त्री० अपेक्षा या चाह का अभाघ [को०] । स०, पृ० ६६ ।। अनपेक्षित--वि० [सं०] जो अपेक्षित न हो। जिसकी परवाह न हो। अनवाद--संज्ञा पुं० [हिं० 1 +० 'अनवाद' । उ०--प्रानदबन मुजान जिमकी चाह न हो । सुनौ विनती जिन अनवाद की निहारी।-बनानद, पृ० ५५ अनपेक्षी–वि० [स० अनपेक्षिन] दे० 'अनपेक्ष' [को० ।। अनविछा---वि० [हिं० अन+/विछ] विना विछाया हुआ । नंगी अनपेक्ष्य–वि० [सं०] जो अन्य की अपेक्षा न रखे । जिसे किसी के । उ०---अपनी कोठरी में एक अॅनविछे तखन पर लेटी थी -- सहारे की आवश्यता न हो। जिसे किसी की परवा न हो । त्याग, पृ० २१ ।। उ०—साक्षी हो अनपेक्ष्य मेरे अर्थं, मत्य कर दे सर्व-सहन- अनविध–वि० [हिं० अन +म० विट] दे० 'अनविधा' । समर्थ ।-साकेत, पृ० १७८ ।। अनविधा--वि० [भ० अन् + विद्ध] विना बेधा हुा । विना छेद अनपेत--वि० [सं०] १ जो गत न हो। २ अव्यतीत । जो बीता न | किया हुआ । हो । ३ जो पृथक् या अलग न हो । ४ विश्वासपात्र। विश्व- अनवीह(9)---वि० [हिं० अन + स० भीत, प्रा० भी/बीह] निर्भय । सनीम् । ५ निकट | समीप [को॰] । निडर । उ०——लोहाना अनवीह लीय वारत्त ममथ्थे । अनप्त---वि० [सं०] जो जलयुक्त न हो (को॰] । । । पृ० रा० ४।२० ।। अनबूझ---वि० [हिं० अन+ बुझ] अनजान । नासमझ । मृखे । अनप्रापत —वि० [हिं० अन+स०प्राप्त,हि०प्रापत, पररपत] अप्राप्त। उ०—-अधेर नगरी अनबूझ राजा, टका सेर माजी टका सेर उ०---अनप्रापत को कहा तजे, प्रापत तजे सो त्यागी है।--- खाजा ।—भारतेंदु ग्र ०, मा० १, पृ० ६७० । कवीर रे०, पृ० ४६ । । अनप्रासन(५)---सज्ञा पुं० [हिं॰] दे॰ 'अन्नप्राशन । उ०—-पाजु कान्हें अनबूझा(५)---वि० [हिं०] वेसमझाबूझr । अबूझा ।। अनवडा--वि० [हिं० अन+ वूड न डूबा हुआ । जा | करिहैं अनासन ।—सूर ० १७०७ । पैठा हो । उ०---ग्रनबूई वुडे, तरै जे बुडे सर्व भाग । अनफाँस –सज्ञा पुं॰ [ हि० अन+पास = पाश ] मोक्ष । मुक्ति । बिहारी र०, दो० ९४ । उ०--जेकर पास अनफाँस, कहु जिय फिकिर सँ मारि के |-- अनवेचा–वि० [हिं०] दे० 'अनविधा' । । जायसी (शब्द॰) । अनवोल----वि० [हिं० अन = नहीं +4/बोल] १ अनवो । न अनफा--सज्ञा पुं० [ यूनानी, प्री० ग्रनफे ] ज्योतिष के सोलह योगो में बोलनेवाला । २ चुप्पा । मौन । ३ गूगा । बेजान । ४ जा से एक । अपने सुख दु ख को न कह सके ।