पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/२४२

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अखि १८१ अनगिनी रहनि हमारा।---कबीर (शब्द०)। ५ डिठीना । काजल की रोखे माये लेखन प्रकनि अन खोही बातें तुलसी विनीत बानी बिदी जिसे धीठ (नजर) से बचाने के निये बच्चो के माथे । विहँसि ऐसी कही ।—तुलसी अ ०, पृ० १६० । ४ अनुचित । में लगाते है । उ०—प्रनधन देखि लिलावा, अनख न वार । खोटा। कुरा । उ०—(क) कबहू' मो को कछू लगावति कबहु ममलहु दिय इति मन मिज, 'भत्र करतार । खानखाना कहति जनु जाहु कही । मूरदाम वातै अनखीही नाहिन मो पे । (शब्द॰) । जाति सही मूर (शब्द॰) । (ख) राम सदा मरनागत अनख-वि० [म० = नहीं+मय -- नाखू ]: १ विना नाखून | की अनखींही अनैसी सुपाय सही है ---तुलमी ग्रे ०, पृ० १९९। का । उ०---मिहिर नजर म भावते, रात्र याद मरि मोद । अनगढ–वि० [हिं० अन+गढता] १ बिना गढ र हुग्रा । उ०—थे अनबन खनि अनबन अरे, मन मो मनहिं करोद |–रसनिधि चमक रहे दो खुले नयन ज्यो शिनानग्न अनगढे रतन । (शब्द॰) । कामायनी, पृ० २४७ । २ जिसे किसी ने नवनइ या हो । स्वअनखना - क्रि० अ० [हिं० अनख से नान०] क्रोध करना । ये मू । उ०—ऊौ राखिए यह बात । कहत हौ अनगढ व अनरिमाना । प्ठ होना । उ०—हम अनजी या वात सो लेत । हद सुनत ही चपि जात ।--सूर(शब्द०)। ३ बेडौल । भद्दा । दोन को नावै । सहज भाव रहो लाडिले वमत एक ही गाँव ।। वेगा। ४ असकृत । अपरिष्कृन । ५ उजड। अक्वड । —सूर (शब्द॰) । पोगा । अनाडी । जैसे, अनगढ मूर्ख । ६ वेनुका । अाइ । अनखाना --क्रि० अ० [हिं० अनख] क्रोध करना। कुष्ठ होना । सिर पैर का । जैसे, अनगढ वात ।। रिमाना । उ०---(क) कापर नैन चढाए डोनति, व्रज मे अनगनख-वि० सं० [अन्+गणन] [स्त्री० अनगनी] अगणित । तिनुका तोर । मूरदान यशुदा अनखानी यह जीवन धन बहुत । उ०---निज काज सजत सँवारि पुर नर नारी रचना मोर । —सूर०, १०1३१० । (ख) गई करुणा मी इक दिन । अनुगनी ।—तुलसी (शब्द॰) । ऊत्र । कहा ग्रनम्बाकर उसने खूब ।-झरना, पृ० ५६ । अनगना --क्रि० स० [म० अनग्न = ढका हुआ] खपडा फेरना । अनख़ाना -क्रि म० अप्रगन्न करना । नाज करना। खिझाना। छाजन मे टूटे हुए खरडो के स्थान पर नए लगाना। टपकते ३०-इठन म मा दिन मधेि सेनापति भीर देखि फिरि हुए खपड न की मरमत करना । अॐ । न्हात खात मुत्र करन माहिबी कैसे करि अनखाऊँ --- अनगना--वि० [हिं० अन् +गनना] १ जो गिना न गया हो । ने सुर० । १७२ । गिना हुआ । २ अगणित । बहुत । अनखावना--क्रि० स० [हिं०] *० अनग्धाना' । उ०—-वा देखत अनगना'—सशा पु० गर्भ का यावी महीना । जैसे—इस स्त्री का हम तुम मिनिहीं, हे कौ ताकी अनखावत ।—मूर०, अब अनगना लगा है (शब्द०)। १०।२८१६ । अनगवना(५)---क्रि० प्र० [स०अन् + हि० अविना प्रथया हि० अन + अनखाहट -सा भी० [हिं० अनप + आहट (प्रत्य०) ]प्रनबने गवन = गमन] जान बूझकर देर करना । विलय करना । |. या अंध दिलाने की क्रिया या नाव । उ०—मार उ०-मुहू धोयति, एडी घमति, हमति, अनगवति तीर । धसति मनुहारिनु भ गायी छ । मिठाहिं । बाकी अति अनखाहटी न इदीवर नवनि कालिदी के नीर |--विहारी र०, दो० ६६७ । मुसुकाट विनु नाहि ।-विहारी र०, दो० ४६८ । अनगाना —क्रि० अ० [स० अन् + हि० अगवाना] १ विलव अनखी-वि० [हिं० धनख +ई (प्रत्य०) ] क्रोधी । गुस्सायर ।। करना। देर करना । २ टालमटोल करना । । जो जल्दी नाराज हो । अनगाना--क्रि० स० [हिं०] में वरना । सुनझाना (केश आदि) | अनखीली--- वि० स्त्री० [हिं० अनख + ईनी (प्रत्य॰)] अनख- अनगाना-क्रि० म० [हिं० प्रनग र] अनगने या वड़िा फेरने का | " बानी । बुरा माननेवाली । अनी । उ०—कहै पदमाकर काम करना । ऋगार अनखीविन की भारी मीर भारत को भाँज दे री भाँज अनगार'—वि० [सं०] विना अगार या घर का । गुहीन को। ६।–पद्माकर ग्र०, पृ० ३२२ । । अनगार-सज्ञा पुं० घूमने फिरनेवाला । सन्यासी (को०] । अनवला–वि० [हिं० अन + पलना] [अनलो] १ जो बुरा न अनगारिका--सज्ञा स्त्री० [सं०] परिव्राजक या सन्यासी का जीवन ।।` हो । वद । २ जिसका कारण प्रगट न हो । गुप्त । उ०- या स्थिति [को०] । केमर देम कुमुम के रहे अग त्रपटाइ । नगे जानि नम्व अन- अनगिन -वि० [हिं०] दे० 'अनगिनत' । उ०—फन रहे तारे खुली कन वो उति अनखाइ ।-विहारी र०, दो० १६६ । मानो मोती अनगन हैं ।—कवित०, पृ० ६६ ।। अनखौहा --वि० [हिं० प्रनत +ौहा (प्रत्य०)] [स्त्री० अखौही] अनगिनत-वि० [म० अन् = नहीं +गणिन = गिना हा कि * गिनती न हो । अगणित । असख्य । बेशुमार । वेहिसाव । १ क्रोध से भरा हुप्रा । कुपित । कष्ट । उ---रवि व दौं कर वहत ।। उ ---शून्यता मम डगर में अनगिनत कक वो गई ' जोरिक, नुनत स्याम के वैन । भए " हँसीह गवनु के, अति है ।—अपलक, पृ० ८६ । अनबौं नैन ।—विहारी र०, दो० २२० । २ चिडचिडा ।। अनगिना–वि० पुं० [हिं० अन+गिनना] [स्त्री० अनगिनी ] १. जल्दी क्रोध करनेवाला 1 छोटी मी बात पर चिढ जानेवाला। बिना गिना हुमा । जो गिना न गया हो । २ अगणित । ।। ।। ३ क्रोधजनक । क्रोध दिलानेवाला । उ०—निपट निदरि बोले असप । बहुत । उ०—मुक्ति मुक्ता अनगिने फन तहाँ चुनि अन कुठारिपनि, मानि त्रास भोनिन मानौ मौनता गही। अनि बाहिं ।--सूर १३३६ ।।