पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/२४०

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अनंततर्ट १७६ अनंभ अनंततर्टक-संज्ञा पुं० [सं० अनन्नटर] एक रागविणेप जो मेर अनंतरय---मशा पु० [सं० अनवरय] अनर का अभाव [को॰] । रोग का पुत्र माना जाता है । अनतराय--संज्ञा पुं॰ [स० अन्तराय] निविप्न [२] । अनतता–सशा नी० [सं० अन्वता] अमीमत्व । अमितत्व । अत्रत अनतरित--वि० [सं० अन्तरित ] १ जिसमें बीच में पड़ा हो । अधिकता । निकटस्थ । २ अर्बइन । अटूट। अनततान--वि० [म० ग्रनन्नान] अमीम | अपार (को०] । | अनतरिति--संज्ञा स्त्री० [सं० अनन्तरिति ] न त्यागना ये अनअनततीर्थकृत-सज्ञा पु० [सं० अनन्तयोर्थ त्] ३० अननजित्’ [को०)। | गाना [को०] । अनततृतीया संज्ञा स्त्री॰ [म० अ तितृतीयः] माद्र मास का तीसरा अनतरीय-वि० [ स ० अनः परीत 1 व सानुक्रम में ठीक वाद| दिन [को०] । वाला [को०] । अनतत्व--सज्ञा पुं० [म० अनन्त 3] 11ता [को । अनर्ताहत– [भ० अनन्तहित] १ ज प्रनग न किया गया हो। अनतदर्शन–ज्ञा पुं० [ स० अनन्तदर्शन ] जैन मन के अनुसार मिता हुा । निकटम्य । पान का । २ शृ व चावद्ध । अखडिन। केवल दर्शन या गम्यक् दर्शन । सब बातों का पूरा अनि । ३ जो छिरा न हो । प्रकट (को०) । ऐसा ज्ञान जो दिशा, काल अादि से बद्ध न हो । अनवान्'--वि० [ म० अन्नन् ] नित्य । जिसकी सीमा अनतदृष्टि—सज्ञा पुं० [सं० अनन्तदृष्टि] इद्र का एक नाम ।। | न हो [को०] । अनतदेव--संज्ञा पुं० [ मं० अनन्त देव 1 १ शय नाग 1 २ शेवग८ वा अनंतवान-सशी ए० ब्रह्मा के चार चरणों में से एक [को०] । | पर रहने वाले नारायण [को॰] । विशष—पृथ्वी अतरिक्ष, अनत और समुद्र नामक ब्रह्मा के अनतनाथ-सज्ञा पुं० [ स० अनन्तनाथ 1 जैन लोगो के चौदहवें चार चरण हैं। तीर्य कर ।। अनतविजय---संज्ञा पुं० [ म० अनन्नविजय ] युधिष्ठिर के शख अनतपार---वि० [न० अनन्तर जिमका पार या सीमा न हो। | का नाम । असीम विस्तारवाना [को०] । अनतवीर्य-वि० [१ ० क्षत्रीर्य] ग्रएर पीरुपमा । अनतमति--सज्ञा पु० [ स० अनन्तमति 1 एक बोधिसत्र [को॰] । अनतवोर्य संज्ञा पु० जैनो के तेइसवे तीर्थर का नाम । अनतमायो-वि० [ म० अनन्तमायिन्] 1 अनत या अपार छल या अनता--वि० सी० [ स० अनन्ता ] जिमका अतः या पारावार माया से युक्त को०] । न हो । अनंतमूल—नशा पु० म० अनन्तमूल ] एक पौधा या वे न जो मारे अनता'-सा संज्ञा १ पृथ्पी । २ पार्व। ३ करियारी का पौधा । । भारतवर्ष में होती है और झोपवि के काम आती है। ४ अनतमूल । ५ दुव । ६ पोपर । ७ जवाम । ६ अरसंवृक्ष । ६ अन्तये ।। विशेप--इसके पत्त नो न और निरे पर नुकीले होते हैं । यह दो । | अनतानववी-सच्चा पु० [सं० श्रान्तानुवन्थिन् ] जैन मतानुसार वह प्रकार की होती है—काली और सफेद । यह स्वादिष्ट, दोप या दु स्वभाव जो कभी न जाय, जैसे अनानुवधी क्रोध,स्निग्ध, शुक्रजनक तया मदाग्नि, अरुचि, श्वास, ख दी, विष, । लोम,--माया, मान ।। त्रिदोप आदि को हरने वानी होती है । रक्त शुद्ध करने का भी अनताभिधे-सज्ञा पुं० [सं० अनन्नाभिधेय ] वह जिसके नाम का अत गुण इममे वहुत है । इसी से इसे हिंदी में सालमा या उशवा । | न हो । ईश्वर । । भी कहते हैं । अनती--सज्ञा स्त्री० [म०] स्त्रियों का गह। जिसे वे बाएँ बाजू पर पर्याय—सारिवा । अनता । गोव। भद्रबलनी । नागजिह्वा । बांधती है [को०] । कराला । गोरवरी। सुगधा। भद्रा । श्यामा । शारदा । अनत्य-वि० [स० अनन्य] जिमका अत या भीमा न हो (को॰) । प्रहानिका । अस्कोता । अनत्य-संज्ञा पुं० १. नित्यत्व । निदेयता । २ हिरण्यगर्भ का अनतर'--क्रि० वि० [सं० अनन्तर] १ पीछे। ठीक वाद । उपरांत ।। | चरण [को० ।। | वाद 1 २ निरतर । लगातार। अनद-सा पुं० [सं० अनन्द १४ वण का एक वृत जिसका अनतर-fi० १ अतररहित । निकटस्य । पट्टीदार' । २ ग्रंखडित । शाम इस प्रकार है-जगण, गण, जगण, गण, न, गुः । ३ अपने वर्ष में ठीक वादवाले वर्ण का (को०) । अनद -सया पुं० [हिं०] ३० ‘अनिद' । उ०—-मुनि पुर 'मय यौ०-अनन्तरज । अनन्तरजात । | अनद बधाव वजावहिं ।—तुलसी ग्र०, पृ० ५६ ।। अनतर-मसा पुं० १ समीपता । निकटता । अतर का अभाव । २. अनदना -क्रि० अ० [स० अानन्द] भावदित होना । उ०-पुनि ब्रह्म । परमात्मा [को०] 1 मुनिगन दुहें माइन्ह् वदे । अभिमत प्राप्तिप पाइ अनदे । अनतरज-सज्ञा पुं॰ [ सं० अनन्तरज ] वह व्यक्ति जिसके पिता का तुलसी (शब्द॰) । वर्ण माता से एक वर्ण ऊँचा हो । अनदी-सच्चा पुं० [म० अनन्दिन्] एक प्रकार का धान । विशेष--जैसे,—-माता सूद्रा हो और पिता वैश्य अथवा माता । अनदी -वि० [हिं०] ६० 'नदी' । वैश्य हो और पिता क्षत्रिय अथवा माता क्षमाण और पिता । अनवर'--वि० [स० नम्वर] वस्त्रहीन । नन । नगर (को॰) । साह्मण हो । अनवर–सा पु० एक जैन साधु संप्रदाय । दिगंबर दो । अनंतरजात---संज्ञा पुं॰ [सं० नम्तरजात] ६० 'अनतर' । अनभ'---वि० [सं० अन= नहीं अम्भस = जस] विना पानी था।