पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/२३०

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अघोरी १६६ अधिकांश अधारी-मज्ञा पुं० [हिं० या + रियसभ्य] वेनिकाला हुअा वैल । विशेप-यह प्रनि तीसरे वर्ष अाता है तया चाद्र बर्व शौर सौर अधार्मिक--वि० [सं०] १ अधर्मी । धर्मशून्य । २ पापी । दुराचारी। वर्ष को बराबर करने के लिये चाद्र वर्ष मे जोड लिया जाता है। अधावट५वि० पु० [स०अर्थ = प्राचा+अावृत्त, प्रा० अध+प्रायट्ट, अविकरण-संज्ञा पु० [स०] १ अाधार । असर।। सहारा। २ आउट्ठ] श्रधा ग्रौटा हुअा। जो श्रौटाते या गरम करते करते व्याकरण में कर्ता और कर्म द्वारा क्रिया का प्राचार । मातवाँ गाढ़ा होकर नाप मे अाधा हो गया हो । उ०—कछु बलदाऊ कोरक । इमकी विभक्तियाँ ‘म’ और ‘पर हैं। ३ प्रकरण । को दीजे, अरु दूध अधावट पीजै ।-सूर० १०.१८३ । शीपर्क। ४ दर्शन में आधार विपय । अधिष्ठान ! जैसे-ज्ञान अधि--उप० [२०] एक मस्कृत उपसर्ग । का अधिकरण अात्मा है (शब्द॰) । ५. मीमांसा और बेदात विशेष--यह शब्दों के पहने लगाया जाता है और इसके ये के अनुसार वह प्रकरण जिसमे किमी गिद्धात पर विवेचना की। अर्थ होने है ---(१) ऊगर । ऊँचा। पर । जैसे--अधिराज । जाय और जिसमें ये पाँच अवश्य हो-विपय सशय, पूर्वपक्ष', अधिकरण । अधिवान । (२) प्रधान । मुख्य । जैसे, अधिपति । उत्तरपक्ष और निर्णय । ६ मामान । पदार्थ । ७ न्यायालय । (६) अधिक। ज्यादा । जैसे, अधि ममि । (४) सबध में । जैसे, ८ प्रघनता । प्राधान्य । ९ अधिकारप्रदान । आध्यात्मिक । अधिदैविक । प्राधि भौतिक । अधिकरणभोजक-सज्ञा पु० [सं०] न्यायाधीश (को०] । अधिक_-वि० [भ० भद्रा अधिकता का , ति । अधिकरणमड़प-सज्ञा पु० [सं० अधिकरण मण्डप ] न्यायालय । वहुत । ज्यादा । विप । २ अतिरिक्ष । भिवा । फालतु । । अदारात [को०] । अदापत [9] । बचा हुआ । शेप । जैसे-जी याने पीने से अधिक हो उसे अधिकरणविचान--संज्ञा पुं० [सं०] व्यतिक्रम करते जाना। किमी | अच्छे काम में लगाग्रो (शब्द॰) । | वस्तु के गुण मे ह्राम अयवा वृद्धि करते जाना [को०] । अधिक’--म पु० १ वह अलकार जिसमें ग्राधेय को आधार से अधिकरण सिद्धात--सज्ञा पुं० [म० अधिकरणद्धान्त] न्याय दर्शन अधिF वर्णन करते हैं। जैम-तुम पूछन कहि मुद्रि के मौन | में बह सिद्धात जिसके सिद्ध होने से कुछ अन्य सिद्धात या अर्थ होति यह नाम । ककन की पदवी दई तुम बिनु या कहूँ भी स्वयं सिद्ध हो जायें । राम |--राम च०, पृ० १०० । २ न्याय के अनुसार एक विशेप-जैसे, श्रात्मा देह र इद्रियों से भिन्न है, इस सिद्धान के प्रकार का निह स्थान जहाँ अावश्यकता से अधिक हेतु सिद्ध होने में इद्रियो का अनेक होना, उनके विपयो का नियत और उदाहरण का प्रयोग होता है। होना, उनका ज्ञाता के ज्ञान का माधक होना, इत्यादि विपयो की सिद्धि स्वयं हो जाती है । अधिकई –ता र० म० अविक+हि० ई (प्रत्य०)] २० अधिकरणिक-संज्ञा पुं० [ म० अविकरणिक या अधिकारणिक ] 'अधिकाई' । उ॰—हितनी के लाह की, उछाह की, विनोद | मु सिफ । जज । फैसला करनेवाला । न्यायकर्ता । मोद मो'मा की अवधि नहि। अब अधिकई है ।—तुलसी अधिकरणी–वि० [ स० अविकरणिन् ] १ अध्यक्ष । २ निरीक्षण ग्र०, पृ० ३२० ।। | करनेवासा [को॰] । अधिककोण---ज्ञा पुं॰ [म० अविक+कोण! वह को जो समकोण अधिकरण्य–सज्ञा पु० [ स० ] अविकार [को०] । से वेडा हो ( ज्यामिति) । अधिकद्धि---वि० [अ० अविक+ऋद्धि] ऐश्वर्यशाली [को०] । अधिकत -क्रि० वि० [२०] अधिकतर । विशेषकर । उ०----अधि अधिकर्म--सज्ञा त्रु० [सं०] १ देखरेख । निरीक्षण । २ श्रेष्ठ कर्म । वन वैपना यह व्यान था, ब्रजवि भूपण है शनश वने । प्रिय०, ३ तिलक को ।। | पृ० १६३ ।। अधिकर्मकर--संज्ञा पुं० [सं०] ० अधिकर्मकृ' [को॰] । अधिकतम-वि० [भं०] परिमाण, माप, संख्या अादि में सबसे अधिकर्मकृत-मज्ञा पु०म० अविकर्म कृत काम करनेवा नो का जमादार । अधिक [को०) । अधिकमक-संज्ञा पुं० [सं०] प्राचीन काल में व्यापारियो से चुनी अधिकतर--वि० [२०] किमी की तुलना में आगे बढ़। हुा । और | उगाहनेवाना अधिकारी को ।। ज्यादे (को०] ।। अधिकर्मी-सुज्ञा ३० [सं० अविकभन्। मजदूरो आदि के कार्यों का अविकतर--ब्र० वि० ज्यादातर । वहुत करके को०] । निरीक्षण करनेवाला अधिकारी [को॰] । अधिकता--संज्ञा स्त्री॰ [म०] प्रविना । ज्यादती । वढनी । वृद्धि । अधिकवाक्योक्ति--गज्ञा स्त्री॰ [भ] बढ़ा चढ़ाकर कहुना । अविरअधिक तिथि–सज्ञा स्त्री० [सं०] वह तिथि जो अपने समय के जना [को०] । पश्चात् दूसरे दिन भी मानी जाय [को॰] । अधिकसवत्सर---सज्ञा पुं० [न०] अधिक माम् । म नमाम [को०] । अधिक दिन-सशा पु० [२] २० 'अधिया तिथि [को०] । अविकाग--संज्ञा पु० [स० प्रधि काङ्ग] अधिक प्रग । नियन सख्या से यधिक दिवममा पु० [२०] ने० 'अधिक तिथि' । । विशेष अवयव । अधिक मास-संज्ञा पुं० [१०] अधिक महीना । मनमाम् । लौंद का अधिकाग--वि० जिसे कोई अवयव अविक हो । जैसे—ागर । महीना । पुरुयोत्तम माम् । असक्रानमा । ) क्ल प्रतिपदा से अविकाश---संज्ञा पुं० [सं०] अधिक भाग । जादा हिस्मा । जैसेलेकर अमावस्या पर्यंत वाल जिसमें सक्राति न पड़े । लूट का अधिकाश न रदार ने निया (को॰) । ३२ ।