पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/२२७

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  • 1; अंधम

अधखुली । । । । || अव अघफर ऊपर अवखुला--वि॰ पुं० [हिं० अध+खुलना ] [ स्त्री० अघखुनी ] अधिा अधनियाँ-वि० [हिं० आधा+ना+इया (प्रत्य) ] अाध आने खुला हुअा। उ०----सुभग मिगार साजे सबै, ६ सखीन को का । अघि थानेवाला । जैसे—अधनियाँ टिकट ।' पीठि । चलै अधखिले द्वार लीं, खुली त्रधखुली दीठि ।-- अवन्नी-संज्ञा पुं॰ [ स० अर्घ + आणक = आना ] [ स्त्री० अघन्नी ] पद्माकर ग्र०, पृ० १२।। एक आने का श्राघो । आध आने का सिक्का । इवल पैसा । अधगति --स) श्री० [हिं०] १० (अधोगति' । उ०—महा विपट अधन्नी--सझा झी० [हिं०] १० अधन्ना' ।'","। कोटर महु जाई । रहु अधमाधम अधगति पाई ।—मानस, अन्य-वि० [सं०] [स्त्री० अधन्या] १ जो धन्य न हो। 'भाग्यहीन । ७५१०७ ।। अभागा । २ गहित । निद्य । वुरा । अधगो-सज्ञा पुं० [ सु० अध =नोवे +गो = इद्विय 1' नीचे की अधप—संज्ञा पुं० [ स०] भूखा सिंह । अर्धप्त केहरी । ।। । इद्रियाँ । शिश्न या गुदा । उ०----उदर उदधि अधगो जातना। अघपई संज्ञा स्त्री० [ स०' अर्घ +पाद = चौपाई ] तौलने का एक जगमय प्रभु की वहु कलपना ।—मानस, ६।१५।। वाट । एक सेर के आठवें हिस्से की तौल । आधा पाव तौलने अधगोरा-- सज्ञा पु० [हिं० अध+गोरा ] [ स्रो० अधगोरी ] यूरोपीय का बाट या मान । दो छटकी । दसभरी । अधपैया । अघ्रपौवा । । | और एशियाई माता पिता से उत्पन्न सनीन । यूरेशियन । .. अधपका-वि० [स० अर्धपक्व] अाधा पका हुअा। जो पूरी तरह पका अवगोहुआ-संज्ञा पुं० [सं० अर्ध+गोचूग + क ] जौ मिला हुआ। न हो। अपरिपक्व । । | गेहू। गोजई । । - अधपति अधघटq---वि० [हिं० अर्घ+घट] जो ठीक या पूरा न उतरे। जिससे -सज्ञा पुं० [हिं०] दे॰ 'अधिपति'। उ०—खेची कमर में ठीक अर्थ न निकले । अटपट । कठिन । उ०—-म्है कबीर | सौं बाँध्या पटका । अधिपति हुवा वैठि करि पटका ।—सुदर ग्र ०, भा० १, पृ० ३५१ । - - अधचट बोले । पूरा होइ विचार ले वोले ।—कबीर (शब्द०)। अधफड -सझा पु० [हिं०] ३० ‘अधफर' । उ०--टूटे पखवाज अधचना–सज्ञा पुं० [हिं० अधा+चा] गेहू” और चने का मिश्रण। | मैंडराने अधफड प्रान-गंवैहौं ।—कबीर श॰, पृ० २२ । , जिसमे ग्राधी चना और प्राधः गेहू' हो। अधफर--सज्ञा पुं० [स० अर्ध+फलक = तस्ता] अतरिक्ष । न नीचे अधचरा--वि० [हिं० अध+चरना] प्राधा चरा हुआ । अर्घ भक्षित ।। 1- न ऊपर का स्थान । वीच का भाग ।।, अधर । उघा खाया हुआ । उ०----यह तन हरियर खेत; तरुनी हरिनी अव अधफर ऊपर प्रकाश । चलत, दीप देखियत , प्रकाश । घर गई । अजहू चेत अचेन यह अधचरा वचाइ ले ।—सम्मन चौकी दै मनु अपने भेव । बहुरे देवलोक को देब । ( शब्द०)। केशव (शब्द०)। अधजर--वि० [हिं० अध+जरना] १० 'अधजला' । उ०---कोई अधवर(यु–सशा पु० [हिं० अघ-+देश०' वर (प्रत्यय०)] अथवा हि ' परा मर होइ बास लीन्ह जनु चोप । कोई पतग मा दीपक अध+वाट = मार्ग] १ आधा मार्ग। अाधा रास्त, । उ०---जे कोइ अधजर तन काँप ।—जायसी ग्र०, पृ० २४६.। ., ।' अनिरुव पर परे हुथ्यार ( अबवर कटे शिखा की धार --लल्लू अधजल-वि० [स० अर्ध + जल] पानी से प्राधा ही भरा हुआ। (शब्द०)। २ बीच । मध्य । अर्घर। उ०----उन कुल की करनी 'जैसे—अधजल गगरी छलकत जाय (को०] ।.., : - | तजी इत न' भजे भगवान । तुलसी अधवर के भए 'ज्यो बघूर के अधजला-वि० [हिं० प्राधा+जलना] अाधा जना हुआ । जो पूर्ण" .. पान ।---स० सप्तक, पृ ३१। । रूप से भस्म न हुआ हो । अवबाँच-सज्ञापुं० [हिं० अध+स */वश्व]१ चे भरावत 1 चमारो अध ...वि० मी० [ia प्रधर ६ नं । * का जीरा । २ वह उजत जो चमारों को चमड़े का मोट बनाने | " । के लिये वर्ग भर मे यी फसल के समय दी जाती है । " आधाररहित । निराधार । २ ऊटपटांग। बेसिर पैर का । | अघविच-सच्चा पु० [ हि० अघ+ बीच ] मध्य! वीच । उ०-~असवढू । जिसका कोई मिलमिला न हो। न' इधर की न | तरु नमाल अघवीच जनु त्रिविब कीर पाँति रुचिर हेमजाल उधर की। उ०—-ग्रवडी चाल कबीर की असा 'धरी नहि । अतर परि तातें न उडाई ।---तुलसी ग्र०, पृ० ४.०५ ।। जाइ । दादू डॉकहि मिरिग ज्यो उलटि पडइ भू प्राइ---- अधबुव५--वि० [सं० अर्ध+बुध = बुद्धिमान] अर्व शिक्षित । अधदादू (शब्द॰) । चरा । जिसकी शिक्षा पूरी न हुई, हो । उ --विना सात लौ अवधर-सज्ञा पुं० [स० अर्घ +धार] मध्यधार। बीचोबीच । २० । बाकी सही। बुध अधबुध अचरजः एक कही 'कवार * पढ गुने उपजे अहँकार । अघधर डूबे वार न पारा -कवीर (शब्द०)। ग्र ०, पृ० १३० । ' अधबैसू--वि० [स०अर्ध+वयस् -+हि० क (प्रत्य०)] [स्त्री॰मघवैसी] अधुन –वि० [सं० ] १ धनरहित । निर्धन'। कगाल । गरीव । 'अधेड। 'मध्यम अवस्था का।' ढलती उम्र का । 'उतरता अकिचन [ धनहीन । उ०—तुम सम अधन भिखारि अगेहा । जवानी का । होत विरचि शिवहि सदेहा ।—मान, १।१६१ । २ स्वतन्त्र अधर्म-वि० [सं०] [ सी० अधमर ] [ सज्ञा अघनाई, अभनेता | संपत्ति रखने का अनधिकारी (को०] । । । । १ नीच। निकृष्ट 'बुरा । खोटा ।२ पापी । 'दुष्टं ।' उ० विशेय---मनु के अनुसार भार्या, पुत्र और दास स्वतंत्र संपत्ति कहहि सुनहि अस अधम नर : असे जे मोह पिसाच । रखने के अनधिकारी हैं। । । । मानस १५११४। । . ' ।। भव। बहुरे