पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/२२४

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अंदर्भात अट्ठी ।' '[को॰] । । ' जिसके थान की नवाई माधारण नजे या नैनमुत्र के याने हविः भाव थिं मात्र प्रभाव नुमाव कै मानि नि चुराये । ' की आधी होती है । ऐसे यि नाम जु होहिं मरोज मैं नौ उपमा' मुग्ब तेरे की पावै । अद्भत–वि० [ म० ] [ नच्चा अद्भुना अद्भुन] प्रश्चर्यजनक । ---केशव ग्र०; भा० १, पृ० १८९ ।। विस्मयकारक । विलक्षण । विचित्र । अनाचा । अजीव । अमनि'—सी पुं० [सं०] अग्नि (को०] । अपूर्वं । अलोकिकः । | अमर--वि० सं०] अत्यधिक खानेयामा । पेटू [को॰] । अद्भुत---मन्ना पु० 1 ग्राश्च । । विस्मय (को०) । २ विस्मयपूर्ण अद्य'–क्रि० वि० [सं०] अवै । अभी । अाज । घटना, पदार्थ या वस्तु (को०)। ३ किसी ॐ वाई की माप के अद्य संज्ञा पुं० खाद्य पदार्थ । शाहार (को॰] । ५ सम भागों में से एक, जिनमें ॐ वाई चौड़ाई की अपेक्ष। दूनी अद्य–वि० खाने योग्य । मोज्य [को०)। होती है (को०)। ४ काव्य के नौ रसों में से एक । अद्यतन-fi [सं०] [ वि० अद्य राय अाज के दिन का । विशेष—इसमें अनिवार्यत विस्मयं की परिपुष्टा' दिखाई जाती । वर्तमान । , है । इसका वर्ण पीत, देवना ब्रह्मा, अलवन अन भावित वस्तु, अद्यतन' संज्ञा पुं० बीती हुई अाधी रात से लेकर आने वाली प्रावी उद्दीपन उसके गुणों की महिमा तथा अनुभव स भ्रमादिक हैं । रात तक का समय । कोई कोई बीती हुई राति के शेष प्रहर ५ केशव के अनुसार रूप के के तीन भेदो में एक । से लेकर अाने की रात के पहले प्रहर तक के समय को । विशेष—इसमें किसी वस्तु का अलौकिक रूप में एक रम होना • अद्यतन कहते हैं । दिव नाया जाता है । जै --सो मा सरवर माहि फुल्योई अद्यतनीय----वि० [स०] अाज का । आधुनिक युग का को०] । सखि, राजे राजहनि । ममी मुखदानिऐ । केमदास शास अद्यदिन-अव्य० [सं०] अाज का दिन [को०] ।। पास सौरभ के लो । घने, छाननि के देव भर भ्रात अद्यदिवस–अप० [पुं०] ६० 'अद्यदिन' [को०] । यवानिऐ । होति योनि दिन दूनी निनी में सइप गुती, अद्यपूर्व ---अव्य० [सं० अद्यपूर्वम्] अव अथवा अाज में पहले (०] । सूरज सुहृद चारु चद मन मानिऐ । रवि को सदन, छुइ सके अद्यप्रभृति–क्रि० वि० [सं०] अाज से । अव से । न मदन ऐमो को मत वदन जग जानकी को जानिऐ ।-केशव अद्यश्वीन—वि० [म०1 प्राज या कन के अंतर्गत घटित होनेवाला ग्र०, 'मा० १, पृ० १८४ । । अद्भुतकर्मा–वि० [सं० अद्भुतकर्मन्] अाश्चर्यजनक काम करने | अद्यश्वीना-संज्ञा स्त्री० [सं०] जिसका प्रमथकान मनिकट हो । याला उ०—-Jीर सब लोग इनको अद्भुतकर्मा कहते हैं।--- अासन्नप्रसवा [को०३ ।। रसक०, पृ० ४२ । । अद्भूतता–सच्चा (जी० [म०] विचित्रता । विनक्षणना । अनोखापनं । अद्याभि-क्रि० वि० [सं०] अाज भी 1. अब भी। इस समय भी । अद्भूतत्व-सज्ञा पुं० [म०] विवि प्रता। अनोखापन 1 '०-उमरकार। अब तक । आज तक । उ०---देवयानी और ययाति के पावन * में हमारा अभिप्राय यहाँ प्रस्तुन वस्तु के अद् गुरुत्व, या चरित अद्यापि गुमडल को पवित्र करते हैं ।—प्रयामा, 'वै नाग्य में नदी ---२५० पृ० ३३ ।। अदूमतदर्शन–वि० [सं०] जो देने में अद्भुत या वि िवृत्र न अद्यावधि-क्रि० वि० [सं०] अाज तक। अब तक । इम में मर्य * विलक्षण । | प त । उ०—वह मत्र जो इनाने सिद्ध किया या, प्रविधि अद्भुतधर्म–संज्ञा पुं० [सं०] बौद्धो के नव अगौ में से एक [को०] । 'ईमी मौत पर गहरा 'खुदा है 1--श्यामा०, पृ० १४ । अद्भुतव्राह्मण--संज्ञा पुं० [सं०] नामवेद के एक ब्राह्मण को अशं अद्यावधि -वि० [सं०] अाजकल का । आधुनिक [को०] । * [को० ।। अद्याश्व-सझा पुं० [सं०] अाज अौर कल, का दिन [को०)। अद्भुतरस—संज्ञा पुं॰ [सं०] :० 'अद्भुत' । उ०—-जाको थाई आच अद्युत्य–वि० [सं०] जो जुए से प्राप्ने न किया गया हो । ईमानरज नो प्रद् दुतरस गाव 1-पग्राफर ग्र० पू० ३३० ।।" अद् मुनरामायण-संज्ञा पु० [२] 'एक (मायण जिमकी रचना दारी से उपाजित [को॰] । का श्रेय वा नीकि को दिया जाता है' [को॰) । अद्यैव---क्रि० वि० [सं०] अाज ही । इसी समय [को०] । अद्भुतसार–स० पुं० [भ०[ वदर वृक्ष का फन [को०] । अद्रव-वि० [सं०] जो द्रव या पतला नै हो । गाढा । घना । ठोम। अद्भुतस्वन-वि० [सं०] विवित्र स्वरवाला (को०] । अद्रव—संज्ञा पुं० ठोस पदार्य [को०) ।। अद्भुतस्वन’–सुज्ञा पुं० गिव का एक नाम [को०] । अद्रव्य-संज्ञा पुं० [सं०] सत्ताहीन पदार्य ।पवस्तु । अनत् । शून्य । अद्भुतालय--संज्ञा पुं० [सं०] वह स्थान जहाँ म पार के अद्भुत । ' पदार्थ' दिखलाने के लिये रमे जाते हैं । अजायबघर । अद्रव्य–वि० द्रव्य या धन रहित । दरिद्र । । । अद्भुतोपमा-सा स्त्री० [सं०] उपमा अन्ना का एक भेद | R०५ अद्रा -सज्ञा स्त्री॰ [व० श्रा, हि प्र] ६० 'भाद्र' । उ०----(प) । विशेष—इम में उपमा के ऐसे गुणों का उल्लेख किया जाना है, | 'जिनका होना उपमेय मै किन्न में भी से भव न हो। जैसे तपनि मुगमिरी जे महे वे अद्रा प नुह। -जापभी प्र०, प्रीतम को अपमाननि गाने सयाननि कि रिझार्दै । पु० १५६ । ( ख ) मद्रा घात पुनर्वयु पेपर, गप किनान जी मक विलोकन वोलि भ मोननि बोलि के केशव मंदिवड़ा । बोव निरंया ।-धाप० पू० ७३ । ।