पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/२२२

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अदुपित १६१ ।। अदेय अदुषित--वि० [म०] जिसपर प न लगा हो । निर्दोप । शुद्ध । उ० अष्टलिपि—सज्ञा स्त्री॰ [स० अदृष्ट+लिपि] भाग्यलिपि । 'भाग्य की | वह पूर्णतया प्रदूषित और निर्विकार है ।—कवीर ग्न ० पृ०३। रेखा । उ०—लोगो की अदृष्ट लिपि लिखी-पढी जाती थी । अदुषितघी–वि० [सं०] जिसकी बुद्धि भ्रष्ट न हुई हो। शुद्ध बुद्धि वाला लहर, पृ० ७६ । । पवित्रात्मा । (को॰] । अदृष्टवाद-वह मिद्धात जिसके अनुसार परलोक आदि परोक्ष वातो अदृढ़-वि० [सं० अ+दृढ] १ जो दृढ न हो। कमजोर । अस्थिर। | पर किसी प्रकार का तर्क वितर्फ किए बिना केवल शास्त्रलेख के चंचल । अाधार पर विश्वास किया जाय । प्रारब्धवाद । नियतिवाद । यौ०–अदृढचित्त । अदष्टवादी-वि० [सं०] अदृष्ट्रबाद को माननेवाला । भाग्यवादी । अदृप्त—वि० [सं०] दर्प या अभिमानशून्य । निरभिमान । सीघा उ०---अप वडे अदृष्टवादी हैं ।प्रौधी, पृ० १८ । * सादा । सौम्य । अदष्टाकाश-सज्ञा पुं॰ [स० अदृष्ट + आकाश] भाग्यरूपी आकाश । अदृश्य–दिं० [सं०] १ जो दिखाई न दे । अलख । २ जिसका ज्ञान उ०----मुगन अदृष्टाकाश मध्य अति तेज से धूमकेतु से सूर्यपाँच इद्रियो को न हो। अगोचर । परोक्ष । लुप्त । नायव । ,, मल्ने समुदित हुए ।—कानन०, पृ० १०६ ।। अतधवि । अदृष्टाक्षर-सज्ञा पु० [सं० ] ऐपी युक्ति से लिखे अक्षर जो विना क्रि० प्र०—करना । —होना । उ०-लक्ष्मण तुरत अदृश्य | किसी विशिष्ट क्रिया के न पढे जाएँ। उनी में हो गए |--कानन०, पृ० १०१ । विशे-ऐसे अक्षर प्राय प्याज, नीबू मादि के रस से निखे जाते अदृष्ट-वि० [म०] १-- न देखा ग्रा। अ नक्षित । अनदेखा। | हैं और सूखने पर दिखाई नही पड । विशेष न च पर २–लुप्त । अतर्धान । तिरोहित । गायब । श्रोझन । उ०— रखने से उगड आते और पढे जाते हैं। ' | यह कहिके भागीरथी धेशव भई अदृष्ट ।—राम च०, पृ० ६३।। क्रि० प्र०—करना ।—होना । अदष्टा4-सज्ञा पुं० [म०] न्यायदर्शन के अनुपार वह शब्दप्रमाण जिसके वाच्य या अर्थ का साक्षात् इम ससार में न हो । अदष्ट–सज्ञा पुं० १ भाग्य प्रारब्ध। किस मत । भावी । जन्मातर जैने--स्वर्ग, मोक्ष, परमात्मा, अादि ।। का सस्कार । उ०--( क ) केशव अदृष्ट माथ जीव जोतिः । जसी, तैसी लफनाथ हाथ परी छायो जाया राम की ।—राम अदृष्टार्थ-वि० प्राध्यात्मिक या गूढ अर्थ का द्योतक । जिसका विपय इद्रियो के ज्ञान से परे हो को] ।। च०, पृ० ७५ । ( ख ) fखता अदृष्ट था विधाता वाम कर अष्टि -वि० [सं०] दृष्टिहीन । अधा [को०] । - से ।—लहर पृ० ५३ । २ अग्नि और जल अादि से उत्पन्न " अदृष्टि----संज्ञा स्त्री० १' दिखाई नं पडने की स्थिति । २ क्रोध दुर्भाव आपत्तिा । जैसे—आग लगना, बाढ आना, तूफान आना। अदृष्टिस -- अादि से युक्त दृष्टि । कुदृष्टि [को०] ।। अदष्टकर्मा-वि० [सं० अदृष्टकर्मन् ] जिसे काम करने का अभ्यास न । अदष्टि --संज्ञा पु० शिष्यो के तीन भेदो में से एक । मध्यम अधिकारी हो । कार्य सवधी अनुभव से रहित [को०] । शिष्य । । । । । अदृष्टगत--वि० [सं०] १ जिम की चाल लखी न जाय । जो अदष्टिका–मज्ञा स्त्री० [स] दे० 'अदृष्ट' [को०] । चुपचाप कार्य करे । उ०सहज सुवास भरीर की आकरपन . अदेव -वि० [सं० अब नहीं +हि० देख] '१ जो न देखा विधि जानु । अति अदृष्टगति दूतिका, इष्ट देवता मानु ।-केशव जाय । अदृश्य । गुप्त । २ ने देखा हुअा। अदृष्ट ।उ०अ ०, भा० १, पृ० २६२।२ चालबाज । कूटनीतिपरायण । (क) ऊहै अदेख केहू नहि देखा, कवन फन द” पाय ।---जग० अदृष्टनरसा पुं० [सं०] वह मधि जिसे मध्यस्य के बिना ही दोनो । वानी, पृ० १०६ । ( ख ) देखे करइ अदेख इव अनदेखेउ | पक्ष स्वीकार कर लें को०] । विसुस । स० सप्तक, पृ० २८ । अष्टनर सवि--संज्ञा स्त्री० [सं० अदृटारसन्यि] वह सधि जो दूसरे । कसी तीसरे से कोई अदेवी-वि० [ अ= नहीं + देखी ] जो न देख सके । डाही । काम द्धि करा देगा। द्वेषी । ईर्षालु । उ०—-ए दई, ऐसो कछु करु पौंत जु देखें अदृष्टपुरुप--सज्ञा पुं० [सं०] २० 'अदृष्टनर' [को०] । अदेखिन के दृग दागे। जामे निसक ह्व मोहन को भरिए निज अदृष्टपूर्व--वि० [म०] १ जो पहने न देखा गया हो । २ अद्भूत। अक कलक न लागे ।—पद्माकर ग्र ०, पृ० ६७ | । विनक्षण । अदेखी-वि० स्त्री० विना देखी हुई । अदष्टफल-वि० [म०] अज्ञान फन्नवाला । जिसका फल न ज्ञात अदेखे--क्रि० वि० [हिं०] विना देखे । अनदेखे । उ---अदेखें अकेले हो [को॰] । किते दिन ह्व गए चाह गई चित सो कहि सोऊ । अदृष्टफल-सज्ञा पुं० पुण्य अथवा पाप का भविष्य में उपलब्ध होने ---ठाकुर०, पृ० ७ । बाला फल [को॰] । अदेय–वि० [स०] १ न देने योग्य । जिसे न दे सकें । उ०—मकुच अदृष्टरूप- वि० [सं०] अदृश्य प्रकारवाला । [को०] । विहाइ माँगु नृप मोही। मोरे नहिं अदेय कछु तोही ।अदृष्टरूप—संज्ञा पुं० वह रूप जो दृष्टिगीचर न हो [को०) ।

  • मानम, १११४६ । २ ( वह पदार्थ ) जिसे देने को कोई बाध्य • २१ ।

न किया जा सके।