पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/२१५

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"अथवा अत्रेय । इसकी नौ शाखाएँ थी--पना, दाTI, प्रदाता, रनौता, अत्रेय)----सज्ञा पुं० [२० अात्रेय दे० 'आत्रेय' । व्रह्मदावली, णौनी, विदर्शनी और चरण विद्य।। अत्रगुण्य-सज्ञा पु० [सं०] सत्व, रज, तभ, इन तीनों गुणी का कहीं वही "इन नौ गाग्वा के ' नाम इप प्रकार हैंअभाव ।। पिप्प-नादा, शौनकीया, दामोदा, तनायना, जाजना, अह्मपविशेप-साख्य मतानुसार 'इम अवस्था का परिणाम मोक्ष या कैवल्य है ।। नागा, कौन खिना, देवदशनी मौर चारण विद्या | इन अत्वक्क--वि० [सं०] चर्मरहित [को॰] । गावो में में प्राजकन कैप शौनकीय मिलती हैं जिसमे अत्वरा—संज्ञा स्त्रो० [सं०] शीघ्रता की कमी । मदता [को॰) । २० काड, १११ नुवाक, ७३१.मूति और '४७६३ मत्र अथ अव्य [सं०] १ एक भगलसूचक शब्द जिनमे प्राचीन काल । हैं । पिप्पलाद गाया की गुहिता प्रोफेसर वुनर को काश्मीर में मे लोग किमी ग्रंथ या लेख की प्रारमें करते थे । जैसे भोजपथ पर लिखी मिनि थी पर वह छी नही । इसका उ7---(क) 'अथतो धर्म व्याख्यास्याम' ।—वैशेषिक । [ख] वेद धनुर्वेद है । इनके प्रधान उपनिषद् प्रश्न, मुटके और 'अथातो ब्रह्मजिज्ञासा' ।—ब्रह्मसूत्र । पीछे से यह ग्रंथ के माग्य हैं । इगका गोपथ ब्राह्मण अाज फल प्राप्न है । कनअार भ में उसके नाम के पहले निखा जाने लगा । जैसे याटियो की इस वेद का जानना प्रविषयक है ।। -अथ विनयपत्रि का स्रियते' । २ अर्व । ३ अनतर । तदनतर । २ अथर्ववेद का मंत्र ।। अथऊ सज्ञा पुं० [सं० ग्रस्त, प्रा० अत्य] वह भोजन जो जैन अथर्वण---सशा। पुं० [३०] १ शिव । २ ० 'अथर्व (को०] । लोग सूर्यास्त के पहले करते है । अथर्वणितशा पु० [३०] १ अथर्ववेद के अनुसार कर्मकाट करनेवाला अथक-वि० [स० अ = नहीं + हि० थकना] जो न थ । श्रान ।। ब्राह्मण । २ यज्ञ कराने पुरहिन । यज्ञ का ब्रह्मा [को०] । उ०—-शासन कुमारिका से हिमालय शृग तक अथक । अथर्वन्-- पुं० [सं०] १ एक मुनि जो 7 के पुत्र ! अग्नि अवधि अौर तीव्र मेघ ज्योति सा च 'ता था ।—नहर, | को स्वर्ग ने जानेवाने नमझे जाते हैं । २० 'अथर्व' [को०] । पृ० ७६ । अथर्वन--संज्ञा पु० [हिं०] ० 'अथर्व' । ३०--नातर बेद अयअथकिम्-अव्य० [म०] और क्या । हाँ [को॰] । | वैन हा ।—कबीर मा०, पृ० १७७ अथग-वि० [सं० अत्यग प्रा० अत्यग] अगाध । नीर । अथाह ।। अथर्वनिधि--सी पुं० [सं०] ग्रंथर्ववेद' का मर्मज्ञ [को०) । । उ०—अखड मरोवर अथग जन सा सरवर न्हाइ |-- अथर्वनी-—स, पुं० [६० शायर्वणि 1 ३० 'अथर्वणि' । उ०---प्रापु ' दादू पृ० ६७ ।। यनिष्ठ 3थर्वनी महिमा जग जानी-तुनी ग २, पृ० २७० । -अथच–अव्य० [सं०] अौर । और भी । इसके अतिरक्त । अथर्वविद्- पुं० [नं०] "० 'अवंनिधि' (को०] । अथना –क्रि० अ० [स० अस्त प्रा० अत्य से नान०] १. अन अथर्वशिखा-सझा मी० [सं०] एक उपनिपद् [को०] । होना । डूबना । उ०—सूरुज उवै विहान हि अाई । पुनि अथर्वशिर सज्ञा पुं० [सं० प्रथर्वशिरस | १ एक प्रकार की इंट जो सो अथै कहा कह जाई ।—जायसी [शब्द॰] । २ क म तनिय शाखा के समय में गन्न की वेदी बनाने के काम आनी होना । घट जाना । समाप्त हो जाना (को॰) । | थी । २ एक उप दिपद् [को०] । .. | अथमना-सशा पु० [स० अस्तमन, प्रा० अनमण] पश्चिम दिशा । अथर्वेशिरा–स पी० [भ० अयर्वशिरस्] १ वेद को एक ऋचा की | उगमना का उलटा । नाम । २ एक उनिपद [को०) । अथरवन)—सज्ञा पुं० [सं० अथर्वन्] चौथा वेद । अथर्ववेद । उ०- अथर्वांगिरस—-मश पुं० [सं० अर्धाङ्गिरम] दे० 'अयवं' [क] यहूं परमारथ कही हो पडित, रुग जुग स्याम अथर- अथर्वांग-मज्ञा पुं० [स०] २० 'अथर्वणि' [को०] ।। | वन पठिया |--गोरख०, पृ० १०६ । [ख] रिग, जजु, अथल-----सज्ञा पुं० [अ (उच्चा०) + म स्यत, प्रा० यल] वह भूमि साम, अथरवन माहीं ।---जायसी ग्र ०, पृ० ४४ । । जो लगाने पर जोनने के रि ये दी जाय । । 'अंथरा--सज्ञा पृ० [म० श्रास्तर] मिट्टी का एक बरतन या नदि । अथवना -क्रि० प्र० [सं० प्रस्तमन = डूबना प्रा० अत्यन विशेष—-नमे रैंगरेज कपडा रेंगते हैं, सोनार मानिक रेत अत्यपण'१ अन्न होना। इतना । उ०—कि-जो अग रखते हैं और जुनाई सूत भिगोते और ताने में लेई सो अथवं फूलं मो कृम्हि गये । जो चनिए तो इह पर लगाते । । जामे मो मरि जाय ।-कवीर [शब्द]। [ख] केइ यह अथरी-सज्ञा स्त्री० [हिं० 'अथरा का अल्पा०] १ छोटा अथरी । बसत व पत उजा । गा सो चाँद अश्वा लेइ तार ।----जायसा २ मिट्टी का वह वरतन जिसमे कुम्हार हाँडी या धडे को रखकर थापी से पीटते हैं । ३. मिट्टी का वह वर [शब्द॰] । २ लुप्न होना । तिरोहित होना । नष्ट होना। |तन जिसमे दही जमाते हैं । गायत्र होना । चला जाना । उ०—–कहत ससोक दि ओकि वधु अथर्व-सशा पु० [सं० अथर्वन् ] चौथा वेद । मुख वचन प्रीति गथाए हैं। मैवक सल्ला 'गनि, माय गुन .. विशेष—इसके मत्रद्रष्टा या ऋषि भृगु या अगिरा गोग्रवाले चाहत अव अथए हैं---तुलसी [शब्द॰] । थे जिस कारण इसको ‘भग्र्वांगिरस' और 'अथर्वागिरस' भी 'अथवां—प्रव्य 6 [म०] एक वियोजक अव्यय, जिसका प्रयोग उस कहते हैं । इसमें ब्रह्मा के कार्य का प्रधान प्रतिपादन होने । स्थान पर होता है जहाँ दो या कई शब्दो या पदो मे मे किमी से इने ‘ग्रहादेव' भी कहते हैं । इस वेद मे यज्ञ कर्मों का विधान ।। एक का ग्रहण अप्ट हो । या । वा । किंवा । उ०—निज बहुत कम है। शाति, पौष्टिक अभिचार अादि प्रतिपादन कवित्त केहि नाग न नीका । सरस होइ अथवा अति फीका । विषेप है । प्रायश्चित, तंत्र, मत्र आदि इसमे मिलते हैं। —मानस, १६ ।