पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/२१२

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|| अतुल्य अत्य ४ अनुपम । धेजोड । अट्टिनीय । उ०—-फहहि परस्पर सिधि अतेव---वि० [हिं०] ० 'अतीव' । उ०---या विथा फिर निफु ज कु ज ममृदाई । अतुलित अतिथि राम नधुभाई।---मानस २।२१३। : पु ज भाभो । कामनु पाय से ग्है अतेव चामो --मारी अतुत्य-वि० [ म० ] १ ग्रनमान 1 अगदृश । २ अनुपम । बेजोड | ग्र ०, भाग १, पृ० १३९ । । अद्वितीय । निता ।। अतर--वि० [सं० अ-नहीं-हि० तोड:- टूटना] जो न टूटे । अतुल्ययोगिता--संज्ञा स्त्री० [सं०] जहाँ कई वस्तुओं को समान धर्म अभग दृढ उ०—जनु माया के बंधन अतोर-गुमान कथन होने के कारण तुल्ययोगिता की म भावना दिखाई पडने (शब्द॰] । पर भी किसी एक अभीप्ट वस्तु का विरूद्ध गुण वतन्नाकर उसकी प्रेतील-वि० [हिं० अ --तोल ] [ श्री० अतोली ] १ विना तौना विलक्षणता दिखलाई जाय वहाँ इम अनकार की कल्पना हुा । विना अदाज किया हुअा। जो कूता न हो । उ०--- फविराजा मुराग्दिान ने की है। उ०—हुय चुने हाथी चले साज सहित एक घुदिला लेयो गैया दूध अनोनी जू नद सग छोडि माथी चले, ऐनी चनाची में अचन हाडा हूँ ग्र ०, पृ० ३३७ । २ जिसकी तीन या अदाज न हो सके । ‘ह्यो ।—भूपण ग्र०, पृ० १३३'। वे अदाज । बहुत अधिक । उ०—चनै गोल गोदी अतोनी अतुप–वि० [म०] भूसी रहित । विना भूसी का [को०] । सनकै, भनो भौर भीरै उडाती भनक !-—पद्माकर ग्र ०, पृ० अतुपार-वि० [न०] जो ठडा न हो । गर्म [को०] । १० । ३ ऋतुन्य । अनुपम । बेजोड । उ०—पगनि धरत मग अतुपारकर--सज्ञा पु० [सं०] मूर्य [को॰] ।। घर नि घुजाव धरि, नावं निज ऊपर अनोल वन धारे ते 1---- अतुष्टि-सज्ञा ली” (को०] तृप्ति । असतोप [को०] । हम्मीर०, पृ० २३ ।। अतुष्टिकर—वि० [म० ] असतोपजनक [को०] । अतोपणीय--वि० [स०] जो तोपणीय न हो [को०] । अतुहिन-वि० [न०] जो ठटा न हो । तृष्न [को०) । अतौल-वि० [हिं०] १० 'अतोन' । अतुहिनकर--संज्ञा पु० [२०] सूर्य [को०] ।। अत्क-संशा पु० [सं०] १ पथिक । २ अयनव । अग । ३ जन । अतुहिनधाम-नज्ञा पुं० [म० अनुहिनधाभन ] १० 'अलुनिकर' [को०] । ४ विजली । ५ परिवन | पहनावा । ६ कवच । ७ घर का अतुहिनरश्मि-सज्ञा पुं० [म०] ० 'अतुहिनकर'। कोना [को०] । अतुहिनरुचि--तज्ञा यु० [न] दे० 'अतुहिनरश्मि' [को०] । अत्त(५)---वि० [२० आत ] प्राप्त । उपन्ध । अतूथ५)---वि० [सं० अति- अविक + उत्य = उठा हुआ] अपूर्व । अते ५--सज्ञा स्त्री० [ १० प्रति ] यति । अन्तिा । जयदती । । उ०—देखौ मखि अकथ प ऋतूथ । एक अबुज मध्य देखियत । उ०——यह कन्या फनी नही, मुद्राराक्षम की विपक्रया हो गई । बम दधिमुत जूथ ।--सूर० परि०, ११९ । अत्त भी तो वडी भई ।---भारतेंदु ग्रय, भाग १, पृ० ३६७ । अतूल-वि० [हिं०] दे॰ 'अतुल' । उ०——नेह उपजावन अतुल तिल अत्तवारईसचा पु० [सं० श्रादित्यवार प्रा० श्राइचबार, आइतवार | फूल कैध, पानिय सौवरी की उरमि उतग है।---भिखारी। <इतवार (अतवार ] रविवार । सप्ताह का पहला दिन । ग्र० मा० १, पृ० १०१ । अत्तव्य-वि० [सं०] खाने योग्य [को०] । अतुल-वि० [हिं०] :० 'अतुल्य' । उ०—हित हरपत करपत वमन अत्ता'- सज्ञा पुं॰ [म० ] चराचर या ग्रहण करनेवाला । ईश्वर का परपत उरज अतूल -पद्माकर ग्र०, पृ० १६५। एक नाम । अतूणादै-सज्ञा पुं॰ [सं०] तुरत का जन्मा बछटा [को०] ।। अता--मशा त्रिी० [सं०] १ जेठी वहिन । २ माम् । माता ! अतृपत –वि० [हिं०] "० ‘अतृप्त' । उ०---अतृपत सुत जु छुभिन तव ३ मौसी । मातृप्त्रमा । | भयौ । भाजत भाँजि 'भवन दुरि गयौ ।-नद७ ग्र०, पृ० २४६ । अत्तार--मज्ञा पुं० [अ० ] १ गधी । सुगध या यू बेचनेवाला । अतृप्त-वि० [८०] १ 'जो तृप्न या मतुष्ट न हो । अन्तुष्ट । जिमका २ यूनानी दवा बनाने और बेचनेवाला । उ०---परम पिता मन न भरा हो। उ०——होकर अतृप्न तुम्हें देखने को नित्य नया हमही वैद्यने के प्रसारन के प्रान --भग्नेिदु ग्र०, भाग १ रूप दिए देता हू’ पुराना छोडने के लिये |--झरना, पृ० ६४।। पृ० ४७९ । । २ भूखा। बुभुक्षित ।। अत्ति-वि० [हिं० "० 'अति' । उ॰--ठिले अत्ति हैं मद्द मातग माते । उमगत तयार तूरग ताने ।—पद्माकर 7 ० पृ० २८० । अतृप्ति—समा स्त्री० म०] असतोप । मन न भरने की अवस्था । अत्ति --संज्ञा स्त्री० [हिं० "० 'अत्त' । उ०—यह अतृप्ति अधीर मन की धोमयुत उन्माद कामायनी अत्ति--संज्ञा स्त्री० [सं०] व बहन (०] । पृ० ११ ।। अत्तिका-सा स्त्री॰ [ म०] १० 'अति'। शेतृप्ण---वि० [न०] तृप्या हित । निस्पृहे । कामनाहीन । निलम्।। अतिवारे--वि० [ हि अति +8 ] अन्यन नाम का याम अते---वि० [सं० अत्यत] परम । अत्यधिक । उ०—-अरूपमा रति करनेवाने । उ०—चट हैं लिन्ही १ मा वन 'नारे में यो ' परगटी पुनि ममि भो ख्रीन होइ घटी।—जायसी ग्र० (गुप्त), चिल र मनो अत्तिपारे । पत्रकार प्र०, पृ० २८० ।। | पृ० "१ ।। अत्य--सा [ संग्रर्य प्रा० अत्र्य ] प्रयोनि । है । उ०—ए है अतेज-वि० [सं० अतेजम] १ तेजरहित । अधकारयुक्त । मद । | रिपुन के जुत्थ जुत्य करे उप विन अत्य है ।—पचार धुघल । २. हुतधी । प्रतापरहित । ०, पृ० २० ।