पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/२११

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अतीत | अतुलित अतीत--क्रि० वि० परे । बाहर । उ० --गुन अ की। अधिव प्रवि- अतर्ग--वि० [P] जो ऊँचा न हो । ठिगना [को०] । नासी सो ब्रज में खेलत सुखरामी ।--सूर (शब्द॰) । अतुद-वि० [सं०] जो हैप्ट पुष्ट न हो, क्षीणकाय [१०] । अतीत –संज्ञा पु० वीतराग सन्यासी । यति । विरक्त साघु । उ०- अतुकीत-[हिं० अ + तुक+अत्र] तुकरहिन । जिमके अतिम (क) अजर घान्य अतीत का, गृही कर जु अहार । निश्चय होय । चरणो का तुक या अनुग्राम में मि नता हो । उ०—-प्रमाद जी दरिद्री, कहै कबीर विचार । कवीर शब्द०) । (ख अति। हिंदी में छायावाद के विधाता तो हैं ही, अतुकीत कविता, सीतल अति ही अमल, सकन कामना हीन, तुलसी ताहि । यार मकत भी वे ही हैं ।—करुणा० (प्रका०) । अतीत गनि, वृत्ति साति लयलीन ।-तुलसी ग्र० पृ० १४ । अतुकात--संज्ञा पुं० [हिं० अ + तुक+अत] दोवद्ध कविता जिसमे अतीत –संज्ञा पुं० [ स० अतिथि ] १ अभ्यागत । अतिथि | तुक या अनुप्रास न हो । अतुर–वि० [सं०] १ जो धन पार न हो । २ अनुदान [को०] । पाहुन । मेहमान । उ०—प्रारत दुखी सीत भयभीत । प्रायो अतुर’--वि० [हिं०] ३० 'अातुर' । उ०—-गाण जोडे हुकुम पाव ऐसो गेह अतीता --सबल ( शब्द॰) । २ संगीत में वह अतुर । वारे भरथ अावे ।-F०, पृ० ११६ । स्थान जो सम से दो मात्रा के उपरांत अाता है । यह अतुर -वि० [हिं०] २० अतुत्र' ।--3-नव मुनि मान नरिंद स्थान कभी कभी सम का काम देता है । उ०—मुर स्रति | सवद उम्भार अतुर वर -पृ० रा०, ३५१०४५ । तीन बँधान अमित अति सप्त अतीत अनागत श्रावत ।-- अतुराई--संज्ञा स्त्री० [सं० श्रातुर+हिं० पाई (प्रत्य॰)] १ ग्रातु सुर०,१।१२६६ । ३ तबले के किसी बोल या टूकड़े की सम से रता । जल्दी । शीघ्रता । उ०—-कीरति महरि लिवावन आधी या एक मात्रा के पहले समाप्ति । आई । जाहु न स्याम, करहु अतुराई --नूर० । ११३७५। २ अतीतना --क्रि० अ० [ स० अतीत ] वीतना । गुजरना । गत घबराहट । हडबडी । ३ वचनना । चपलता। उ०- नैनन होना । उ०—रोग-वियोग-सोक-सम-सकुल बडि बय वृथहि। की अतुराई, वैनन की चतुराई गात को गोराई ना दुरति । अतीति ।--तुलसी ग्र ०, पृ० ५७४ ।। दुति चाल की ।—केशव (शब्द०)। अतीतनो---क्रि० स० विताना । व्यतीत करना । विगत करना । | अतुराना अत –क्रि० प्र० [सं० श्रातुर, हिं० अतुर मे ना०] यातुर छोडना । त्यागना । उ०—कृच्छ उपवास सव इद्रियन जीतही। होना । घबडाना । हुड बडाना । जल्दी मचाना । अकुलाना । पुत्र सिख लीन, तन जौ लगि अतीतही ।—केशव (शब्द०) । उ०—(क) तुरत जाइ ले अड, उही ते, विलव न करि मो अतीनि-संज्ञा स्त्री० [सं० अतीत] अाधिक्य । प्राचुर्य । ३०–राजन भाई । सूरदास प्रभु बचन सुनतही हनुमत चल्यो अनुराई ।-- की नीति गई पच प्रतीति गई, अव तौ प्रतीति सो अनीत होन सुर०, ९१४६ । (ख) अाए 'अतुराने, बाँधे बाने, जे मरदाने , लागी है ।--पोद्दार अभि० ग्र०, पृ० ४३२ । समुहाने ।--सूदन (शब्द॰) । अतीथ'Gf--संज्ञा पुं॰ [हिं॰] दे॰ 'अतिथि' । उ०—वधु कुबुद्धि पुरो अतुरी -संज्ञा स्त्री० [हिं०] १० ‘प्रातुरता' ।। | हित लपट चाकर चोर अतीथ धुतारो ।-इतिहास, पृ० २०१। अतुल--वि० [सं०] १ जो तोना या कृता न जा सके । जिसका अतीथq--सज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अतीत' । उ०—कहै गुलाल अतीथ तौल या अदाज न हो सके । २ अमित । असीम् । अपार । राम गुन गाइया --गुलाल०, पृ० ६० । बहुत अधिक । वेअदाज । उ०---मावत देखि अतुन वलसीवा।। अतीम -वि० [हिं०] दे० 'यतीम' । उ०—रहै गरीब अतीम होई • तुलसी (शब्द०)। ३ जिसकी तुलना या समता न हो। तिनका कही फकीर । संत वाणी०, पृ० १३५७ । सके । अनुपम । वेजोड । अद्वितीय । उ०—-मुनि रघुपति छवि अतीव—वि० [सं०] अधिक । ज्यादा । वहुत । अतिशय । अत्यते । अतुल विलोकी । भए मगन मन सके ने रोकी --मानस उ०--हो के रुष्ट अत अतीव मन मे पाके वृथा ताप वे । ७॥३२॥ शकु ० पृ० २१ । । । अतुल-संज्ञा पुं० १ केशव के अनुसार अनुकून नायक की दूसरः अतीस--संज्ञा पुं० [सं०] एक पौधा । । । नाम । उ०--ये गुण केशव जाहि मे, सोई नायक जाने । । । विशेष—यह हिमालय के किनारे सिंध नदी से लेकर कुमाऊँ तक अतुल, दक्ष, 'शठ, धृष्ट, पुनि, चौविध ताहि बखान |--केशद पाया जाता है । इसकी जड कई प्रकार की दवाओं में काम (शब्द॰) । २ तिल का पेडे । ३ तिलक । तिलपुष्पी । ४ | अाती है और खाने में कुछ कडबी तथा ' चरपरी होती है । यह । कफ । श्लेष्मा । बलगम । - - । पाचक, अग्निसदीपक और विपरुन है तथा कफ, पित्त, ग्राम, अतुलनीय–वि० [सं०]:१ जिमका अदाजा न हो सके। अपार अतिसार, खसी, ज्वर, यकृत और कृमि आदि रोगो को दूर मित । अपार । बेअदाज । बहुत अधिक । २ अनुपम बेजोड । करती है । वाले रोगो के लिये यह बहुत उपकारी है । यह बेजोडे । अद्वितीय ।। तीन प्रकार की होती है-(१) सफेद, (२) काली और(३) अतुलित-वि० [स०] १ बिना तोला हुआ । २ बे अदाज । ॐ लाल । इनमें सफेद अधिक गुणकारी समझी जाती है । मित । अपार । बहुत अधिक । उ०—-वनचर देह धरी छिति पर्याय-विषा, अतिविपा, काश्मीर, श्वेता, अरुणा, प्रविषा, माही । अतुलित बल प्रताप तिन पाही ।—मानस, १।१८७१३ । ।। उपविषा, धुणवल्लभा, शृगी महौषध, भृगी, श्वेतकदा, भगुरा, ।। -असख्य 1- उ०—जो पै अलि अत इहै ऋग्वेि हो । तौ । ' मृद्धी, शिशुमै पज्य, शोकापहा, श्यामकदा, विश्वा । अतुलित अहीर अवलनि को हटि न हिये हरिबे हो ।--तुलसी अतीसार---सज्ञा पुं॰ [सं०] दे॰ अतिसार' । , पृ॰ ४४४। ।