पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/२०१

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

अतरे १४० अती अतर'- सच्ची पुं० [अ० इत्र नियाँस । पुष्पसार । भमके द्वारा वि ची अतकित----वि० [स०] १. जिसका पहले से अनमान न हो । २ हुअा फूलो की सुगध का सार । उ०-- करि फुलेन की चमन अाकस्मिक । ३ वे सोच समझा । जो विचार में न आया हो। मीठौ फहत सरहि । रे गघी, मतिअध ने ग्रनर दिखावत जिसपर विचार न किया गया हो । काहि ।---विहारी र० दो० ८२ । अतक्र्य--वि० [सं०] जिसपर तर्क वितर्क न हो सके। जिनके विषय विशेष--ताजे फूलों को पानी के साथ एक बद देग में ग्राम पर में किसी प्रकार की विवेचना न हो सके ! अनिर्वचनीय । रखते हैं जो नल के द्वारा उस भभके से मिला रहता है जिसमे अचित्य । उ०--राम अर्तक्य बुद्धि मन वानी । मत हमार पहले से चंदन का तेल, जिसे जमीन या म.व। कहते हैं, रखा अस सुनहि सयानी |--मानम, ११२० । रहता है। फलो से सुगंधित भाप उठकर उस चदन के तेल पर अतम -वि० [सं० श्र- ब्रास, अथवा हि० अ- फा० तसं 1 निर्भय। टपक कर इकट्ठा हाती जाती है और तेल (जमीन) ऊपर हो जाता निष्ठुर । उ०—यह जम तीन लोक का राजा बँधै अतर्म है। इसी तेल को काछकर रख लेते हैं और अतर या इतर होई }--कवीर श०, पृ० १४ । कहते है । जिस फूल के भाप से यह वनता है उसी का अंतर अतल--सज्ञा पुं० [स०] १ मात पातालो मे दूमर पाताल । २. | शिव [को०)। कहलाता है। जैसे--गुलाब का अतर, भोतिया का अंतर अतल-वि० तलविहीन । प्रथाह [को०] । इत्यादि । अतलता-वि० तलरहित । अथाह । ३०-प्रतन सिंधु में लगा लगा अतर --संज्ञा पुं० [स० अस्र, प्रा ०अत्र ] दे॰ 'अस्त्र' । उ०--कनक कर जीवन की वेडी वा जी ।---झरना, पृ० ५१ । पाट जनु बइठे। राजा । सवइ सिगार ऋतर लैइ साजा --- अतलता’-सज्ञा स्त्री॰ [ म० ] गहराई । उ०——ये किन स्वच्छ अतपदुमा०, पृ० ४६ । अतरक--वि० [हिं०1 दे० 'अतक्य' । उ०—प्रगम अगोचर अच्छर लनाम्रो की मीन नीलिमाग्रो में वहते --प्रतिमा, पृ० १२ । अतरक निरगुन अत अनदा }--२० वी०, पृ० ४५ । अतलस--सा म्ञी० [अ० ] एक प्रकार का रेशमी कपडा जो बहुत नरम होता है । उ०—-अलग लहँगा जरद रेंग सारी । अतरज+--सज्ञा पुं॰ [सं० आश्चर्य ] दे॰ 'अचरज । उ०—ाजु की। चोलिन्हि बद संवा री --स० दरिया, पृ० १७० । बात कही कहूँ राजा, अतरज मेरे गात, परसरम की वान् मरि नै घरयौ एकई हात ।--पोद्दार अभि० ग्र०, पृ० ६७१ ।। अतलस्पर्शी--वि० [सं०] अतल को छूनेवाला अत्यंत गहरा । अयाह । अतुलस्पृक् ।। अतरदान---संज्ञा पुं० [अ० इत्र + फा० दान (तुल० वै० ‘धान') ] अतलस्पृक्--वि० [सं०] अत्यत गहरा । सोने, चांदी या गिलट का फूलदान के आकार का एक पात्र जिसमे इतर से तर किया हुअा रुई का फाहा रखा होता है। अतलात--वि० [सं० अतल +अत ] जिसके तन का प्रत न हो । और महफिलो मे सत्कारार्थ सवुके सामने उपस्थित किया जाता अत्यत गहरा। उ०—अनलान मह गर्भ जलधि तजकर अपनी वह नियत अवधि । लहर, पृ० १२ । है। उ०--सव राजा वरावर वरावर कुसियो पर बैठे हैं, अतवानG--वि० [ स० प्रतिवान् ] अधिक । अत्यते । उ०-सावन सरोजनी नाचती है, मत्री ने अतरदान ले रखा है ।-- | धरम मेई अतवानी । भरन पूरी हो विरह झरानी --जायसी श्रीनिवास अ०, पृ० १६२ । (शब्द०) । अतरल--वि० [स०] जो तरल या पतला न हो । गाढ़ा । अतवार--सज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अत्तवार' । उ--दरवार के दिन अतरवन-सा पुं० [ स० अन्तर] १ पत्थर की पटिया जिसे घोहिए। जो अतवार और मंगल को था, वे नदी के उस पार जाते के ऊपर बैठाकर छज्जा पाते हैं । २ वह खर या मुंज जिसे थे |--मयू०, पृ० ५७ । ठाट पर फैलाकर उपर से खपडा या फूस छाते हैं । अतस-सज्ञा पुं॰ [सं०] १ वायु । पवन । २ अात्मा । ३ अतसी के अतरसो---कि० वि० [ स० *इतर +श्व ] १ परसा के आगे का दिन। | रेशो से बना हुआ वस्त्र । ४ एक प्रकार का प्रस्ने । ५ एक वर्तमान दिन से आनेवाला तीसरा दिन । उ०—खे नत में होरी क्षुप [को०] । रावरे के कर परसौं जो भीजी है अतर सो सो आइहै। अतसg---वि० [ स० ‘अतिशय' को सक्षिप्त रूप ] बहुत अधिक । अतरस ।--रघुनाय (ब्द०)। २ गते परसों से पहिले का अतिशय । उ०—तो पण प्रताप मेछा तणो अतस दाप बाई दिन । वर्तमान से तीसरी व्यतीत दिन । अकस ।--रजि० ८०, पृ० २१ । अतराफ-सा स्त्री० [अ०] तरफ का बहुवचन । उ०---उस अंतराफ ऋतसवाजी ----सा स्त्री० [हिं०] दे॰ 'आतिसबाजी'। उ द्युत में था जिसे तख्तो ताज इतायत करे मतिफ देवे बिराज !--- अतसबाजी रगरगी।--भारतेंदु ग्र०, भाग २, पृ० ७०५ ।। दक्खिनी॰, पृ० १५६ । अतसी-सी स्त्री० [स०] अनस । तीसी । अतरिख-सक्षा १० [सं० अतरिक्ष, प्रा० अतरिख ] दे॰ 'अतरिक्ष' । अतहार' संज्ञा पुं० [अ० तुह्र की बहुव० ] पवित्रता । उ०—-मुजे के अतरौटा ----संज्ञा पुं॰ [हिं०] दे॰ 'अंतर्राटा' । उ०--'दास' उलटीयै , दर वाये इज्जत अंतहार ।--दक्खिनी०, पृ० २१८ । वेदी उलटीये अगी उलटोई अतरौटा पहिरे ही उत लाई में ।-- अतहार–वि० [अ० ताहिर का बहुव० ] पवित्र [को॰] । | भिखारो ग्र०, पृ० २७३ । अता- जी० [अ० अतर = अनुग्रह ] अनुग्रह। दान । अतर्क-वि० [सं०] तर्कहीन । असगत [को॰] । क्रि० प्र०—करना, फरमाना= देना ।—होना= दिया जाना । अतर्क-सा पुं० तर्कहीन बात करनेवाला [को॰] । • मिलना।