पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/१९८

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पहुंडन १३७ अणकोय भड्ने ---सी पुं० [सं० अड्डनम् ] ढाल। एक प्रकार की शास्त्र । अढवना(५---क्रि० स० [सं० अ - ज्ञा = बोध करना, प्रज्ञापन, अट्टन [को०] ।। प्रा० अणपन] अशा देना । कार्य में नियुक्त करना । काम अड्डा-सा मुं० [सं० अट्टाल = ऊँची जगह ] १ टिकने की जगह । में लगाना । उ०---कैसे वजो करन को समरनीति की बात । ठहरने का स्थान । २ मिलने या इम ट्ठा होने की जगह । ३ अति साहस के काम को अढवत हियो सकात ।-उत्तरबदमाशों के मिलने या बैठने की जगह । ४ वह स्थान जहाँ चरित (शब्द॰) । मवारी या पालकी उठाने वाले कहार भाड़े पर मिले । ५. रडियो अढ़वायक--संज्ञा पुं० [हिं० अढवना ] वह जो दूसरों को काम मे के इकट्ठा होने का म्यान या कुटनियो का डेरा जहाँ व्यभि लगाता हो । दूसरों से काम लेनेवाला। उ०---पहिले रचे चारिणी स्त्रियां इवट्ठी होती हैं। ६ केंद्र । प्रधान स्थान । चारि अढवायक। भए सब अढवैयन के नायक ।---—जायसी जैसे—वहीं तो इन सब बुराइयों का अड्डा है ( शब्द०)। ग्र०, पृ० ३०६ । । ७ लकडी या लोहे की छड जो चिडियो के बैठने के लिये पिजडे अढवैयाG- सम्रा पुं० [हिं०ढ़ + वा + ऐया (प्रत्य॰)]दे० 'अढवायक' । के भीतर झाडी नगाई जाती है । ८. वृन्बुल, तोता अादि उ०—में मन अडवैयन के नायक ।—जायसी ग्र०, पृ० ३०६ । चिडियों के बैठने के लिये लोहे की एक छड जिसका एक सिरा अढाई--वि० [सं० अर्घतृतीय, प्रा० अड्ढाइयो दो और प्राधा । ढाई। जमीन में गाडने के लिये नुकीला होता है और दूसरे सिरे पर । उ०—मुनि कह उचित कहत रघुराई। गएउ बीति दिन पहर एक छोटी ही छड नगी रहती है । ६ पचास आठ तह के अढ ई --मानस, २२७७।। कपडे का गद्दा जिसको छीपी चीन पर बिछाकर उसी के ऊपर | अढार(७ - वि० [ म० अ० = नहीं + हि० ढरना= ढलना] १. किसी कपडा रखकर छपते हैं । १० चोटा लवडी का ढाँचा जिस की योर न ढलने या अनुरक्त होनेवाली । २ कठोर । निर्मोही पर इजाबदं वगैरह बुने जाते हैं और चारचौबी का काम भी निर्दथे । होता है । चकठा। ११ चार हाथ लबी, चार अल । वाढ और चार अगुल मोटी नाडी जिनके किनारे पर बहुत अढारटकी--सच्चा पुं० [?] धनुष (डि०) । मी टियाँ, जिनपर वाले का ताना ताना जाता है नगी अढिया-सा स्त्री० [सं० आधानिका, प्रा० आढाइया> अढइयो ] १. रहती हैं । १२ ॐनै वम पर बँधी हुई एया टट्टी जो कवृतर के काठ, पथर दि का बना हुआ छटा बरतन । २ काठ या बैठने के लिये होती है। अतर की छत । १३ एक लवा लोहे या पात्र जिममें मजदूरों के लटके गार या कपसा उठाकर | ले जाते हैं। बाँस जो दो बाँमा को गोदकर उनमें गिने पर अड़ा वाँध दिया जाता है । १८ लाहे या क ठ क एक पटरी जो वीचव च । | अढी--वि॰ [ प्रा० अढाई ] ढाई । दी और प्राधे की सख्या । लगी हुई एम ना ही के सहारे पर खर्ड की जाती है । इसी पर उ०-~-तिन झूझत निरभै गयो अढ। कोस चहुअन ।—पृ० रुग्नान व टिकाकर पुराने नै खरादते है । १५ खेसाल में रा०, ६१२२१६ ।। काम मानवाना बस की टट्टी । १६ एक लकड़ी जो रेहट में अढ के--सञ्ज्ञा पुं० [देश॰] ठोकर। चोट । ३०-फौरहि सिल लोढ़ा इसी अभिप्राय में नई जती है कि वह उलटा न घूम सके । सदन लागै रहन पहार । कायर फूर कपृत कलि घर घर १७. जुलाहे का करघा । उन लकडियो का समूह जिनपर सहम डहार ।---नुलसी ग्र०, पृ० १५१ ।। जुराहे सून चहूर प पड़। बुनते हैं । १८ एक लकढी जिसपर अढ़ कना--क्रि ० अ० [सं० श्री = अच्छी तरह + टफ = बंधन या रोक नवर बुनकर लपेट जाता है। अथवा हिं० अढक से नाग०] १ ठोकर खाना। उ०—अढ कि अड्डी-मद्मा प्री० [हिं० अड्डा) १ एक बरमा जिससे गटगडा आदि परहि फिरि हेरहिं पीछे। राम वियोग विकल दुख तीर्छ । | लबी चीजों में छेद करते हैं । २ जूते का किनारा । । --मानम, २॥१४३ । २ सहारा लेना। टेकना । अड़ेम--सपा पुं० [अ० एम] १ अभिननपत्र | वह ले या प्रार्थना, अढ़या--सद्या पुं० [हिं० अढाई, हाई 1१ एफ तौल जो ढाई सैर की पत्र जो कि मी म्हापुरुष के आगमन के ममेरी उमें सवोधन करके होते है । पसेरी का अाधा। २ ढाई गुने का पहाडी। सुनाया जाय । २ पता। ठिकाना । ३ 'भापण । वनवृता। अढे या–मझा पुं० [हिं० अढवना] फार्म करानेवाला । अढवैया । अढउल-मा पु० [हिं०] दे॰ 'अडहुन । अढौना- सम्रा पुं० [हिं० अढवना ] करने के लिये कहा गया या दिया आढतिया---सा पुं० [हिं० अढत+इया (प्रत्य॰)] १ वह दुकानदार हुमा काभ। उ०—छोटा सा 9ढीना भी करेगी तो भुनभुना जो ग्रहको यो दुमने महाजन को माल खरीदकर भेजता है कर |-- गोदान, पृ० ३० ।। और उनका मान मंगाकर बेचता है । इसके बदले में वह कुछ अणक'G---वि० [सं०] कुत्सित । निंदित । अधम । नीच (डि०) । कमीन या अाहत पाता है। प्राढत बरनेवाला । अाढत को अणक-सया पुं० [सं० ] एक प्रकार काँप क्षी [को०]। व्यवसाय करनेवाला । २ दनाले । जेंट। अणकरता-- वि० [ स० अन् , प्रा० अण + हिं० करता ] अकर्ता । अढन(७-सज्ञा पुं० [देण०] धाक। मयदा। उ०-~-चारिउ वरन निष्क्रिय । न करनेवाला। उ०—-करता है सो करेगा दादू चारि प्रथम हैं मानत श्रुति की अढन --देवम्वामी (शब्द०) । साखी भूत। कतिगहारा है रह्या अणफरती श्रीधूत ।---दादू०, अढर --वि० [ म० अ = नहीं + हि० ढरना ] न ढलनेवाला। उ०— पृ० ४५७ ।। अढर दुरहि गढ़ सरहि मेर परभर सुपरहि भर ।-पृ० अणकीय--वि० [सं०] कुत्सित, निदित, नगण्य, अधम आदि से रा०, ५५।८ । सबधित (को०] ।' १८