पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/१८८

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पर्वय १२७ अज्ञात अजय-सज्ञी पै० सुश्रुत में कथित एक विषघ्न घृत [को०] । अज्ज -सज्ञा पुं० [सं० आर्य या अज ] ब्रह्म । उ०—-हूँ वदो जाकू अज-सच्ची पुं० [हिं०] दे॰ 'अजय' । | सदा सर्वक सुण पुर । अज्ज कीट पर्यंत लो भय भजन अजै पु.-वि० [हिं०] दे॰ 'अजेय' । उ०--हीं हार्यो करि जतन 'मरतार --राम० धर्म ०, पृ० २५६ । | विविध बिधि अनिस प्रवल प्रजे |---तुलसी ग्र०, पृ० ५०४।। | अज्ज -क्रि० वि० [सं० श्रद्य, प्रा० अज्ज ] अाज । उ०—-जेहा सज्जण काल्ह या तेहा नाँही अज्ज 1--ढोला०, दू० २१६ ।। अजैकपाद--सच्ची पुं० [म०] १ एकादश रुद्र में से एक। २ उक्त रुद्र । अज्ज---सया पुं० [सं०] दे॰ 'अज्झन' [को॰] । द्वारा अधिष्ठित पूवाद्रपदा नाम का नक्षत्र । विष्ण (को०] । | अज्जाणी --वि० [सं० अज्ञान] दे० 'अजान' । उ०—गाफिल समझ रे अज्ञेव--वि० [१०] जीव से अमधित । जो जीव सवधी न हो (को॰] । अज्जाण । माथै राख पति कू जाण ।-राम० धर्म, अजोखी --वि० [ घे० अ = नहीं + हिं० जोखनेर ] जो जोखा न पृ० १६६ । जा सके । अमाप । ३०---ली है। जिन मोल 'माय चखें । अज्जान.--वि० [सं० जान ] घुटने तक लवा । जान् पर्यत लवा दोन्ही तुमको बिया अजोये --भिखारी० ग्र०, भा० १, उ०---राजीव नयने विशाल । अज्जानवाहू रसाल |--१० पृ० २१५ । रा०, पृ० ७६ ।। अजोग(G)---वि० [सं० अयोग्य, प्रा० जौग ] १ जो योग्य न हो। अज्ज़का--सञ्ज्ञा स्त्री [सं० ‘ार्यिका' का प्राकृत रूप संस्कृत में गृहीत अनुचित । नमुनासिव । वे ठीक। उ०—-सुनि यह बात अजोग वेश्या । वारबघू (को॰) । जान की हूँ है समृद नदी दै--भिखारी० ग्र०, भा० १, विशेप--इस अयं में इम शब्द का प्रयोग केवल रूपको में प्राप्त पृ० २१० | २ अयुक्त । बेजोडे । वेमेल। 50--- जोगहि जग | होता है। मिलाइए हम या जग जाग 1- सूर ०, १०॥३५२१ । ३ अज्जू का-सया स्त्री० [सं०] दे० 'अज्जका [को०1।। नालायक । निकम्मा । उ॰--पनी नारी का देवता है, वह अज्झटा--सच्चा स्त्री० [सं०] भूम्यामल की [को॰] । ffer को जोम ग्ररि बरा अज्झल-~-सज्ञा पुं० [स०] १ जलता हुआ कोयला । अनार।। २ नहीं कह सकते। |-- ठेठ ०, पृ० ४३ ।। ढाल [को॰] । अजोगी(५)---वि० [सं० योनी 1 जोग को न जाननेवाला । जोग में अश'-वि० [सं०] १ अज्ञानी ।, ज्ञान रहित । २ जड । अचेतन । 'रहित । उ०—-मूरख कायर और अजोगी सो ये नेक न पावै । मूर्ख ३ अनजान नासमझ । नादान । उ०---तैमइ अापु चरण 2 वानी, मी० २, पृ. १२६ । तैसेइ लरिका, अज्ञ सवनि मति थोरी - मूर०, १८७१ । अजोड:--... [ सं० ऋ = नहीं + जोड़ना ] जिसे जोडा न जा सके। अज्ञ---संज्ञा पुं० मखं मनुष्य । जड पनि । अनजाने मनुष्य । नादान उ० –नि मर मर ग्रनेड को जोड़े --प्राण ०, अादमी । उ० अन्न जानि रिस उर जनि धरहू । जेहि विधि मोह मिट्टै सोइ करहू ।-(ब्द॰) । अज्ञका -संज्ञा स्त्री० [सं०] मूर्ख औरत । नादान या अनजान मंत्री [को०] अजोत-सक्षा स्त्री० [सं० अ = नहीं+हिं०जोत ] वह मूमि जो जोतने । अज्ञता--सज्ञा स्त्री० [१०] १ मूबंता । नादानी । नासमझी । अजान के उपयुक्त न हो । परती भूमि । पन । अनाड़ीपन । ३ जीता। अचेतनता ।। ग्रजोतर--वि० [हिं० अजोत ] स्वच्छद ' निरर्गल । ॐ 0 मानद अज्ञताई--सज्ञा स्त्री० [सं० अज्ञता+हि० ग्राई ( प्रत्य० ) } दे० | घन पिये नई घमंड सो देन दरवायो डालत अर्जी अजातर | अज्ञता' । उ०---ग्रहो । अर्जताई नीति मन मैं ने प्राइए ।--- घनानद, पृ० २६० ।। भक्तमाल (श्री०) पृ० ६६ । अजोता-सा पुं० [ म अयुक्त, प्रा० अजुत्त | चैत की पूर्णिमा का अज्ञत्व--संज्ञा पुं० [सं०] ६० 'अज्ञता' [को०1। । दिन । इस दिन वैल नहीं नाधे जाते ।। अज्ञा --संज्ञा स्त्री॰ [हिं॰] दे॰ 'अाज्ञा’ -उ० (क) होइ अज्ञा अजोता--वि० विना जोत्रा या नाघा हुआ स्वच्छद । वनवाम तो जाऊँ ।—जायसी (शब्द०) । (ख) गुरु को अजोनि--वि० [सं० अयोनि | जो योनि से उC ने न हो। स्वयम् । सिर पर राखिए चलिए आज्ञा माही ।----कवीर सा० स०, भा० १, पृ० २ । उ०----जम जस पुरुप प्रगटे जोनि । कर खग धनुष कटि अज्ञाकारी -वि० [हिं०] दे॰ 'प्राज्ञाकारी' । उ०—-तेॐ चाहत कृपा लस तोनि --हम्मीर रा०, पृ० ११ । तुम्हरी । जिनकै बस अनिमिप अनेक गन अनुचर अज्ञाकारी । अजोन्यq-- वि० [सं० योनि ] अयोनिज । स्वत सभत । उ०— मूर०, ११६३ ।। अजोन्य अनायाम पाए अनादू । नमो देव दादू नमो देव दादू ।। अज्ञात"----वि० [स०] १ दिन जाना हुअः । अविदित । अप्रकट । --पुदर ग्र०, मा० १, पृ० २५६ । नामालूम । अपरिचित । उ०-- किसी अज्ञात विश्व की विकन्न अजोरनापु)---क्रि० स० [हिं० हि० जोर से नाम ०1 दे० अंजोरना। वेदना दूती सी तुम कौन है-झरना, पृ० २८ । २ जिने ज्ञान अजोष-- वि० [सं०] अपरिताप । अतृप्ति (को०) ।। न हो। उ०—सो अज्ञात जोवन वर वाला ।--नद० ग्र०, अजी*---क्रि० वि० [हिं० अजहू] अत्र भी । अद्यापि । अव तक । पृ० १२२ । ३ अप्रत्याशिन। आकस्मिक (को॰) । वाया सखद. सतल सुरभि समीर। मन हूँ अज्ञात --क्रि० वि० विना जाने । अनजाने में । उ०—अनचित बहुत कहेॐ अज्ञाता । छिम जातु अजों वहे उहि जमुना के तीर ---विहारी र ०, छमा मदिर दोउ नाना ||--- दो० ६०१ ।। मानस, १२८५ ।