पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/१८७

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अजीरन अर्जय अजीरन'-- वि० [सं० अजीर्ण प्रा० अजीरण] ३० अजीर्ण । उ०-- अजुगुतG+--वि० [स० प्रयुक्त) ० 'अयुक्त' । उ०--तोर नयन ? | होइ न कहूँ अनद अजीरने । तासो धरु धीरज चंचल मन । पथहू न सचर अजुगुन वह न जाइ ।--विद्यापति०, पृ० ३८७ । --भारतेंदु 7०, भा० १, पृ० ६०७ । अजुगुप्सित---वः [सं०] जो निदित, घृणित या बुरा न हो। जो अजीरन--सझा पुं० दे० 'अजीर्ण' । नोपमर्द न हो [को०)। मुहा०--अजीरन होना = दुर्वह होना । कठिन होना । अजष्टि--संज्ञा स्त्री॰ [स०] १ अनद या प्रसन्नता का अभाव । २. अजीर्ण-मक्ष पुं० 14०J१ च । अरुप सन । बदहजमी । अमतुष्टि । निराशा (को०] 1 विशेष--- प्रायः पेट में पित्त के विगहने से यह रोग होता है जिससे अजू ५'----कि० वि० [हिं०] दे॰ 'अजी', 'प्रज' । ३०-मम्म क्यों ने भोजन नहीं पचता र वमन, दम्त शूल आदि उपद्रव । अजूं समझॐ भूल मती वि 'माया !--रघृ० ऋ०, पृ० १६ । होते हैं । आयुर्वेद में इसके छह भेद बतलाए हैं -(१) अामा- अजू+--अत्र्य [ ग० अयि ] मवोधन शब्द । 'ग्रजी ।' का ब्रज जीर्ण = जिसमे खाता हुग्री अन्न कच्चा गिरे। (२) विदग्धा झपानर । उ०. -जीत जी चहै अंजू न रीतो घरो ले चलु जीर्ण = जिसमे अन्न जल जाता है । ( ३ ) विष्ट घाजीर्ण = नहीं तो नही तो मिर ऋजम वै परे मरे 1--भिखारी० ग्न०, जिसमे अन्न के गोटे या कडे बंधकर पेट मे पीडा उत्पन्न करते भा० १, पृ० ११० । है । (४) रसशेषजीर्ण = जिसमे अन्न पानी की तरह पतला अजूजा-सा पृ॰ [देश॰] विज्जू पी रह का एक जानवर जो होकर गिरता है । ( ५ ) दिनपाको अजीर्ण = जिसमे खाया मुद खाता है । उ०--कहे कवि दूलह समुद्र वढे सोनित के हुमा अन्न दिन 'मर पेट में बना रहता है और भूख नही लगती । जुग्गिनि परेते फिरे जबक अजूबा में 1--दुलह (शब्द०) । (६) प्रकृत्याजीर्ण या सामान्य अजीर्ण । | अजूनी--वि० [म० अयोनि) उत्पन्न न होनेवालः । अजन्मा । २ अत्यत अधिकता। बहुतायत ( व्यग्य) । जैसे----'उमे बुद्धि का उ०-अमर अजूनी यि धनी कल कर्म सिरि नाहि । अजीर्ण हो गया है।--(शब्द॰) । ३ शक्ति । ताकत (को०)। प्राण०, पृ० १०६ ।। ४, जीर्ण न होने का भाव । क्षयाभाव (को०) । अजूव -वि० [अ० अवहू, ] दे० 'अजूबा' । उ०——वाकिफ हो अजीर्ण--वि• जो पुराना न हो । नया ।। सो गमि लहै वाजिव मवून अजूव ।--१बीर घा०, पृ० ३०।। अजीण--सञ्ज्ञा स्त्री० [सं०] बदहजमी (को॰] । अजूवा--वि० [अ० प्रज़वह, ] अद्भत । अनोखा। अनूठी । अजीर्णी--वि० [सं०] अपच या अजीर्ण रोगवाला को॰) । अजूवारे---सी पुं० अनूठी वन्तु । अद्भुत चीज [को० ] । अजीत--ज्ञा स्त्री० [सं०] दे॰ 'अजीर्ण' (को०)। अज़रा --वि० [सं० अ+जुट = जोडना] १ बिना जुटा हुआ । अजीव--सझा पुं० [सं०] १. अचेतन । जीव तत्व से भिन्न जड पृथक् । अलग । जुदा । उ०-- रहा जो राजा रतन पजूरी। पदार्थ । २ मृत्यु । मौत (को०)। ३ जैन मतानुसार जड जगत् केह के महासन के ह क पटूरा !--जायसी (शब्द॰) । २ | (को०) । ४ अस्तित्वविहीनता (को॰) । प्रप्राप्त । अनुपस्यिते । अजूरा --सद्य पुं० [अ० अजूरह, = पारिश्रमिक मजदूरी । भाडा । अजीव--वि० १ विना प्राण का। मृत । २ जड (को०) । उ०--आठ पहर रहें ढाढ मई हैं चाकर पू। की जानी केहि अजीवकल्प--सज्ञा पुं॰ [ मृ० अजीव + कल्प ] वह युग यो काल जिस घरी हरी दै देइ मजूरा ---पलट० वानी, भा० १, पृ० ४५ । समय पृथिवी पर जीव नही रहते थे। उ०-वहुत समय तक यी--अज़ादार' = 'भाडे या मजदूरी पर काम करने वाला। वह इतनी गर्म थी कि उसपर कोई जीव पैदा न हो सकता । अजूह)---सा पुं० [सं० युद्ध, प्रा० जुज्झ, जूझ, जूह। युद्ध । लडाई । था, उस काल को सजीव कल्प ( एजोइक एज ) कहते हैं ।-- उ०—-ताको जु हिमाऊ साहि हुई । तास पठान सो भयो भारत० नि०, पृ० १८ । अजूह ।--सूदन (शब्द॰) । अजीवन--वि० [सं०] जीविकाहीन । योगक्षेम की व्यवस्था से 0 | अजेयु) --क्रि० वि० [ स० अद्यापि, प्रा० अज्जद ] आज भी । अमी | रहित (को॰] । भ । उ० -तैणि न राखी सासरइ अर्ज स मारू बाल ।--- अजीवन’--- सझा पु० जीवन का अभाव । मृत्यु [को०] । ढाला०, ६० ११ । । अजीवनि-सञ्ज्ञा स्त्री० [सं०] अस्तित्व का अभाव । मृत्यु [को॰] । अजर--सच्चा पुं० [हिं०] दे॰ अजय' ।। अजीवित--वि० [सं०] मृत । जीवनहीन [को॰] । अजे3.--वि० [हिं०] दे॰ 'अजेय' । उ०—-मुनि मानस पकज भृग अजीवित--मी पुं० मृत्यु । अजीवन [ को० ] । मजे, रघुवीर महा रन धीर अजे ।---मानस, ७१४ । अज(५–अव्य० [हिं०] दे० 'और'। उ०—--'अति अवे माँर तोरण अजेइ(५)---वि० [हिं० 1 दे० 'अजेय' । उ० ---कियो सबै जगू कामवस | अजु अबूज । कली से मंगल कलस करि। ---बेलि०, ६० २३३ । जीते जिते अजेइ । कुसुम सहि सर घनुष कर अगहनु गह्न में अजुगत--सझा पुं० [हिं०] ३० 'अजगुत ।। देइ ।—बिहारी र०, दो० ४६५।। अजुगति+---सझा मी० [हिं०] दे॰ 'अजगुत'। अजेतव्य–वि० [स] अजेय । जो जीता न जा सके [को॰] । अजगुत --सञ्ज्ञा पुं० [हिं०] दे॰ 'अजगत' । उ०——देखि देखि अजेय"--वि० [स] न जाते जाने योग्य। जिसे कोई जीन न सके । लोग हीय सब कूटा। भा प्रजुगुत दलगजन छुटा ।--चित्रा०, । उ०—द्विस्वभाव अश्लेष में ब्राह्मण जाति अजय ।-राम च। १० १८६। १० २६० ।