पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/१८३

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अज़क १२३ अहद अजरक--सज्ञा पुं० [सं०] अग्निमांद्य । मदाग्नि (को०)। ( अमूम का पानी ) और तेल निकलता है। भभके से उतारते अजम-सझा पुं० [सं०] कल्पवृक्ष (को०] । समय तेल के ऊपर एक सफेद चमकीली चीज अलग होकर जमैं अजरा--संज्ञा स्त्री० [सं०] १ घृतकुमारी । घीकुआर । २ विधारा। | जाती है जो बाजार में 'अजवायन के फूल' के नाम से विकती | ३ गृङ्गोधा । छिपकली (को०)। है। अजवायन का प्रयोग हैजा, पेट का दर्द, वात की पीडा अजरायल- -वि॰ [ सुं०अजर+हि० अायल (प्रत्य०) ] जो जीर्ण न अादि में किया जाता हैं। हो । जो पुराना न हो। जो सदा एक सा रहे। अमिट । अजवाह-मशा पुं० [सं० ] कच्छ, कठियावाड का एक प्राचीन नाम पक्का । चिरस्थायी। उ०—–दिना चारि में सव मिटि जैहैं। [को०]। श्याम रग अजरायल रैहै ।--सूर० (शब्द॰) । अजवाह--वि० अजवीह देश का [को०] । अजरायल+---वि० [सं० == नहीं ++दर = भय] १ निर्भय । वेडर । अजवीथि--सा स्त्री० [स०] दे॰ 'अजवीथी' [को॰] । नि शक । उ०—तस कुठार द्रग तायल राह वरात ईख अज- अजवीथी--संज्ञा स्त्री० [सं०] १ सूर्यादि के गमन के तीन दक्षिणी रायल ---रघु० रू० पृ० ८६।२ बलवान् । शक्तिशाली । मगि में से एक । छायापथ । गगनसेतु । २. बकरे के चलने उ०—रीठ वागो उभय अद्ध अजरायला --रघु० रू०, की राह या मार्ग [को०] ।। पृ० १८३ ।। अजगी---सच्चा स्त्री॰ [स० अनङ्ग] एक वृक्ष । मेढासिंगी । अजराल---वि० [सं० प्र= नहीं + जे पुराना पड़ना ] वलवान् । विशेप--यह भारतवर्ष में प्राय समुद्र के किनारे होता है । इसकी जोरावर 1--डि० । छाल ‘स कोचक' है और ग्रहणी अादि रोगों में दी जाती हैं । अजरावन--वि० [स० अजर + दिन (प्रत्य॰)] दे॰ 'अजर' । उ॰--- इसका लेप घाव और नासूर को भी भरता है। भलै सु दिन भयो पुत अमर अजरावन रे ।---सूर०, १०।२८। अजस(५--मझा पुं० [सं० अयश प्रा० अजस] अयश । अपयश । अजरावर)---वि० [सं० अजरामर ] जरा मरण से रहित । उ०-- अपकीति । बुरी ख्यानि । वदनामी । उ०---सिय वरनय तेइ अात्मा माहि दीदार दरसता है यूँ अजरावर होय अापु उपमा देई। कुन वि कहा अजस को लेई ।--मानस, १।२४७/| जीया --रामानद०, पृ० ५। । यी०- -अजम पेटारी = अयश की मागिनी । ३०-- अजस पैटरी अजय-वि' [१०] १ जाविहीन । २ पचाने के अयोग्य । अपाच्य ।। ताहि करि गई गिरी मनि फेरि ।--मानस २ १२ । ३ चिरकाल तक रहनेवाला । चिरस्थायी को०] । अज सरे नौ -क्रि० वि० [फा० अज सरे नौ | नए सिरे से। नए अजर्य--संज्ञा पुं० मैत्री । दोस्ती [को॰] । ढग से (को॰] । अजलवन--सच्चा पुं० [सं० अजलम्वन ] सुरमा [को०]। अजसी(५'- वि० [ स० अयशिन] जि की बुरी कीति हो बदनाम । अजल---सल्ला स्त्री० [अ० अजल ] मृत्यु । मीत | उ०---ऐ सनम तू ही निद्य। अपयशी । उ---कल कामवस कृपन विमूढ़ा । प्रांत मेरी शक्ल से रहता हैं रुसा, है अजल भी तो खफा -- दरिद्र अजसी अति बृढ --मनस, ६॥३१॥ ध्यामा०, पृ० १०२ । अजस्र--क्रि० वि० [सं०] सदा। निरतः । हमेशा । लगातार । १०--- अजलचर--वि० [सं० २= नहीं + जलचर] जो जलचर न हो। जो जल 'अहुितियाँ विश्व की अजस्र लुटाता रहा ।'---नह', पृ० ५६ । में न रहना हो । स्थलचर । थलचर उ०---अरु तह बहुत जगनि अजस्रता-- सच्चा सी० [ स० अजस्र+ता (प्रत्य०)] अजस्र होने की को कह्यौ। सर्प जलचर क्यो जल रह्यौ।--नद'० अ०, भाव या क्रिया । नैरतर्य । उ०--'तुम मे या मुझमे या हमारे पृ० २७६ ।। प्रेम मे ही अजस्रता नहीं है' --चित०, पृ० ९४ । अजलोमा--सझा जी० [सं०] केवच का पेड। अजहत--वि० [सं०] त्याग न करनेवाला । न छोडनेवाला [को०]। अजलोमी-सच्चा झी० [सं०] दे॰ 'अज़लोमा' [को॰] । अजहति--सच्चा झी० [सं०] दे॰ 'अजहत्स्वार्था' । अजव-वि० [सं०] वैगरहित । गतिहीन [को०] । अजहल्लक्षणा--संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'जहरुम्वार्था [को॰] । अजवल्ली --संज्ञा स्त्री० [स०] दे० 'अजशृगी' [को०]। अजहल्लिग----संज्ञा पुं० [ स ० अजहल्लिङ्ग ] सस्कृत व्याकरण में वह अजवाइन--सच्चा स्त्री० [हिं०] दे॰ 'अजवायन' । उ०--रोटीं रुचिर शब्द या संज्ञा जो अन्य लिंग के बाद के विशेषण के रूप में। कनक बेसन करि । अजवाइनि सँधो मिलाई घरि ।-- प्रयुक्त होने पर भी अपने लिंग का त्याग न करे [को०]। सूर०, १०1१२१३ ।। अजहत्स्वार्था--संझा झी० [ स०] अलकार शास्त्र में लक्षण के दो अजवायन-सा स्त्री० [ सं० यवनिका ] यवानी । एक पौधा ।। भेदों में से एक। जवाइन । विशेष—इसमे लक्षक शब्द अपने वाच्यार्य को न छोडकर उससे विशेष--यह पौधा सारे भारत में विशेपकर बगाल में लगाया सपृक्त या कुछ भिन्न या अतिरिक्त अर्थ प्रकट करे । जैसे-- जाता है । यह पौधा अफगानिस्तान, फारस और मिस्र आदि ‘भाल के प्राते ही शत्रु भाग गए' । यहाँ भालो से तात्पर्य भाली देशों में भी होता है। भारतवर्ष में इसकी बोआई कतक, लिए सिपाहियो से हैं। इसे उपादान लक्षणा भी कहते हैं । अगहन में होती है। इसके वीज जिनमे एक विशेप प्रकार की अजहद--क्रि० वि० [फा० अज + अ० हद्द 1 हद से ज्यादा । वह महक होती है और जो स्वाद में तीण होते हैं, मसाले और अधिक । उ०--सव पर्खियों में मैं हूँ अजहद पाक तन । दवा के काम आते हैं। भुम्के पर उतारने से वीज में से अर्क दक्खिनी ०, पृ० १७६ ।