पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/१८०

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व ११६, अजगैव माय। शक्ति । ११ जीव (को०)। १२. ज्योतिष में शुक्र की अजगर-मज्ञा पुं० [स०] १ बकरी निगलने वाला साँप | वहन मोटी गति के अनुसार तीन तीन नदात्री की जो एक एक वीथी मानी । जाति का एक सर्प । उ०--(क) बैठि र हैसि अजगर इव गई है, उनमे में एक, जो हस्त, विशाखा अोर चित्रा नक्षत्र पापी । -मानस, ७।१०७ । (ख) धिन' आशा विन उद्यम कीने में होती है। १३. एक ऋवि (को०)। १४ मेयराशि (को०) अजगर उदर मरे ।- सूर०, ११०५ । अजगर' करै न १५ अग्नि (को०)। १६ एक प्रकार का धान्य (को०) । १७ चाकरी पछी करे न काम । दास मलूका कहि गए सव के दाता मक्षिक धातु (को०)। १८ मूर्य का रथ (को०)। राम ---मलूक ( शव्द० ) । अज'७–त्रि० वि० [ स० अद्य , प्रा० अज्ज ] अव । अमी क। विशेप--यह अपने शरीर के भारीपन के कारण फुर्ती से इधर उधर विशेप--इम शब्द को 'हूं' के साथ देखा जाता हैं, स्वतत्र रूप में हाल नहीं सकता और बकरी, हिरन ऐसे व पशुश्रो को निगल नही, जैसे--(क) उठीं कीदा विहिनी अजहूँ दुई खेह -- जाता है। और सपों के समान इसके दाँतो मे विप नही होता। कवीर (शब्द॰) । (ख) अजहू जागु अजान होत अाउ निम्ि यह जतु अपनी स्थूलता और निरुद्यमता के लिये प्रसिद्ध है। मोर |--जायसी (शब्द०)। (ग) रे मन, अजहूँ क्यों न २, एक दानव (को०) । सम्हा |--सर० १।६३ । (घ) अगहें मन कहा हमारा:-- अजगरी --संज्ञा स्त्री॰ [ स० अजगरीय ] अजगर की सी निरुद्यम वृत्ति । मानस, १।८० ।' विना परिश्रम की जीवका । उ०—-उत्तम भीख जो अजगरी, मज४-- प्रत्यः [फा० अज ] में । उ०- लिये खौटे ऊपर अज जान सुनि लीजो निज वैन । कहै कबीर ताके गहे महा १रम सुख हर दिल |–दक्खिन'०, पृ० ११४ । चैन :--कवीर (शब्द०)। अजक'-- वि० वि० [सं० अ = नहीं + फा० जक = पराजय] अपराजेय । अजगरी--वि० १, अजगर की सी । २ बिना परिश्रम की । उद्धन । उ०--अजक अपघा अनल ज्यू विण कधी रणताल । अजगरी’--सझी मी० [म•] एक पौधे का नाम [को०)। --राज०, पृ० ७४ । अजगरीवृत्ति--संज्ञा स्त्री० [सं०] बिना भ्रम की जीविका । अजगरी । अजक ----मज्ञा स्त्री रोग । पीडा । ३०–एक जही तोइ ऐसी री अजगलिका-~-सज्ञा स्त्री॰ [स०] मूग के दाने के बराबर छोटी पीडा दुग्गी, मिटि जाई आजक तिहारी ---पोद्दार अभि० ग्र०, | रहित फु सी जो कफ और वात के प्रकोप से शरीर पर पृ० ६६५ । निकलती हैं। अजक-संज्ञा पुं० [५० ] पुरुरवा के बश का एक राजा [को०)। अजगलिका--मज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'अजगलिका' [को०] । अजकजा-मज्ञा पुं० [फा० अज+प्र० बजा ! संयोगवण । ३०-- अजगव-मज्ञा पुं० [सं०] १ शिव जी का धनुप । पिनाक । अजजा जब 7 गए बस्ती 'गीनर --दक्खिनी॰, पृ० २.१ ।। उ०--नही इसी से चढी शिजिनी ग्रज गव पर प्रतिशोध भरी । अजकर्ण-मज्ञा पुं॰ [सं०] दे॰ 'अजकर्णक' (को०] । --कामायनी पृ० १०५। २ अजवीथ (को०) । मजकर्णक--संज्ञा पुं० [सं०] १. साल का पेड। साल वृक्ष अजगाव--सज्ञा पुं० [सं०] १ शिव का घनुप । २ नागों के | ३ अमन का वृक्ष (को०] । एक गुरु । ३ एक प्रकार यज्ञ पात्र । ४ अजवीथी [को॰] । ग्रेजकव--संज्ञा पुं० मि०] दे॰ 'अजगव' । अजगुत -सज्ञा पुं० [सं० प्रयुक्त हि० अजुगृति ] १ युकित विरुद्ध अजका--सज्ञा स्त्री" [म०] १ फम उम्रवाली वारी । २ वारी के बात । अचभे की बात । प्राचर्यजनक भेद । असाधारण गले से लटकनेवाली माँस की ऋथि । अजालस्तन । ३ नेत्रो बात । अस्वाभाविक व्यापार । अप्राकृतिक घटना उ०—का एक रोग । आजकाजात [को॰] । प्राई करगी में अजगूता। जनम जनम जम : हिरे बूता 1-- अजकाजात-ज्ञा पुं० 1 स ० / अखि में होने वाली लाल फूली जो कबीर (श द०)। २ अयुक्त वात । अनुचिन, बात । वेजोड पुतली को ढंके लेती है । टेड वा हुँदइ । नाना । बात । उ०--सरबस लुटि हमारो लीनो राज कुवरी पावै । अजुकाव--सज्ञा पुं॰ [सं॰] १ वि का धनप 1 अजगव. २ बबूल का तोपर एथा मुनो री अजगुत लिख लिख जोग पठाउँ —सूर वृक्ष । ३ काष्ठनिमित एक यश पाव जो मित्र और वरुण से ( शब्द॰) । मवद्ध है (को०)। ४ एक नेत्ररोग । अजकाजात [को०] । अजगुतg --वि० १, आश्चर्यजनक । अदभुत । दि लक्षण । ३ अनु५ अजका रोग का विप [को०] । चित् । अयुवत । वैजोडे । उ०- -पापी जाउ जीभ गलि तेरी अजखुद--क्रि० वि० [फा०] । स्यय । प्राप से अाप । उ०--‘गुया अजगत बात विचारी । सिंह को भक्ष्य शृगाल न पावै हौं मम| अजम्बुद गाली न देकर 1--प्रेमघन ०, भा॰ २, पृ० १०१ ।। रथ की नारी --सूर (श:०) ।। अजगधा-- सच्चा स्त्री० [सं० अजगन्धा | अजमोदा । अजगुथ्थाई- वि० [हिं०] दे० 'अजगुत' । उ०--विभीषण भेद अजगधिका--- सच्चा स्पी० [सं० प्रजगन्धिका | १ बनतुलसी का पौधा । कहो अजगुथ्था ।--कवीर सी०, पृ० ४१ । वर्वरी । । अजगैव-क्रि० वि० [फा० ] अलक्षित स्थान से । गैब से । अदृष्ट अजगधिनी--सा मी० [सं० अजगन्धिनी ] १ काकडासीगी । २ से [को॰] । बनतुलसी का पौधा [को॰] । अजगैव--संज्ञा पुं० [फा० अ + प्र० गैब ] अलक्षित स्थान । मजग--सज्ञा पुं० [सं०] १ शिव का घनुप । २ विष्णु का नाम । अदृष्ट स्थान । २०--दादू दरिए लोक तें, कैसी धरह उठाइ । ३ अग्नि [को०] । अनदेखी अजगैब, कैसी कई घनाइ ।-दादू (शब्द०) ।