पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/१७८

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| अनी, ११७ अछूत" अछना--कि० अ० [सं० अम् को समानार्थक/सू० प्रक्षे,प्रा० अछाम)---वि० [ सं अक्षम ] १ जो पतली न हः । मोट। वडा । अच्छ, अप० अछ = होना ] होना रहना । विद्यमान रहना। मारी । २ जो क्षण या दुचना न हो । हृप्ट पुष्ट । मोटा ताजा उ०-(क) अतिम तुझ पासई अथ्इ अलग ला रक् । | बलवान् ढला०, ११४ । (ख) अछह वेहम तवृल मो शर्तः । जनु गुलाल अख्ति --क्रि० वि० [हिं अष्टत ] ३० 'अछत' । उ०—-जीव ! छिन । देखे विहँ पाती ।--जायमी ( शब्द० } । | जोबन गया, कछु कि यो न नीका ।--कवीर ग्र०, पृ० १४८ । अछप--वि० [सं० अ + "छद्म = छिपना] न छिपने योग्य । प्रकट ।। अछिद्र-वि० [सं०] १ छिद्र या रहित । २ येऐच । निर्देdि [फो०) । प्रकाशमान। जाहिर । उ०— सुयाल ममरत्य कर रहे अछियार--सपा पुं० [हिं० र किनारा ] एक प्रकार की गजी सो अछप छपाइ । मोइ सधि ले प्रायड मोबत जगहि जगाई |-- की सही सिम लाल थिनार हुति है। कवीर (शब्द॰) । " अछी--संक्षी ली ।देश०] अाज का पेइ । अछयq---वि० [५• अक्षय] दे॰ 'अछय' । उ०- करत ममा द्रुपद अछूत'--वि० स० अ = नहीं+छुप्त छुम्रा हुआ, प्रा० छत्त] १. विना | तनया की अवर अक्षय किया --मूर०, १५१३१ । छा हुआ। जो छु न गया हो । अस्पृष्ट । उ०-भजे हार अछयकुमारधु-सच्चा पुं० [हिं०] दे॰ 'अक्षकुमार। चीर हिय चोली । रही अछूत' केत नहि पाली |--जायसी । अछयवृच्छयु --सज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अक्षवृक्ष' । उ०—तिरबेनी (शब्द॰) । २ जो काम में न लाया गया हो । ज। घf न गया । से नीर में वो प्रछय वृच्छ के द्वार हो ।-- ध२ म०, पृ० ५७ ।। हो । नया | ताजा। कोर, 1 पवन्न । उ --अस के अवर अभी अछर'-- वि० [सं० अक्षर ! दे० अक्षर' । उ०---अछर अच्युत भरि राखें । अवह अछूत, न काहू चाखें --जायसी ग्र०, अविकार है निरकिार है जोइ ।--मूर०, १०५११७५ : १ ० ४४ । ३ न छूने योग्य । नच जाति का। प्रत्य जाति अछर'---सक्षा २० [हिं० दे० 'अप्सर'। उ०---मधुकर मधवि का। अस्पृश्य । जैसे--'मेहनर, डोम, चमार, अदि अछून मदन मत मन मैन अछर से डोले ।- श्याम1०, पृ० ११८ । जातियाँ भी अपनी सगठन कर रही है।'--(शब्द०) ।। अछरना--क्रि० अ० [सं० उच्छलन, पु० हि० उछरना ] उपटना। अछूत--सच्चा पु. वह जो छूने योग्य न हो । अछुत या अस्पृश्य जाति • स्पष्ट होनी । प्रकट होना । अकित देख पड़ना । उ०——वैदि । का मनुष्य । जैस-'प्रार्य समाज ने तीन सौ अछूता को शुद्ध भंवर कुच नाग लारी । लागी मुख अछरे रँगाती ।-~ कर अपने में मिला लिया।-( शब्द ० ) । जायसी (शब्द॰) । अछूतपन--सझा पुं० [हिं० अछूत + पन] अछूत या अस्पृश्य होने का अछरा--सच्चा स्त्री० [सं० अप्सरा, प्रा० अच्छ] अप्सरा । स्वर्ग की भाव । जैसे--‘समाज उनके साथ अछूतपन का व्यवहार करता वारवनिता । उ०—-प्रोहि भउँहिँ सरि कोउ न जीता। है।-० अ० रा०, पृ० ८७।। अछरई छपी, छपी गोपीना |--जायसी (शब्द०) । अछूता-वि० [हिं० अछूत] [स्त्री॰ अछुती) १ विना छुग्रा हुआ। अछरी ---सच्चा स्त्री० [सं० अप्सर, प्रा० अध्छर+ई (प्रत्य०)], जो छु न गया हो । अस्पृप्ट । २ जी काम में न लाया गया अप्सरा । स्वर्ग के वारवनिता ।' उ०--(क) मानउँ मयन हो । जो वत न गया हो । नया। कारा । ताजा । पवित्र मूरती, अछरी वरन अनूप --जायसी (शब्द॰) । (ख) सुती उ०---दधि माखन ६ , माट अछूतें तौहि सौंपति ही सहियौ ।-- एक अछरी के नाई।--दि० प्रेमा०, पृ० २५१ । । सूर०, १०३१३ ।। अछरटी --संज्ञा स्त्री० [सं० अक्षर, प्रा० अच्छर' + हिं० औटी अछूतोद्धार-सद्मा ५० [हिं० अछूत + उद्धार] १ अस्पृश्य जातियों के (प्रत्य०) ] वर्णमाला । ३०---रमिक पपीहा साछी छ। सुधार का कार्य । अछूतो से अन्य जातिवत् व्यवहार कार्य । अछरीटी के !---घनानंद, पृ० २०५।। २. अछूतो के उद्धार का अदोलन । | अछेद'--वि० [सं० अच्छेच ] जिसका छेदन न हो सके । जे कट न मुहा०---अध्रौटी बर्तनी = किसी शब्द के प्रत्येक वर्ण को अलग सके । अभेद । अखघ । उ०—-अभिने अर्धेद रूप मम जान । अलग कहन। हिज्जे करना । ज सर्व घट है एक समान --सूर०, ३५१३ । अल----वि० [सं०] छलरहित । निष्कपट । मीधासादा। 'मला भाला । अछेद-सच्चा पु० अभेद । अभिन्नता। छल छिद्र का अभाव । ३०--- अछवाई-सज्ञा स्त्री० [हिं० अच्छा अच्छ+वाई (प्रत्य॰)] अच्छाई ।। चेला सिद्धि सो पावै, गुरु मौं फरै अछेद !-—जायसी ग्र०, सुदरता । उ०—रति साँचै ढरी प्रवाई भरी पिटुन गुराइये पृ० १०६ ।। पेखि पगै ।--धनानद, पृ० १५ ।। अछेदन--सा पुं० [हिं०] दे० 'अच्छादन'। ३०--पाँच चासन अछवाना--क्रि० स० [हिं० अछ में नाम ० ] साफ करना। श्वेत दस्तर कदलिपन अछेदना |--वीर सो ०, पृ० ५६ । संवारना। ३०--रूप सप सिगार सवाई। अच्छर जैसी रहि अछेद्य--वि० [सं०] १ जिसकी छेदन न हो सके। जो कट न म । | अछवाई |--जायसी (शब्द॰) । अभेद्य । अखट्य। २ अविनाशी । अविनम्वर ।। अछवानी--सधा झी० [सं० यदानिका वा यमानी हि० अजवाइन ] अछेरा--सा पुं० [म० अश्चर्य, प्रा० अच्छे] विपजनक । अजवाइन, सोठ तथा गेव को पीसकर घृत में पकाया है। अपूर्व । उ०—जावै पिणे जावै नहीं, एह अछेरा गल्न - मसाला जी प्रसूता स्त्रियों को दिलाया जाता है। बाकी० अ०, भा० ३, पृ०६।