पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/१७३

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११२ अचियात्मा a) | ( 2- :* : नगर । तहि अवधि में कहन ने समुभी अचाहा-सा ० १ वह व्यक्ति जिसकी चाह न हो । वह व्यक्ति *"न उन आर 1--दर, १९४२८८ । (ख) नाचि जो प्रेमपात न हो । २ न चाहने या प्रीति न करनेवाला ६जना ' इथे दिन दिम देन मोर ।--विहारी र०, । व्यक्ति । निमोही । ०---रावलि कहाँ हो किन, कहत हो 27. ४३९ । काते अरी रोप तज, रोप के कियो मैं का अचाहे को।--- निः५ --pि fi० [f] ३० 'अचानक' । उ०—ाई अचा पद्माकर (शब्द॰) । निर पर न ः प्रनपति ।--१० १० ११३८६ । अचाही १७---वि० [हिं० प्रचाह ! किसी बात की चाह न रखनेअनन्त'-.--:३० [३०] चालतात ! ग्रसचल को ।। वाला । निरीह। निस्पृह । निष्काम । ग्रपन्न --- ८ मानना का प्रभाव । यिरता। अचपलना अचाही--सञ्ज्ञा स्त्री० न Tई। गई या प्रवाछित वाते । उ०—कवि ठाकुर लाल अत्राहि करी तिहि ते सहिए जसहीं नहियो । अदाप य--१०, मया पुं० [२०] दे॰ 'प्रचाएन' (को०] । | ठाकुर०, पृ० २५। अचार'- -* पुं० [पान'० प्रचार मित्रं, राई, लहसुन मादि मसलि अचित--- वि० [ स० अचिन्त] चितारहित । निश्चित । बैफिक्र । में मात्र 17 नगर, भिरा या अर्व नाना में कुछ दिन रस ३०--चिंता न करु अचित रहू, देनहार अमरथ ।---कवीर * f ६१ झ या नखा। पचूमर | प्रयाना । ( व्द०)। मन २५ --मा पु० | न० प्रचार आचरण । प्राचार। उ --- अचिंतनशील -वि० [ स० अचिन्तन+शल ] चितारहित । विचारद; नि नि म मर्च, छल समेत ८वहार । न्वारथ शक्तिहीन । उ०—-वह भी अन्य प्राणियों की भाँति जड या नहित स्नेह मद रुच अनुत अचार |-- तुलसी ग्र०, अचिंतनशील ही रह जाता |--शैली, पृ० ५।। १ = १५० ।। | अचिंतनीय--वि० [सं० अचिन्तनीय) १ जिमका चितन न हो सके । अन् ।'-- पुं० [ म चार ] चिरीजी का पेड । पियाल द्रुम । जो ध्यान में न अ म्के । अज्ञेय । दुवोध। २. शाकस्मिक । ग्रन (५ --मुद्दा पुः ६० प्राचार्य प्रा० अाचारज] दे॰ 'अविर्य' ।। अतकिक (को॰) । ३०-- धर: प्र न भट्ट रघुनाथ अचरज । दि पुर गम अचिता--संवा स्त्री० [ स० प्रचिन्ता] चिता का अभाव । लापर. जन प्रधान मु ग्राग्ज --मारतेन्दु ग्र० भ० २, |वाही [को०)। अचितित--वि० | स० ग्रचिन्तित ] १ जिसका चिंतन न किया गया प्रचार विचार---म पुं० [हिं० 1 दे० 'अनार विचार' । उ० हो । सिया चिार न हुआ हो । विना सोचा विचार । । म मा ब्रिरि भरे है प्रचार विचार नमीप न जाहीं ।---- ३ अनभाविन । किन्निक । ३ निश्चित । वैफिक्र । ४ । तु । ॐ ०,१० २२० । उपेक्षित (को॰) । अचारी'७-० [ १० प्राचारी ] प्रचार करनेवाला । • ऋचित्य-वि० [सं० अचिन्त्य] १ मिका वितन न हो सके । जो ध्यान अना --- q० प्रचार विवाद में रहनेवाले प्रादमी । वह मे ने भी नके । वागम्य । अज्ञेय । कल्पनातीत ! २ जिसको | पनि जा ना नित्यकर्म विधि और गुढ़नापूर्वक करता है । अदाजा न हो सके । कूत । अतुल । ३. ऋषिर से अधिक । अदाजी २ = = अचारी -- ८ [ प्राचार्य 1१ यज्ञ के समय कर्मोपदेशक । ४ विना संचा विचार । आकस्मिकै । ३: । ३६ - -- पान ना हाई १ टिन ज’ प्रचीि । चित्य --सज्ञा पुं० १ क स नकार 1 ----]" , ") !! • २ रामानुज संप्रदाय का वैष्णव जिमका विशप--इसमें अविलक्षण या मारण कारण से विलक्षण कार्य म नि " विवेप बिछानों का मुपदेन करना है । की उत्पत्ति कह जाता है, जैसे--‘कोकिन को बचानत भाग--मध" ०i० प्रचार का अल्पा० ] दिले हुए रच्चे ग्राम वि र हिनि मन अतन । देनार यह देखिए यो समय इसे । । र नम - मनाली में माय धप में सिझावर ( शव्द०)। इन दोहे में साधारण बमत के अागमन रुप *** कान। । । वर न ठ। मैं बनाई जाती है। कारण से मी र वाचालत रूप विलक्ष कार्यों की भना--,- [] । मन (०} 1 उत्पति है। न्'– १ | 5 R = नहीं+चालन ] अनेचानू जहाज । कम ३ वह जो तिन से परे है । ईश्वर । उ6---छकमन्न अचित्य । २ ।।। 1 ।। का वामा ---इवर मा०, १० ११ । ३ वि ( को०)। मात्र... प्र.17 नन । मनेनन् । ४. पारद । पारा (को०) ।। चा'-- * [१० ६ = नई +- प्र'० चाह । अनिच्छा । अचत्यकर्म--सक्षा पुं० [ म अचिन्त्यकर्म ] वह कर्म या कार्य जी F, । "५ । --न अचाइ नहि चाहना चरनन चितन म परे हो (को०] । 37; ? --'--:, भा० १, १० ६८ । अनित्यकर्मा--विः [ म अचिन्त्यकर्मा | अचित कार्य वनगः --- --- । म न हो। बिना चाह या । इन्। | वा । (फो०] ।। | ग्रचित्यप–६० { न० अचित्यप 1जिमका चिंतन या च न हो। ८ '३ । । । 11 मचा ] १. वा हुने । अवा- मयं न प तया प्राग्वार (को॰) । ३' । ६६१,-।, र ६ ८ प्रति न हुई । जो अत्यात्मा---सहा पुं० [ म० श्रचिन्थ्य + अात्मा ] वह जिसका स्वयं ठीक ठीक ध्यान में न था सः। परमात्मा । ईश्वर ।