पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/१७२

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अचमकन्यका १११ । • अचानक - अचलकन्यका---पच्चा स्त्री० [सं०] हिमवान् की पुत्री । पार्वती जल अचवायो तव नृप वीरा लीन्हो !-—सूर (शब्द०)। २ (को॰] । भोजन के पीछे हाथ मुंह धोकर कुल्ली करने की क्रिया। अचल कन्या- सच्चा स्त्री० [सं०] दे० 'चलकन्यका' (को०] । । क्रि० प्र०——करना ।--होना ।। अचलकीला--संज्ञा स्त्री० [सं०] पृयिद । धरित्री। अचवना -- क्रि० स० [स० अचमन] १ आचमन करना । पान विघोष---वृथिवी का यह नाम पाचीन विद्वानों के इस विचार पर | करना। पीना। उ०—-सुनु रे तुलसीदास, प्यास पपीयहि प्रेम की । परिहरि चारिउ मास जो ग्रेचवे जल स्वाति को। अाधारित है कि पथिबी को स्थिर रखने के लिये उसमें जहाँ तहाँ ---तुलसी (शब्द०)। २ भोजन के पीछे हाथ मुंह पहाड कीलो के समान जड़े हुए हैं। घोकर कुल्ली करना ।“ ३ छोड देना । खो बैठना । बाकी अचलज-वि० [सुं०] पर्वतापन्न (को०३ ।। न रखना। अचलजा--संज्ञा स्त्री० [सं०] पार्वती को०] । अचवाई –वि० [हिं० अचवमा ] धोई हुई। सफि । स्वच्छ । उ०-~अचलजात--वि० [सं०] दे॰ 'अचलज' कि । रूप सप मिगार सवाई 1 अप्सर कैसी रहि. अचवाई । अचलतनया---संज्ञा स्त्री० [सं०] उमा (को०] । जायसी (शब्द०) । अचलत्वि-~ममा पुं० [सं०] कोकिल (को॰) । अचवाना---क्रि० स० [ हि० अचवना का प्रेर० ] १ चमन अचलत्विट्--वि० भदा ममान गमावाला । स्यिर कातिवाला [को॰] । करना । पनि कराना। पिलान।। २ भोजन पर से उठे हुए अचलदुहिता--मछ' स्रो० [म.] पार्वती [को॰] । मनुष्य के हाथ पर मुह हाथ घने और कुल्ली कराने के लिये अचलद्वि-सच्चा पुं० [स०] पवों के शवृ इद्र [को०]।। सनी डालना। भोजन न रके उठे हुए मनुये का हाथ मुंह अचलधृति-- सच्चा स्त्री० [म०] एक वर्णवृत्त का नाम जिसके प्रत्येक । धुलाना अर कृली कराना ।' उ---अचवन करि मुनि जल चरण मे ५ नगण थर १ लधु इस प्रकार १६ लघु मान्नाएँ अचवथ तव नृप रा लीनो 1--सूर (शब्द॰) । रती है, यथा--- पट दस लवृह अचलवृति मन गृनि' |-- अचाक--क्रि० वि० [हिं०] दे० 'अचानक' । उ०—जी अचाक भिख री० ऋ०, भा० ९ १० १६८ । उ०--लखि भव भयद मग भेटती विहेमति करि बहूर ग (-यामा पृ० १६७ ।। छदि दुर टु वै हुन । सुघनि वर लखि जिन वधु जिउ रहत अचाचक(-क्रि० वि० | हि० अचान+स०/चक् = भ्राति ] बिना (मदद०) । पूर्वसूचना के । अचानक । एकबारगी। महमा । एकाएक । अचलन--सच्ची ही [ सं० अ = वुरा+हि चलन ] कुनाल । बुरा अबस्यात् । हठात् । उ०—क ई गनीमत का मौका हाथ प्रया आचरण । उ०---तिन्ह की नारि रमहि पचीस मग अचन्न नि देख अचानक अपने यार वफादार को पाकर वहुत करहि री !-- जग० बानी, पृ० ८२ । प्रेमघन ०, भा० ३ पृ० ११४ । । अचलपति--सा पुं० [4] पर्वतों का स्वामी हिमालय (कौ] । अचानचक -क्रि० वि० ।हिं०] दे॰ 'अचाचक' । उ०---परिहै। अचलराज-सच्ची पृ० [सं०] दे॰ अचलपति' (को०)। वज्रागि ताके ऊपर अचानचक वृरि उडि जाइ कहूं ठौहर न अचलव्यूह–सूझी पुं० [सं०] अमहत व्यूह का एक भेद जिसमे हाथी, पाइहै ।--सुदर० ग्र०, भा० ३, पृ० ५०० ) घोडे और रथ एक दूसरे के आगे पीछे रखे जाते थे। अचाक(५'--क्रि० वि० [हिं०] दे० 'ऋचाका । । अचलसंपत्ति--सुच्चा ली० [सं०] वह सपत्ति जो चले न हो । स्थिर अचाका --क्रि० वि० ( स० अ + चक् = भ्राति ] अचानक । अकस्मात् । सहसा । दैवात् । उ०—(क) दिनहिं 'राति अस संपत्ति । जिसे हटाया न जा सके वह सपत्ति । गैरमनकूला परी अचाका । भा रवि अस्तु, चद्र यहाँका !-—जायसी जायदाद, जैसे-मकान, खेत, वृक्षादि । | (शब्द॰) । (ख) कहै पदमाकर नहीं तो । भकोरै लगे औरै लौ अचलसुता--सा स्त्री॰ [स] पार्वती [को॰] । अचाका विन घोरे घृरि जायगी ।--पद्माकर (शब्द०) । अचला--दि। स्त्री० [सं०] जो न चले । स्थिर : व्हरी हुई। । अचाक्षुप--वि० [स०] चक्षु के विषय से परे । अदृश्य [को०] । अचला-सच्चा सी० पृथिवी । धती । अचाख)---वि० [ स० अ = नहीं +हि० चीखना ] न चखा जा सकनेविशेष--प्राचीन लोग पृथिवी को स्थिर मानते थे । अर्यभट्ट ने वाला । खाने के अयोग्य । उ०——तीखा तेज महा अचाख्न ।-- पृथिवी को चल कहा पर उनकी बात को उस समय लगो ने प्राण० पृ० ४० । दवा दिया। अचना नाम का कारण अर्यभट्ट ने पृथिवी पर अचातुर्य-सज्ञा पुं० [न०] चतुराई का अभाव । मूर्खपन । अनाडीपन अचल अर्थात् पर्वतो का होना अथवा उसको अपनी कक्षा के [को॰] । वाहर न जाना बतलाया है। अचान)---क्रि० वि० [हिं० पचाग] अचानक। सहसा । अकस्मात् । अचलाधिप-संधी पुं० [सं०] पर्वर्ती के राजा हिमालय [को०]। उ०--देव अचान भई पहिचान चितुत ही श्याम सुजान के अचलासप्तमी-सच्ची प्री० [म०] माघ शुक्वा सप्तमी । इस तिथि को सौंह --देव (शब्द०)। म्नान दान आदि करते हैं। अचानक--क्रि० वि० [स० अ = अच्छी तरह+चक् = प्रात अथवा स० अचवन -सा पुं० [सं० अचमन, अप० अधबन] [क्रि० अचयना । अशाना] विना पूर्वसूचना के 1 एकबारगी । सहस। अक १ चमन । पानी पीने की क्रिया। उ०—अचवन करि पुनि स्मात् । दैवात् । हात् । औचद में । मनचित्ते में । उ०—(क)