पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/१७१

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११० अचक्षुविषयं अँचल अचक्षुपिय--वः [सं०] जो नेत्र का विपय न हो । दृष्टि से परे मानस १५६४। २ ज्योतिष के अनुर वृष, सिंह वृश्चिक मौर [को॰] । कृभ राशियों जः स्थिर है (को॰) । अचक्षुष्क--वि० [सं०] चक्षुविही न । नेत्रहीन [को०]। अचरचे ----क्रि० वि० [सं० प्र=नहीं +हि० घरचना ] विना पूजा है । अचूख - वि० सं० प्रचक्षु, प्रा० अचक्छु } नेत्रहीन । दृष्टिरहित । अपूजित । उ6---अर ती अचरचे पाई ध म तो कह कौन उ० --'भय युत वालक प्रिय अवख सुनत अनाय सदीब ।-राम० के पेई भरि ।---पोद्दा अन० ग्र०, पृ० २६० । घर्म ० पृ० ५६ । अचरज’--सच्ची पुं० [ स० श्चर्य, प्रा० अच्वरिग्र] प्राश्चर्य । अचगरा-- वि [स० अत्यर्गल, प्रा० अच्चंगल, देश०) छेडखानी अचमा । विस्मय । उ०--प्रचरज कहा पाये जो वैधे तोनि करनेवाला । नटखट । शाख । चचल । उ० --ऐसी नाहि लो कई वान --सूर०, १२३८ ।। अचगरौं मेरी कहा बनावति वात ।---सूर०, १०।२९० । अचरज’--वि० प्राश्चर्य युक्त अनोबा । अचगरी--- सच्चा स्त्री० [हिं० अचगरी ] ज्यादतः । नटखट । शरारत ।। क्रि० प्र०---करना । ३०---बहुरि कह कहनायतन कीन्ह जो छेडछाड । उ०—(क) जी लरिवी कछु अचगरि करहीं ! अचरज राम ---भानम १:११० ।---निना --में शान। |-- मानस, ११२७७। (ख) माखन दधि मेरी मच खाया वहुत में पड़ना --होना । उ०~-वह अगाधं यह क्या कहैं भारी अचगरी कीन्ही ।—सूर० १०।२६७ ।। अचरज होय !---कबर (शब्द॰) । अचतुर--वि० [सं०] १. जो चतुर न हो । २ अनाडी। अबुने । ३. । चार से रहित (को०) । | अचरम--वि० [सं०] जो चरम या अतिम न हो [को०] । अचना)---क्रि० स० [सं० अचमन अथवा हिं० अचवना ] १. ' • अचरा (७)---वि० [सं० चला ] ६० 'अ पला'। उ०----प्रवरा ने चरै | धेन कटरा न पाई --गरिख ०, पृ० १४६। । अचमन करना । पीना। उ०—(क) पैठि विबर मिलि तापसिहि अचई पानि, फलू खाई --तुलसी ग्र०, पृ० ६०। २. । अचरा--सद्मा पु० [हिं०] दे० 'अँचर' । उ०--प्रवरा डाभौ वदन पै मधुर मधुर भुमिकाई |--नद० २०, पृ० १६६।। छोड देना । खो बैठा। बाकी न रख-f, जैसे----‘तुम त लाज अचरिजq---सञ्ज्ञा पुं० [हिं०] दे॰ 'अवरज' । ३०--मित्र कहत शरम अझै गए (शब्द॰) उ०--लाज का अचं ॐ कुन धरम । अचरज मो हिए 1--नद० ग०, पृ० ३०३ । पचे के विथा वृ दनि सर्च के भई मगन गुपाल मैं --भिखारी अचरित'--वि० [सं०] १ जिसपर कोई चना में हो । २ जो छाया ग्र॰, भा॰ २, पृ॰ ६ । अचपल---वि० [सं०] च वल । धीर । गभीर । उ०--मेरे श्रम- । नगया हो । ३ अछुतो । नया । अचरित–संज्ञा पुं० नामकाज छोडे अडकर बैठना। धरना देना । | सिंचित देखोगे अचपल, पलकहीन नयनो से तुमको प्रतिपल गतिनिरोध । हेरेंगे अज्ञात --गीतिका । अचर्ज७--सी पुं० [हिं० ] दे॰ 'अचरज' । ३०-वेनु के बस भई अचपल+---वि० [स० अ + चपल ] [स्त्री॰ अचपली ] चंचल । शोछ । बँसुरी जो अनर्थ करे तो अचज कहा है ।---'भारतेंदु ग्र०, भा० उ०-या काम उन्हें जो हँस बोले या शोखी मे अचपल निकले ।--नजीर (शब्द॰) । २, पृ० ८३१ । अचलपता--सा स्त्री० [सं०] अवचलता । स्यिता । धीरता । अच अचल--वि० [सं०] १ जो न चले । स्थिर । जो न हिले । ठहरा हुआ । निश्चल । ३०--जि हि गोविद अचल ध्रुव राख्यौ, गभीरता । रवि-ससि किए प्रदन्छिन हारी |--सूर०, १।३४।। २. सवे अचपलाहट---सञ्ज्ञा स्त्री॰ [हिं०] १ चपलता का अभाव । अचापल्य । दिन रहनेवाला । चिरस्थायी । उ०——ले का अचल राज तुम्ह २t शोखपन । चुलबुलाहट । करहू --मानस ६१२३ । अचपली+--संज्ञा स्त्री० [हिं० अचपल] अठखेली । किलोल । क्रीडा। यौ ०----अचल कीर्ति । अचल राज्य । अचल समाधि। उ०----गुलाल अवीर से गुलजार हैं सभी गलियो । कोई किसी। ३ न डिगने वाला । न वदलनेवाला । अटल ! ध्रुव । दृढ़ । के साथ कर रहा है अचनियाँ ।--नजीर (शब्द०)। पक्का । उ०—(क) रघुपति पद परम प्रेम तुलसो चह अचपली--वि० स्त्री॰ [ हि० ] दे॰ 'अचपल' । उ०—जाकी छोटी अचल नेम --तुलसी ग्र० पृ० ४६२ । (ख) “उसकी यह | मैंनद वही अचपली ।--पोद्दार अभि० ग्र०, पृ० ६२१ । अचल प्रतिज्ञा है' (शब्द०)। ४, जो नष्ट न हो। मजबूत । अचभौन -सच्चा पुं० [हिं०] दे० 'अचभा' । उ०—कहा कहत तू पुखना। अटूट। अजेय । उ०—(क) गरम भाजि गढवै मई नद ढुटौना । सखी सुनहू री बातें जैसी करत अतिहि अचभौना। तिथे कुच अवल मवास --विहारी र०, दो० ३४४ १ (ख) -—सूर (शब्द॰) । ‘अब इसकी नीव अचल हो गई (शब्द०)। अचमन--ससा पु० [हिं०] ६० ‘साच मन' । उ०—–भोजन करि नैद अचल--सच्चा ० १ पर्वत । पहाड । उ०--जितना चह्य उजनि अचमन लीन्हो माँगत सूर जुठनिया ---सूर०, १०1३४१ । अचल कटि कटि केहर वेस ।--भिखारी० ग्र०, भ० १, १०६ । अचर-- वि० [म०] न चलनेवाला। स्यावर । जड । २ शिव। स्थाण' (को०) । ३ ब्रह्मा (को०) । ४. प्रमा अचर-सबा पुं० १. न चलनेवाली पदार्य । जड़ पदार्थ । स्यावर । (को०) । ५. शकु । छूटी । कील (को०) । ६, सात की द्रव्य । उ०—–जे सजीव जग चर अजर, नारि पुरुष मस नाम । सपा का वाचक शब्द (को॰) । ,