पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/१७०

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अधोपितयुद्धे १०९ अचक्षुदर्शनावरणीय अघोषितयुद्ध- -सच्चा पुं० [सं०] दो राज्यों का वह सशस्त्र संघर्ष या युद्ध अचमी --सझा पुं० [हिं०] दे॰ 'अचभव' । उ6--नमै धर्म मन जिमम कोई भी राज्य संघर्ष की पूर्वसूचना अथवा नियमित वचन काय करि सिधू प्रचभौ करई : सूर०, ९१७८ | घोपण नहीं करते ।। अच्---सच्चा पुं० [सं०] मस्कृत व्याकरण में स्वरों के लिये प्रयुक्त अघीघ---सपा पुं० [सं०] पापों का समूह । पाप का ढेर । 30- पावस पारिभाषिक शब्द जिसे प्रत्याहार भी कहते हैं [को॰] । समय कछु अवध वरनत मुनि अघौघ नसावही ।--तुलसी ग्र०, अचक'--वि० [सं० चक्र, प्रा० चक्क = समूह, देर भरपूर । पूर्ण । ज्यादा। पृ० ४१६ । । जैसे--जिनके घर अचक माया धरी है' !- हि०प्र० (शब्द॰) । अघ्न्य--सच्चा १० [सं०] १ ब्रह्मा । २ वलीवद । साँड [को॰] । अचक-क्रि० वि० [सं० = नहीं चक् + प्रात होना] विना भ्रात हुए। अध्न्य-वि० न हुनने या मारने के योग्य । बिना हिले दुले । उ०---घोडी ले चलू अत्रक वैठार, सजन के अघ्न्या --मझा जी० [म०] गौं । गाय [को०] । खेत में।-पोद्दार अभि० २०, पृ० ६३५ ।। अघ्रान(--मक्षा पुं० [स० अघ्राण] १, गध लेने की क्रिया या मावे । प्र व्रक-सञ्ज्ञा पुं० [H० /चक = स्रात होना, घबराहट । भाचकापन । सुचने का कार्य । गधग्रहण । २ गधे । महूक । अरघान । विम्मय । उ०--नोम तन छाए, सुलतान दल अाए, सो तो उ०--नर अघ्राने तहाँ तिन्ह लागी । सत सुकृत बोले समर भजाए उन्हे छाई है प्रचक सी ---सूदन (शब्द॰) । अनुरागी । --कवीर मा०, पृ० ६७ ।। अन्नानना--क्रि० स० [ स० अघ्राण] अघ्राण करना । महक अचकचाना--क्रि० अ० [ हि० अचक से नाम०] घबराना । विम्मित होना । लेना । सूचना । उ०प्रसख रवि जहाँ, कोटि दामिनि, पुहुप सेज़ अघानियाँ ।---कबीर (शब्द॰) । अचकचाहट-~-वः [हिं० अचक] घबराहट। मीच कापन । ३०-- अत्रेय'--वि० [ग ०] न संघ ने योग्य । ‘अपनी अचकचाहट का भुमकराहट से ढकने का प्रयत्न कर ही अप्रेय-मक्षा पुं० मद्य । राव [को०] । रहा था'।--दहकते० पृ० २७ । अचकन--सच्चा पुं० [अ० 'चिकन' का 'परिधान' से ] एक प्रकार का अचचल--वि० [ स० प्रचञ्चल ] [नौ० प्रचचला, म अचचलता ) १ जो चचल न हो । चचलतारहि । स्थिर । ठहरा हुआ । लव अगा। उ०—भए विलोचन चारु अच चल |---तुलसी (शब्द॰) । विशेष---इसमें पाँच कलियों और एक बालबिर होता है । जहाँ २ धीर । गभीर । वालावर मिलता है वहाँ दो बद चौधे जाते हैं । अब वदो के अच चलता--सच्चा स्त्री॰ [ स० अचञ्चलता] १ स्थिरता । ठहराव ।। स्थान पर वदन भी लगाने लगे हैं । २ घीरता । गभीरता । अचकना पचकना-क्रि० वि० [ हि अचक + अनु० पचक ] हिचअचड-वि० [सं० प्रचण्ड ][ स्त्री० अचडी] जो घड न हो। उग्रता । किचाना । घबराना । उ०---अचक पचक यो धर धीरे पग रहित । शात । सुशील । सौम्य । | सुधि भी लगी उतरने ।-- मिट्टी०, पृ० ३५ । अचडी-~-सच्चा झी० [सं० अचण्डी] १ सीधी गाय । शति गौ । अचका--क्रि० वि० [हिं० अचानक, अचक्का ] अचानक । अचक्के २. अकोयना स्त्री [को०] । में । एकाएक । सहसा । उ०—जानत ही तुम ही बल पूरे। पै अचतीG---वि० [स० अचिन्तिन, प्रा० श्रचतिय, अचितिइ ] अतकित । | अचको आए नहिं सूरे ।--सदन (शब्द॰) । प्राकस्मिक । उ०--की, प्री, राँगा, प्रणि करि, काँइ अचती अचकित--वि० [सं०] जो चकित या विस्मित न हो [को॰] । हाँण |--ढोला ६० ६२७ । अचक्का--संज्ञा पुं० [स० = भले प्रफार+चक् = स्वाति ] ऐसी दशा अचद्र --वि० [सं० प्रचन्द्र ] चंद्रमा से रहित । विना चाँद का ! को०]। जिसमें चित्त दूसरी ओर हो । असावधानी की अवस्था । अचभमपु---सा पुं० [हिं॰] दे॰ 'अचभव' । उ०—हुने घरो नरा अनजान । नर हैमरा, उरघ अचभम अम्मा |---रा० रू०, पृ० २५ । यौ----अचक्के मे = अचानक । सहमा । एयरएकः । अचभव--संज्ञा पुं॰ [ स० अत्यद्भुत , प्रा० अच्चम, अचमव] अचमा । आश्चर्य । विस्मय । ताज्जुब । उ० ---अगम अगोचर अचक-वि० [सं०] १. बिना चक्का या पहिए का । समुझि परे नहि भयो अचभव भारी |--कवीर ( शब्द०)। स्थिर । अचल । निष्कप [को॰] । अचभा--संज्ञा पुं० [ स० अत्यद्भुत, प्रा० अच्चभअ] १ प्राश्चर्य । अचक्षु'--वि० [सं०] १. विना अखि का । नेत्र र हिव । अघा । २ अचरज । विस्मय । ताज्जुब । २ विस्मय उत्पन्न करनेवाली अतीविय । इद्रियरहित । घात । उ6--एक अचमा देखा रे भाई, ठाढा सिघ चरावै गाई। अचक्षु--सा ऐ० असौम्य नेत्र [को॰] । --कवीर ग्रे०,-पृ० ६१ ।। अचक्षुदर्शन--सया पुं० [सं०] आँख को छोड़ अन्य ग्राभ्यंतरिक इद्रियो अचभित--वि० [हिं० अचमा ] अपंचयित । चकित । विस्मित । द्वारा प्राप्त ज्ञान ।। अचभो--स' पुं० [स० असंभव प्रयवा हि० अचभव ] ४० 'अचभा' । अचक्षुदर्शनावरण-सहा पु० [सं०] वह कर्म जिससे प्रचतुदर्शन नामः उ०—(क) देखते रहे अचभो, योगी हस्ति न य । योगिहि ज्ञान न प्राप्त हो । प्रचक्षुदर्शन का निरीघरारन वर्म । कर अस जभव भूमि न लागत पाय जायसी (शब्द०)। अचक्षुदर्शनावरणीय--वि० [सं०] जैन शास्त्रकारों ने जब वे जो भाई (ख) अचमो इन लोगनि को आवै। छडे खान अमीरस फल को मूल कर्म माने हैं उनमें से दर्शनावरणीय कर्म सेः न भेदी माया विष फल माने ।--सूर (शब्द॰) । मे से एक । एन्र्शन नाक 'न को याः ।