पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/१६८

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मधन अघात वि अघटित भोजन करतो।- अघर्मा शु--सज्ञा पुं. निहित, अघटित १३०३ । गति अटपटी, चटपट लखी न जाय । जो मन की खटपट मिटै, हैं। २. मत्न द्वारा हाथ में जल लेकर नासिका से छुलाकर अघट भए ठहराये |--कवीर (शब्द॰) । (ख) जहँ तहँ मुनि विसर्जन करने की पापनाशिनी क्रिया। वर निज मर्यादा थापी अधट अपार --सूर (शब्द॰) । अघमर्पणकृच्छ-सहा पुं० [सं०] एक प्रकार की कठिन व्रत जो ३ पूरा। पूर्ण । उ०—-सूर स्याम सुजान सुकियाँ अधट उपमा प्रायश्चित रूप में किया जाता था। दाव |--सा० लहरी, पृ० १ ।। । विशेष—इसमें तीन दिन तक कुछ न खाने, त्रिकाल स्नान करने अधटन)---सक्षा पुं० [सं० अ + हि० घटना ] कम न होगा । न र पानी में डूव कर अघमर्षण • मत्र अपने का विधान हैं - घटना, कम न होने का भाव ।। (स्मृति)। अघटित--वि० [सं०] १. जो घटित न हुआ हो । जो हुप्ता न हो। अच्चमा हुम्रा न हो । अघमार--वि० [सं०] पापो का नाश करनेवाला (को०] । उ०---पाकर पुत्रो में प्रेम अटल अघटित सी ।----साकेत, पृ० अधरूप--सधा पुं० [स० अघ + रूप] पापरूप। महापातकी । उ०-- २२६ । २ जिसके होने की समावना न हो। न होने योग्य है। तदपि “महीसुर स्राप बेस भए सकल' अधरूप --मानस, असभव । कठिन । उ०—-हरि माया वस जगत भ्रमाही । | ११७६ । तिन्हहि कहत व छ घटित नाहीं !-—तुलसी (शब्द॰) । अधर्म अघर्म-वि० [ स० ] उष्णता हित । शीतल [को०] । ३ ७) अयोग्य । अनुचित । अनुपयुक्त । ना मुनासिव । ३०--- अघर्मा शु--सज्ञा पुं० [सं०] हिमाशु । चद्रमा [को॰] । रसनः स्वाद सिथिल लपट हूँ अघटित भोजन करत । --- अघल-वि० [सं०] पाप का नाश करनेवाला [को०] । अघटित'G'--'व० [ सं• +घटित ] अवश्य होनेवाला । अमिट ।। अघवान्---वि० [स] पापी । अघी ।' अनिवार्य । उ०---जनि मानहु हिय हानि गलानी । काल करम अघवाना--क्रि० स० [हिं० अघाना का प्रे०] १ भरपेट खिलाना । गति अघटित जानी |-- तुलसी (शब्द॰) । भोजन से तृप्त करना। छकाना । ५ सतुष्ट करना। मन अधुदित (७)---वि० [हिं० अघट । न घटने योग्य 1 बहुत अधिक । भरना। उ०—कीन घमसान समसन फर मडल में E||इनु उ०--अघटित सोभा यदपि तदपि मनि घटित विराजते । अघाइ अघवाए वीर वसि में --सुजान०, पृ० १३ ।। | ---गि ० दा० (शब्द०) । अघविष--सच्चा पु० [सं०] बहुत तीव्र दिपवाला साँप [को॰] । अघटितघटनापटीयसी--वि० [सं० ] जो भी न हुया हो उसे भी अघ्रशस-मुझा पु० [सं०] १ दुष्कर्म या पाप कहनेवाला व्यक्ति । करने में पट्ट या चतुर। माया का विशेषण (को०]] २ दुष्कर्म की इच्छा करनेवाला व्यक्ति, जैसे चोर । ३. बुरा अघट्टq---वि० [सं अघटय ] जो न घटे या न चुके । अक्षय । व्यक्ति [को०] । उ०--दीपक दीन्हा तेन भरि वाती दई अघट्ट । कबीर सा० अघशसी--वि० [सं०] बुराई या पाप की बात करनेवाला [को०]। स०, भा० १, पृ० ६ ।। अघहर--वि० [सं० अघ + हर] पापो को हरण करनेवाला । पाप अघड -वि० [ स० अ = नहीं + घट, प्रा० घड, हि० धड़ ] जो गढा न को नष्ट करनेवाला । उ०--सत्यासक्त दयाल द्विज प्रिय अघहर | जा सके । निर्माण के अयोग्य ।' उ---अघड घडावे उलटे सुख कद ।--भारतेंदु ग्र०, १० २५० । चाकि । --प्राण०, पृ० १७० । | अघहरन--वि० [सं०] अधहरण दे० 'अघहर' । उ०—अति प्रताप मेघन---वि० [सं०] १ जो घना या ठोस न हो। तरल । २ जो महिमा समाज जस, सोक, ताप, अघहरन ।-नद० ऋ०, अशिथिल और अविरल न हो को०)। पृ॰ ३२६ । अघनाशक-सज्ञा पुं० वि० [सं॰] दे॰ 'अघघ्न' [को॰] । अघहार--सच्चा पु० स० १ कुख्यात डाकू या लुटेरा। २. अपराध अघनाशन--सा पुं० [सं०] वह जो अघ का नाश करे। विष्ण, विषयक अपवाद या अफवाह [को० ।। [को०]। अधाँवरी--संज्ञा स्त्री० [हिं० अघाना] तृप्त होना। संतुष्ट होना। अघनाशन--चि० पापो का नाश करनेवाला [को०] । उ०----कवि ठाकुर नैन सो नैन लगे अब प्रेम सो क्यो ने अघनासी--वि० स्त्री० [ सं• अघ+नाशिन् ] पाप का नाश करने अघाँदरो री ---ठाकुर श०, पृ० १८ ।। | वाली। पापनाशिनी । उ०—–वासी, अविनासी अघनासी एसी अधा--सा पु० हि० दे० 'अघासुर' । उ5-वीते वर्ष कहत कामी है !--भारतेंदु ग्र० भा० १, पृ० २८२ ।। सब ग्वाला ।। आज श्रघा मारयो नँदनाला --ब्रज ०, अघोजी---वि० [सं० अघोजिन् ] १ देव पिनर प्रादि के लिये न पृ० १३३ ।। बनाकर अपने ही लिये बनाने और खानेवाला। २. पाप की अघा’-सज्ञा स्त्री० स० पाप की देव। पाप की अधिष्ठात्री कमाई खानेवाला [को॰] । देवी को० । । । अघमरषण--सुज्ञा पुं० [सं० अघमर्षण ] दे० 'अघमर्षण' । उ०-- अघाउ-*--संज्ञा पुं० [प्रा० ऋग्धव = पुरा करना बाढ़ पुन्य अघि अघमरपण शाखरनि, मतिराम करत जगत जप का भाव । सतोष । तृप्ति । उ०—-भरत सभा सनमानि सहित नाम को --मतिराम ग्र०, पृ० ४१२ । | होत न हृदय अधाउ ---तुलसी ग्र०, पृ० ५०९।। अघमर्षण'--वि० [सं०] पापनाशक । अघाट---संज्ञा पुं० [दश ०] वह भूमि जिसे बेचने या अलग करने का अघमर्षण-सज्ञा पुं० १. ऋग्वेद का एक सूक्त जिसका उच्चारण अधिकार उसके स्वामी को न हो। अगहाट । सम्भावदन के समय द्विज पाप की निवृत्ति के लिये करते श्रघात'-सच्चा प ० [सं०] क्षति या घाव' का अभाव को ।