पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/१६०

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अगौनी ६ । • अग्निकाष्ठ अगौनी --क्रि० वि० [हिं० ] ६० 'अगाउन' । उ० -देव दिखावत अग्नि-सहा स्त्री० [ स०] १. अगि । तेज का गोचर रूप। उष्णता। | कचन सरे तन प्रौरन को मन लावे अगौनी ---देव (शब्द॰) । पृथ्वी, जल, वायु, प्रकाश आदि पचभूतो या पचतत्वो मे से अगीनी+--सज्ञा स्त्री० [हिं० अगवानी ] १ अगवानी । पेशवाई। एक । २. वैद्यक के मत से तीन प्रकार की अग्नि । | २ वह अतिशवाजी जो वरात आने पर द्वारपूजा के समय विशेष—प्रायुर्वेद में अग्नि के तीन प्रकार माने गए हैं। यया- ( क ) छडी जाती है । भौम, जो तृष्ण, काष्ठ आदि के जलने से उत्पन्न होती है । अगौरा’--सज्ञा पुं॰ [ 8 अग्र + हिं० औ ( प्रत्य॰)] ॐख के ऊपर (ख) दिव्य, जो अाकाश में बिजली से उत्पन्न होती है । का पतलो न स भाग जिसमे गाँठे नजदीक होती है। अगाव । (ग) उदर या जठर, जो पित्त रूप से नाभि के ऊपर और | अगडी कोचा ।। हृदय के नीचे रहकर भोजन भस्म करती हैं। इसी प्रकार अगौरी---- श्री [हिं० ] दे॰ 'अरा'। २ दे० 'अगली' । कर्मकाड़ में भी अग्न तीन प्रकार की मानी गई है। यथा--- अगौली-- संE सी० [देश॰] १ ईख की एक छ टी और कही जाति । गार्हपत्य, हवनीय, दक्षिणाग्नि । सभ्याग्नि, आवसथ्य और अगवाएं--ऋ० वि० [हिं० अर्ग-4ौभा ( प्रत्य० ) ] अागे । पासनाग्नि--- इन तीन को मिलाकर उनके छह भेद हैं जिनमे उ०--विरच्यौ विकट रायमनि दौवा । घाई खाई अरि हुने प्रथम तीन प्रधान है। अगवा।--छत्र०, पृ० २१५ ।। ३ देद के प्रधान देवताशो में से एक ने अगौहG ---क्रि० वि० [सं० अग्नमुख आगे की ओर । अागे । अगाड़ी ।। । विशेप---ऋग्वेद का प्रादुर्भाव इसी से माना जाता हैं । वेद मे अग्नि ३०--(क) भीतर भन तें प्रान प्रिया सो नितो चहै पैग पड़े। के मन बहुत अधिक हैं। अग्नि की सात जिह्वाएं मानी गई न अगह। बेनी प्रवीन (ब्द०)। हैं जिनके अलग अलग नाम हैं, जैसे--काली, काली, मनोजवा, अग्ग--क्रि० वि० | सै० अग्र ; प्रा० अरग ] अगाडी । भागे । उ०— सुलोहिता, धूम्रवण, उग्रा और प्रदीप्ता । भिन्न भिन्न ग्रथो में अग्न गयो गिरि निक्ट विकट उद्यान भयर--पृ० रा ०, ये नाम भिन्न भिन्न दिए हैं। यह देवता दक्षिण पूर्व कोण की , ६६४ ।। स्वामी हैं और अठ लोकपालो मे से एक है। पुराणों में इसे अग्गई-सका को० [देश॰] अवध में अधिकता से होनेवाला एक प्रकार वसु से उत्पन्न धर्म का पुत्र का है। इसकी स्त्री स्वाहा थी का मझोले प्रकार का वृक्ष । जिससे पावक, पदमान और शुचि ये तीन पुत्र उत्पन्न हुए। विशेष--इसकी पत्तियाँ प्रायः हाथ भर लबी होती हैं । यह नेपाल इन तीनो पुत्रों के भी पैतालीस पुत्र हुए। इस प्रकार सर्व भूटान, बरमा और जावा मे मी पाया जाता है । इसमें पीले मिलाकर ४६ अग्नि माने गए हैं जिनका विवरण वायुपुराण में रग कै २-३ इंच चौंडे फूल और छोटे अमरूद के प्रकार के विस्तार के साथ दिया है। - फल लगते हैं । क्रि० प्र०-जलना। जलाना |--डालना |--कनः ।--वालमा । अग्गम*-- ( स० अगम्मा ] दे॰ 'अगम' । इe-- अगम बदरिया बुझना ।--- वकानी ।-- मडकना ।—भडकाना -लगना । श्राई सियो, पच्छम घरस गये मॅछ ।-शुक्ल घभि० ग्र०, लगाना ।—सुलगाना । पृ० १५६ ।। ४ जठराग्नि । पाचन शक्ति । जैसे--अन तो मद हो गई है । अग्गय –क्रि० वि० [सं० अग्म् 1 दे० 'पद्म' या ‘अगे' । उ०-- भूख कहाँ से लगे (शब्द॰) । ५ पित्त । ६ , तीन की संख्या ती अप्प भग्गय घर तत रथ |-पृ० रा०, ६४११०० । क्योकि कर्म कार्ड के अनुसार तीन अग्नि मुख्य है । ७, सोना। अग्गर'७--वि० [ देश० अग्गल ] [ वि० सी० अगरी ] अगुप्ता । में चित्रक । चीता । ९ भिलावा । १० नोवू । ११. अग्निअग्रणी । उ०--गये सलपानी राव बीर घग्गर गढ रष्ये ।--- । कर्म (को०) । १२ ‘र्’ का गूढ प्रतीक (को०) । १३ पृ० ०, १२॥५८।। प्रकाश (को॰) । अपर -सा पुं० [सं० प्रगिरि ] निवास । धाम । प्रासाद्र । उ०- अग्नुिक---सज्ञा पुं० [सं०] १ बरवहटी नाम का कीड़ा ।२. एक | अग्गर जेहा धूपबा तर मासगे मोइ |--ऋोला० ० ३१४ । प्रकार का पौधा (को०) 1 सप की एक किस्म (को०)। पगाल -सा q० [स० अकाल ] असमय । अनवसर । उ०-कई अग्निकण--सा पु० [सं०] चिनगारी । स्फुलिंग, किो०] । | तू सी ची सज्जणे, कॅइ बुरुज अग्गल ।-ढोलॉ० ६०, ३८१ अग्निकर्म-सया पुं० [सं०] १. अग्निहोत्र। हवन । २. अग्निसंस्कार । म७ि --सा पुं० [सं० अग्नि, मा० अग्रि] * ‘अग्नि । उ०-- शवदाह । ३ गरम लोहे से दागने की कार्य (को०) । पवन अग्गि जलधर प्रकाश । सरिता समुद्द तिथि गिरि निवास । अग्निवला--सज्ञा स्त्री॰ [स०] अग्नि की दस कला में कोई एक || --१० रा०, १।१६। । [को०]। | अग्गिया--सहा औ० [सं० प्रका] दे० प्राज्ञा'। उ०—–अगिया अग्निकल्प-वि० [सं०] अग्नि की प्रकृति या स्वभाववाला [को०1।। । दीन जद्द वह जाम ---पृ० रा०,६१।१६०७ । । अग्निकांड--सप्ता पुं० [सं० अग्नि +कांड ] भाग लगाना। | अग्गq--क्रि० वि० [हिं० 1 ३० प्रांगे' । उ०——वहूदि देव कवियन अग्निकारिका-सह) स्त्री॰ [सं०] १ ऋग्वेदोक्त अग्निसूक्त जो ‘अग्नि प्रबल मिलन पिथ्थ पगै बलिय ।--पृ० रा०, ६६३ ।' दूत पुरोदवे' से प्रारंभ होता है । २. अग्निकार्य [को॰] । अग्नायी---सा सी० [सं०] १ अग्नि की स्त्री स्वाहा । २. अग्निकार्य संप पुं० [सं॰] दे॰ 'प्रतिसारण' २। ' जैतायुग (को॰) । । अग्निकाष्ठ----सी • मुं० [सं०] अगर का पेड़ । । ।