पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/१५९

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अगैस अगैर-संज्ञा पुं॰ [सं० अग्र+हिं० प्रौरा (प्रत्य०) ] नई फसल की अगोटना(G3-क्रि० अ० [हिं० प्रगोट ( = रोक) से नाम० ]कता पहली टी जो प्रायः जमीदार को भेंट की जाती है । ठहरना । अडना। फेसना। उलझना ! उ०--सुनत भावती अगोई"---सूझी पुं० [सं० अग्रवर्ती ] अगुप्री। सरदार। नायक । वात सुतनि की झूठहिँ धाम के काम अगोटी।। उ०—-उदैकरन रन भयौ अगोई --छने ०, पृ० २१७ । सूर०, १०1१६५। अगोई -वि० स्त्री० [सं० अगोपित, प्रा० अगोइञ, हिं० अगोई 1 अगोणी--वि० [हिं० अगौनी अागेवाली। आगे की । --- एता जो छिपी न हो। प्रकोट । जाहिर । व्यक्त। उ०—-सतन की कमाम ले अगोणी भूमि पाया। --शिखर० पृ० ६। गति प्रगत अगोई।--घट०, पृ० ७२ । अगौसा --क्रि० वि० [सं० अप्रत ] दे॰ 'अगता' । । कि० प्र० --फरना ।—होना ।। अगोता(७–स सी० [ ति० ] अगवानी । पेशवाई। अंगोची --वि० [सं० प्रगोचर] दे॰ 'अगोचर' । उ०--देहुरे मझे दैव अगोत्र -वि० [सं०] कारण ‘हित । अकारण | को० J! | पायो, वस्त अगोच लखायो ।--दादू० पृ० ५३० । अगोपा--वि० [सं०] जिसके पास गाय न हो। गोधन से रहित [को॰] । अगोचर--वि० [सं०] १ जिसका अनुभव इद्रियों को न हों। जिसका अगोपिy--वि० [सं० अगोप्य 1 प्रकट । जाहिर। व्यक्त । उ०-:-गोपि वोध न हो सके । इद्रियातीत । उ०—-मन बुद्धि बर वानी अगोचर प्रगट कवि कैसे करे ।—मानस, १५३२] २ अप्र । कहूँ तो सग पि पहा यह गोपि अग पि न ऊभ ने बंसी |--- सुदर० प्र०, भा॰ २, पृ० १७ । गट । प्रत्यक्ष । अव्यक्त । ३०-~-'गोचर घातो या भावना । अगोरई-सी स्त्री० [हिं० प्रगोरना 1१ को भी, जहाँ तक हो सकती है, बवित स्थूल गोचर रूप में। खेत अादि की देखभाल रखने का प्रयाम करती है। ---रस ०, पृ० ४१ । । | करने को मज्दू । २ अगरने की क्रिया या स्थिति । अगोचर-सपा पुं० १ ब्रह्म । २ वह वस्तु जो इद्रियो का विषय न अगोरदार--- स; पुं० [हिं० अगोरा+ फा० दार] रखवाली करनेहो । ३ वह वस्तु जिसे देखा, समझा या जाना न जा सके अगोरना-क्रि० स० [सं० अघूिर्णन = देखना या म० अग्र+ रक्ष या वाला पहरा देनेवाला चौकसी करनेवाला। 'रखाला। अगोचरी--सहा स्त्री० [सं० गोचर ] हठयोगियो की पांच मद्रग्रो देश ] १ र ह देखना वाट जोहना। इंतजार करना । में से 'गोचरी' नाम की एक मुद्रा। उ०——चाचरी, भूचरी, प्रतीक्षा करना । उ०--तेरी बाट अग रते अखें हुई चकोर खेचरी, अगोचरी, उन्मुनी पाँच मुद्रा साधते सिद्ध राजा ।-- की --हर घास०, ३ रखवालीं वरन् । पह) देना ।, रामानद०, पृ० ५) चकमी वरन्। उ०---कुवरि लाख दुई वार अगरे । दुहू दिसि अगोट–सुझा पुं० [सं० प्रग्न == अागे + हि० भोट = अद्धि ] [ कि पॅवर ठाढ़ के जाने --जायसी ( शब्द०)। अगरना--क्रि० स० [हिं०] रोना। अगरना । ॐ कना। इ०=अगीटना] १ रोक । कोट । प्राडे । उ०--रही हैं घूघट पट की औद। नसुत कील, कपाट सुलच्छन, दै दृग द्वार अगोट । जर में कोटि जतन करि राखत. घुबट अट आगोरि। * --सुर०, १०२७६६। उडि मिले दधिक के खग ज्यो', पलक पीअर तोरि ।--- अंगोट--सा झी० [सं० अग्र + हिं० ओट = सहारा ] प्रश्रय । सूर०, १०२३५७ अगोरा--सी पुं० | हि अगोर + अ (प्रत्य॰) १ अाधार । उ०—-रहिहैं चचल प्रान ए, कहि कौन' की अगोट । अगरने या | विहारी र०, पृ० ३६५। रखवाली करने की क्रिया । चौकसी । निगरानी । २ खेत की। अगोट- वि० [सं० अ = नहीं-+ हिं० गोट = जोट, साथी ] एकाकी । कटाई या फसल का दंवाई के समय की वह निगरानी जो अकेली। जमींदार लोग काश्तकार से उपज का भाग लेने के लिये अपनी । अगोटना (+-- क्रि० स० [हिं० अगोट से नाम० अथवा सं० ऋग्न, अ र से कराते हैं । अगोराई+--सा स्त्री० [हिं० प्रगोर + प्राई (प्रत्य०) ] दे प्रा० अग+ हि० श्रोट +ना (प्रत्य॰)] १. रोकना । छेकना ।। । 'प्रगौरई' । । ३०---मनु कोट जो पाय अगोटी । मीठी खाँड जेवाए रोटी । अंगोरिया+सङ्ग। पुं० [हिं० अगोर+इया (प्रत्य॰)] खेत झी रख —जायसी (शब्द०)। २ बद कर रखना। रोक रखना। वाली करनेवाला फमल रखनेवाला। रखवाला । ' पहरे में रखना। कैद रखना। उ०---जो नहीं, त रखिये अंगोनि-सा पुं० [ स० अग्रवर्ती या अग्रवाही ] वह बेल जिसके अखिनु माँझ अगोटि |--विहारी र०, दो० २५० । ३ । | सोग मार्ग की अोर निकले हो । छिपाना । ढाँकना। उ०--कीजै किन व्यात अगोटन को । है अगाय- वि० [सं० ]ज चोर यही मनमोहन को। --भिखारी० ग्र, भा० १, | अगाडीf---सुथा स्त्री० [हिं० अग + औड़ी (प्रत्य॰)] ईख के ऊपर का पृ० ३४२) | • पतला भाग । अघोरी । अगाव! अगर। अगोटना –क्रि० स० [सं० प्रक्रिोड, प्रा० अक्कोड, हिं० 'अगोट' से अगौका-वि० [सं॰] पर्वत पर रहनेवाला [को॰] । नाम०] १ अगीकार करना। स्वीकार करना । ३ पुसद अगौका--१ शरभ । २. सिंह । ३ पक्षी [को॰] । करना। चुनन। उ०——लगत कल्प शतकोटि एक एक के अगौढ–समा पुं० [सं० अगु, प्रा० अग+ बढ़ (प्रत्य॰)] रुपया जा गुन गनत । मन मे लेहि अगोटि जो सुदर नीको लगे। -- गुमान (शब्द०)। असमी जमींदार को नजर या पेशगी की तरह देता है । पेशगी। अगाऊ ।