पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/१५८

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अगुआना अगेह , पृ० ७६ ! अगुठना । पुं० [सं० अथवा हि° (शब्द॰) । हि कारन गढ कीन्ह अनूठी - हो । जिसे गुण की परख न हो। अगूठी अगुआना-क्रि० अ० अागे होना या बढना । अगुसारना --[ स० अग्रसारण 1 आगे बढ़ना। आगे रखना। अगुआनी-संवा स्त्री॰ [हिं०] ३० 'अगवानी' । उ० ---यह महीप मेरी , उ०—-*ग के राजै दुख अगुसरा । जियत जीव नहिं करो | अगु अनी के लिये महासागर तक अाया ।---यामा०, पृ० ७६ । निना। |---पदमावत, पृ० ७०३ ।। अगुण'---वि० [सं०] १ सत्व, रज, तम अादि गणो से रहित । धर्म अगुठनाए\--क्रि० स० [ स० अवगुण्ठन ] चारो श्रोर से घेर लेना। यो व्यापारशून्य । गुणरहित । निर्गुण । २. निर्गणी । अंगूठा+--संज्ञा पुं॰ [ स० अवगुण्ठक | घेरा । मुहासिर । अनाडः । मूर्ख । वेहुनर । अगूठी --वि० [ स० अवगुण्ठित अथवा हिं० अगूठ} घेरायुक्त । अगुण---समा पु० अवगुण । बुरा गुण। दूपण । दोप । उ०--जेहि कारन गढ कीन्ह अनूठी --जायसी (शब्द०)। अगुणज्ञ-वि० [सं०] जो गुण न हो । जिसे गुण की परख न हो । अगूठी --सभा सी० [हिं० अगूठा ] कारागार। वधन । । अनाडी । गैवार। नाकदरदान । अगूढ---‘ने० [सं० अगूढ ] जो छिपा न हो। स्पष्ट । प्रकट । सहज । अगुणता---संज्ञा स्त्री० [सं० ] गुणहीनता । गुणो की अमाव । उ०-- अासान । | अगूढ--सच्चा पु० अलकार में गूणीभूत व्यग्य के आठ भेदों में से एक। • सेंद्रिया मैं, अगुणता से नित्य उकता ही रही थी, सजन में । विशेप-ह वन्य के समान ही स्पष्ट होती है। जैसे--'उदयही रही थीं --कुत्रास, पृ० ८५।। चल चुवत रवी, अस्ताचल को चद ।' यहाँ प्रभात का होना अगुणत्त्व--सा पुं० [ से० ] अगुणता । गुणराहित्य [को०]। व्यग्य होने पर भी स्पष्ट है। अगुणवादी--वि० [सं०] अवगुण कहनेवाला । दोष निकालने या अगूढगध--सझा पुं० [सं० अगूढगन्ध } हीग [को० ] } कहनेवाला । छिद्रान्वेषी [को०] । अगूढगधा--सञ्ज्ञा स्त्री० [सं० अगुढगन्धा ] होग । गाँधी ।। अगुणवान्---वि० [सं०] गुणरहित [ को० }। अगूढभाव-वि० [सं० अगूढभाव ] जिमका भाव या विचार छिप अगुणशील--वि० [ मं० ] विशेषतारहित । अयंग्य । अगुणी [को०] । हुअा न रह सके । अंगुणी-वि० [सं०] १. निर्गुणी । गृणरहित । २. अनाडी 1 मूर्ख। अगूता--क्रि० वि० [ मुं० अग्र -- हि० ऊता ( प्रत्य० )] प्रागें । अगुताना(24-क्रि० अ० [हिं०] ३० 'उकताना' । उ०—तू जानि | माभने । उ०—-वजन वाजहि होइ अगूता। दुवौ कंत नेई मोहि अगुतावहू नरक जन नावहु हो |--पलटू० वानी, भा० चाहहि सूता --जायसी ग्र०, पृ० २६६ ।। ३, पृ० ७४ ।। अगृभीत--वि० [सं०] १ अगृहीत । जो पकडा या गिरफ्तार न किया अगुन'७---वि० [सं० प्रगुण १ सन्त्र रंज तम आदि गुर्गों से रहित । गया हो २ अपराजित । अपराभूत [को॰] । निपुण । उoप्रगन संगन दुइ ब्रह्म सरूप। [--- मानस, १।२३ । १९° [२०]!हचान । विन। घर का। इ०-क्या पूछा हा २ अनाडी । बेहुनर । निगुणी । उ०-•अर्जुन प्रमान जानि पता हमारा ? हम है भगृह, काम 1-अपलक, पृ० ७३ । तेहि दीन्ह तो वनवास !---मानस, ६३० ।। अंगृह’--सज्ञा पुं० गृहस्थाश्रम के बाद का आश्रम । वानप्रस्थ [को०] । शगुन'---सला पुं० [सं० अगुण ] दे॰ 'अरुण' २। उ०----खल अव अगृहता--सी स्त्री० [सं० 1 विना घर का होने की स्थिति या देशा। * अगून माधु गुनगाहा ।—मानस, १६ । . वेघरदारपन [को॰] । अंगूनी--वि० [स० प्र+हि० गुनना ] जिसे गुना या विचार न अर्गथ-सज्ञा पुं॰ [ स० अग्निमन्य ] अरनी का पेड़ । गनियारी । जा सके। जिसका वर्णन न किया जा सके। उ०--ऐसी अनूप अगद्र--सच्ची पुं० [म० अगेन्द्र ] पर्वतों का राजा । हिमालय । कहें तुलसी रघुनायक की अगुनी गुन गाहें । आरत दीन अगेज'–वि० [फा० अगेज ] मिला हुआ । अनाथन को रघुनाथ करें निज हाथ की छाई --तुलसी ग्र०, अगेज-सज्ञा स्त्री० सहन । अँ गेज। पृ० २०० । । अगय---वि० [ स०] जो गेय न हो या जिसका गान न किया जा अगुमन--क्रि० वि० [हिं०] दे॰ 'मन'। उ०~-मन हित अगू- सके (को०] । | मन दिहल चलाई ।--घरनी ०, पृ० २।। अगेयान --वि० [ स० ऋज्ञान ] अज्ञे । अजान । अनजान । उ०--- अगुरु'---वि० [ स०] १. जो भारी न हो। हलका । सुबुक । २. ए सखि पिया मोर बड अगेमान, बोलथि बदन तोर चाँद जिसने गुरु से उपदेश न पाया हो। विना गुरु का । निगूरा । समान --विद्यापति, पृ० २८ । ३ लघु यी हुन्व (वर्ग) । अगेला--संज्ञा पुं० [सं० अग्र+हिं० एला (प्रत्य॰)] १ आगे वाली अगरु’---संवा पुं० १ अगर वृक्ष । ऊद । २ शीशम की पेड। मठिया जिन्हें नीच जाति की स्त्रियाँ कलाई में पहनती है । अगुवा - सच्चा पु० [हिं०] दे॰ 'अगा ' । उ०---अगुवा भयर से इसको उन्नटा ‘पटेला' है। २. हुनका अन्न जो मातै । बुरहान् । पथ लाइ मोहि दीन गियान् ।----जामसी ग्र०, पृ० ८ । समय भूसे वैः साध माने जा पता है और जिसे हल बाहे प्रादि अगुकानी+--सम्रा स्त्री॰ [हिं०] दे॰ 'अगवानी'। ले जाते है । | अगंसरना(0--क्रि० अ० [ स ० अग्रसरण ] अग्रसर होना । अागे अगह-वि० [सं०] जिसे घर द्वार न हो। गुह्रहित । वैठिाने का। वइन । उ०--एक पर न सो अगुसरई ।--जायसी (शब्द॰) । उ०—अकुल अगेह दिगवर व्याली !-—मानस, ११७२ ।।