पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/१५४

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अगस्त्यकूट ক্ষটি ज्वर में दिया जाता है। पत्तियां इमकी रेचक हैं। पत्ती अगहनी--सुझा स्त्री॰ वह फसल जो अगहन में काटी जानी है। और फूल के ग्स की नास लेने से विनाम फूटना, सिर दर्द जैसे जडहन धान, उरद इत्यादि । उ०--जब लों पृथिबड़े हैं तब पर ज्वर अच्छा होता है। प्रॉम्बो में फून को रम टालने से लो बौना और नोना, शादी और गमी, अगहनी और वैशाखी, ज्योति बढ़ती है। इसके फूलों की तरकारी र प्रचार भी दिन और रात बद न हागे ।---वीर म०, पृ० १६५ । वनती हैं। अगहर+--क्रि० वि० [स० था, प्रा० अग+ हि० हर (प्रत्य॰)] ४ शिव का एक नाम [को॰] । १ अगे। २ पहले 1 प्रथम । उ०--राजन दौवा रयिमनि, अगस्त्यकूट---संज्ञा पुं० [सं०] दक्षिण मद्रास प्रात में एक पर्वत जिससे बाईं तरफ अडोल । उमगत अगर जुझ को तकित प्रति भेट ताम्रपर्णी नदी निकली है ।। गोल ।--लाल ( शब्द॰) । अगस्त्यगीता--सना ब्री० सं०] महा भारत के शाति पर्व में अगस्त्य अगहाट--सा पुं० [ मे० अग्राह्य अथवा स ० अग्रहार] वह भूमि जों अपि द्वारा कथित विद्या [को० ] । किसी के अधिकार में चिरकाल के लिये हो श्रीर जिसे वह अन्नग अगस्त्यचार--सज्ञा पुं० [सं०] अगस्त्य तारे का मार्ग [को०१।। न कर सके । अगस्त्यतीर्थ-सा पुं० [सं०] दक्षिण भारत का एक प्रसिद्ध तीर्थ- अगहार--महा ५० [हिं०] दे० ' अग्रहार' । स्यान [को॰] । अगहँड'---वि० स० अग्ने पा० अग्- हि० हुँड (प्रत्य॰)] अगर । अगस्त्यमार्ग--सज्ञा पुं॰ [स०] दे॰ 'अगस्त्यचार' [को॰] । अागे चलनेवाला । उ०-- विलोके दरि तें दोउ बोर । मन अगस्त्यवट--सज्ञा पुं० [सं० ] हिमालय पर स्थित एक पवित्र स्थान अगहुँडे तेन पुलकि सिथिल भयो नलिन नयन भरे नीर । का नाम [को॰] । ---तुलसी ग्र०, पृ० ३४६ ।। अगस्त्यसहिता--सच्चा स्त्री० [सं०] अगस् य द्वारा प्रणीत घमं विपयक अगड-क्रि० वि ० अागे । अागे की शोर । 'पिहुँड' का उलटा । एक ग्रंथ [ को०]। उ०--कोप भवन सुनि मकुचेक राऊ। मय वन अगहुँड पर न अगस्त्य-संज्ञा पुं० [सं० अगस्त्य हरीतकी | कई द्रव्यों के सयोग' पाऊ |---तुलसी ( शब्द०) । । से जिनमें हरे मुख्य है, बनी हुई एक आयुर्वेदिक औषधि जो अगा'–वि० [सं०] न चलनेवाली [को०) । । खाँसी, हिचकी, सग्रहणी अदि रोगों में दी जाती हैं। अगा-क्रि० वि० [ स० अर ] अगे। पहले 1 30---मवत कहा अगस्त्योदय-सज्ञा पुं० [सं०] १ भाद्रपद के शुक्ल पक्ष में अगस्त्य चेत रे रावन अव क्यों खात दगा । कहत मैदोरि सुनु विय नामक तारे का उदय । २ भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की रावन मेरी बात अगा |---सूर०, ६।१४४ । अगाई।---वि० [स० अग्र, हिं० आई (प्रत्य० }] अागे । पहले । उ० सप्तमी [को०] । अगाई सो सवाई (--घाघ० पृ० ७४ ।। अगस्थ -~मझा पुं० [हिं०] दे० 'अगस्त्य' १ । उ०—-मुगता तठे कर अगाउनी' -क्रि० वि० [हिं०] दे० 'अगीनी-१' । उ--मुरली मृदगन सनमाने, या अगस्थ रे असथान ---रघु० रू०, पृ० १२४ । | अगाउनी 'भरत स्वर भावती सुजागरे भरी है गन गरे ।-देव अगह---वि० [सं० अग्राह्य ] १ न पकडने योग्य । हाथ में न आने ( शब्द॰) । लायक । उ०—अलह को लहना, अगहे को गहना -- अगाउनी-मल्ला सी० दे० 'अगोनी-२' । दरिया बानी, पृ० ६७ । २ च च ल । उ-माधव जू ने अगा -क्रि० वि० [हिं०] दे॰ 'अगाऊ' । उ०—न्हनि समें जब मेरी हटको गाये । निसि वाशर यह भरमति इतं चत अगह गही लखे तव साज ले वैठत अनि अगाऊँ ?--भिखारी० ग्र०, नहिं जाय |--सूर (शब्द०)। ३. जो वर्णन और चिंतन के भा० १, पृ० १२३ ।। वाहर हो । उ०--कहें गाधिनदन मुदित रघुनदन सो नृषगति | अगाऊ'---वि० [सं० अग्र, प्रा० अग्ग+हिं० श्राऊ (प्रत्य०) *१. अगह गिरा न जाति गही है ।--तुलसी (शब्द॰) । ४. न अग्रिम । पेशागी । जैसे, 'उमे कुछ अगाऊ दाम दे दे (शब्द०)। धारण करने योग्य । कठिन । मुश्किल । ३०---ॐघर जो तुम २ (0 अगला । अगं का। उ---धरि वाराह रूप रिपु मारमा हुमहिं छतयिो । सो हम निपट कठिनई करि करि या मन को ले छिति देत अगाउ ।--सुर० (शब्द॰) । समुझायो । योग याचना जवह अगह गहि तवही सो है स्यायो । ऋगाऊ' (७)---क्रि० वि० १ अगे। पहले । प्रेम । उ०—(क) कविरा सूर (शब्द०) । ।। करनी अपनी, कबहूँ न निष्फल जाप । सात समुद्र प्राहा पर अगहन--संज्ञा पुं॰ [सं• अग्रहायण } प्राचीन वैदिक क्रम के अनुसार मिले अगाके प्राय |--के चीर (शब्द०) । (ख) 'उग्रसेन भी वर्ष का अगला वा पहला महीना 1 मार्गशीर्ष । मंगसिर । उ०-~ सब यदुवरियों समेत गाजे बाजे से अगाऊ जाय मिले' |-- अगहन अम्मर देखेउ जुग जुग जीवें सोई ।-जग० ०, भा० लल्लू० (शब्द॰) । २. प्रगा है। मैं । अागे से । ३०—(क) २, पृ० ६५ ।। साखि सखा सब मुवन सुदामा देखि घाँ' बुझि वोलि बलदाऊ । विशेष----गजरात आदि मे यह क्रम अभी तक है, पर उत्तरी यह तो मोहि बिझाइ कोटि विधि उलट विवादन प्राइ अगाऊ । भारत में गणना चैत्र मास से आरंभ होती है । इस कारण - सुलमी ग्र०, पृ० ४३८ । (ख) कोन कोन की उत्तर दी | यह नुव मास पडता है । ताते भग्यो अगाऊ ।--मूर ० (शब्द॰) । अगहनिया--वि० [ सू० अाग्रहायणीफ ] अगहन में होनेवाला । अगाड़ि-सा मुं० [सं० १, प्रा० अग्र+हि० प्रा (प्रत्य॰)] १. अगहनी'-- वि० [सं० अप्रहामणीय ] अगहन में तैयार हुनेवाला । । हुक्के की दो दो या कुहनी में लगाने की, संधी नसी जिसे मुंह में |