पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/१५३

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अगवान अगस्त्यै अगवान--संज्ञा स्त्री॰ [सं० अप्र+हिं० वान] १• आगे से जाकर लेना। अगसरना --क्रि० अ० [हिं० दे० 'अगुसरना । अगवानी । अर्थना । उ०—-महाराज जयसिंह जय में सिह के अगसार(७)---क्रि० वि० [हिं०] दे॰ 'अगसारी' । समान, निरयान समय जासु गग लीनी अगधान 1--रघुराज अगसारी –क्रि० वि० [ स० अग्रसर ] अागे । सामने । उ० -हस्ति ( शब्द०)। २ विवाह में कन्यापक्ष के लोगो का घरात की के जूह प्राय अंगशारी। हनुवंत तवै लैमूर पसारी ।---जायसी अभ्यर्थना के लिये जाना । उ०—लं अगवान वरातहि श्राए । ०, पृ० ११६ ।। दिए संबहि जनवास सुहाए ।—मानस, १६६ । अगस्त'.--सज्ञा पुं० [अ० औगस्ट, } रोम के सम्राट् श्रीगुम्टस् के क्रि० प्र०—करना ।—लेना । —होना । नमि पर चलाया गया अग्रेजी का आठवाँ महीना जो भादो में पड़ता है। अगवानी--सच्चा स्त्री० [सं० अग्न-+हि० वान] १. अपने यहाँ आते हुए। किसी अतिथि से निकट पहुचने पर सादर मिल ना! मागे बढ़कर अगस्त--सम्रा पुं० [झ ० अगस्त्य] १. अगस्त्य ऋपि । उ०—-मघवानल लेना । अभ्यर्थना। पेशवाई । २ विवाह में जब बारात लडकी वहि प्रगिने सम्गनी । अगिन अगस्त साखवित पानी ।--हिंदी वाले के घर के पास आती है, तव कन्यापक्ष के लोग सज धज प्रेमा०, पृ० २७५। २ अगस्य तारा। उ०--उदित अगस्त कर वाजे गाजे के साथ आगे जाकर उससे मिलते हैं । इसी को पथ जल सोपा। जिमि लोभई सोख सतीपा |--तुलसी अगवानी कहते हैं। इ०--निवरानि नगर घरात हरषी लेन (शब्द॰) । ३ अगस्त्य वृक्ष। उ०—फुल करील कली पाकर नम् । फरी अगस्त की अमृत सम ।--सूर०, १०1१२१३ ।। अगवानी गए ।---तुलसी ग्र०, पृ० १३५ । अगस्ति--संज्ञा पुं० [सं०] १ अगस्त्य तारा । उ०--उए अगस्ति । अगवानी --सम्रा पुं० [सं० अग्रगामी ] अागे पहुंचने वाला व्यक्ति । हस्ति घन गाजा । तुरै पलानि चढे रन रजा ।—जायसी ग्र०, दूत । उ०—(क) सखी री पुरनता हम जानी । याही ते अनुमान पृ० ३५६ । २ अगस्त्य ऋपि । ३०--हुत जो अपार विरह करति है षट्पद से अगवानी -सूर०, १०५४०३६। (ख) दुख दोखा । जनहुँ अगस्ति उदधि जल सखा । —जायसी अगवानी तो आइयो ज्ञान विचार विवेक । पीछे हरि भो ग्र ०, पृ० ३४० 1 ३ अगस्त्य या वैक वृक्ष (को॰) । आयेंगे भारी सौंज सभेक |--कवीर (शब्द०)। अगस्तिद्--सच्चा पुं० [सं०] अगस्ति या वक वृक्ष [को०] । अगवानी--सझा पुं० प्रागै रहनेवाला। भगवा। पेशवा । उ०- अगस्तिया- सझा पुं० [ स० अगस्ति ] दे० 'अगस्त्य ३' । ३०--द्वेज विरह अथाह होत निसि हुम की विन हरि समुद समानी । सुधा दीधिति कला वह लखि दीठि लखाई । मनौ अकास यो करि पावहि विरहिनि पारहि विनू केवट अगवानी ।-- अगस्तिया एक कली लखाइ ।--विहारी २०, दौ० ९२ ! सूर०,१०५३२७१ ।। अगस्त्य-सच्चा पुं० [सं०] १. एक ऋषि का नाम जिनके पिता अगवार -सञ्ज्ञा पुं॰ [सं० अग्न+हि० वार (प्रत्य॰)] १ खलिहान में। मित्रावरुण थे । अन्न का वह भाग जो राशि से निकालकर हलवाहे आदि के विशेष---ऋग्वेद में लिखा है कि मित्रावरुण ने उर्वशी को देखकर लिये अलग कर दिया जाता है। २. वह हल्का अन्न शो कामपी हित हो वीर्यपात किया जिससे अगस्त्य उत्पन्न हुए । प्रोसीने मे भूसे के साथ चला जाता है । ३ गाँव का चमार । • सायणाचाय ने अपने मप्य मे लिखा है कि इनकी उत्पत्ति एके ।। अगवार--सच्चा पु० दे० 'अगवाडी'। उ०—-वेऊ अाये द्वारे ही हैं, हुती घटे में हुई । इसी से इन्हें मैन्नावरुणि, श्रीवंशेय, कृभज, घटोअशवारे और, द्वारे अगवारें कोऊ ती न तिहि काल में 1--- भव अौर कुभसंभव कहते है । पुराणों में इनके अगस्त्य नाम पद्माकर ग्र०, १० २०० । पटने की कथा यह लिखी है कि इन्होने बढ़ते हुए विंध्य पर्वत । यी--अनवरि पछवार । को लिटा दिया । अत इनका एक नाम विध्यकूट भी है । पुरणि । अगवाह--वि० [ सं० अग्र+वाह ] आगे पहुँचानेवाला । पहले पहुँचने के अनुसार इन्होंने समुद्र को चुल्लू में भरकर पी लिया था वाला। उ०---‘कपित स्वर लहरी अत्मनिवेदन की सहज जिससे ये समुद्रचुलुक र पीतान्धि भी कहलाते हैं। कहीं कहीं स्निग्ध कमनीयता के भगवाह रास्ते को अनायास ही पकड पुराणों में इन्हे पुलस्य का पुत्र भी लिखा है। ऋग्वेद में इनकी लेती' !--नई पौध, पृ० १११।। अनेक ऋचाएं हैं । अगवैया--वि० [सं० अग्र + हि० वैया (प्रत्य॰)] २ एक तारे या नक्षत्र का नाम । आगे आगे चलनेवाला। किसी के अगिमन की पूर्वसूचना देनेवाला । उ०-~-अभी विशेष--यह भादो में सिंह के सूर्य के १७ अश पर उदय होता माघ भी चुका नहीं पर मघु का रिवीला अगवैया कर उन्नत है। इसका र ग कुछ पीलापन लिए हुए सफेद होता है। इसका शिर ।--इत्यलम्, पृ० २०६। उदय दक्षिण की अरि होता है इससे बहुत उत्तर के निवासियों अगब्यूति--वि० [सं०] जहाँ पशुओं को चरागाह न हो । बजर [को०]। को यह नहीं दिखाई देता । अाकाश के स्थिर तारों में लुब्धक को छोटकर दूसरा कोई तारा इसकी तरह नहीं चमचमाती । अगसत--सपा पुं० 1 हि० ] दे॰ 'अगस्त्य' । उ०—- अकिल गुरु यह लुब्धक से ३५° दक्षिण है। अगसत है, सिख समुद मन लान |--रज्जव०, पृ० €। ३ एक प्रसिद्ध पेडे । अगस)---क्रि वि० [ स० अग्रसर ] अगे। पहले । उ6--अगसर विशेष—यह पेड कैची र घेरेदार होता है। इसकी पत्तियाँ खेती अगसर मार। कई घाघ ते कबहूँ न हार ।--धाघ ०, सिरिस के समान होते हैं । इसके टेढ़े मेढे फुल अघंचद्राकार, १० ४१।। लाल और सफेद होते हैं। इसके छिलके का काढ़ा शीतला अर .