पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/१५२

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

अगवान अगरु–सुझा ० ( स० अगुरु ] अगर न कडी । ॐदै । उ०—अगर देखनै हो रह गए (शब्द०)। ३ पूर्वज। -पुरखी ( बहु० व० में चंदन की चिता यी मेज |--साकेत, पृ० १६८। । | ही प्रयुक्त ) । जैसे--जो अगले करते हैं उमै करना चाहिए अगह-सी पुं० [सं०] दे० 'अगर [को०]। | (शब्द॰) । अगरे--क्रि० वि० [सं० अग्रे ] नामनै। आगे। उ०—क्षेला द ह मुहा०---अगले पिछल' को 'रोना = पूर्वजों और लाद के नाम र ।। कहें तेहि कस अंगरे होइ ।—जायसी ( शब्द० )। रोना या मानम करना । उ०—-खाक अच्छा गाती है। गाती हैं या अगरेल-वि० [हिं० अगर +ऐल (प्रत्य०) ] अगर संवर्घ । अगर रोती हैं अपने अगले पिछलों को डायन' --सेर कु०, पृ० २० । की । उ०- -रवि मैन जवणी, घ0 अणद चक्की । मग ४ अपने पति को सूचित करने के लिये स्त्रियो द्वारा प्रयुक्त | देन सूरमा, वाम गरेल महक्क ।-- ० ८०, पृ० १७३ । शब्द। ५. करन फूल के आगे लगी हुई अजी५। ६ गाँव और अगरो--वि० [सं० अग्र] १. अगला । प्रथम। २. बढ़कर । श्रेष्ठ। उसकी हुद के बीच में पड़नेवाले खेतो का समह् । , उत्तम । “उ०—सूर सनेह ग्वारि मन अटक्यो छाँडहू दिये परत अगलू णा७}--वि० [सं० अग्र, प्रा० अग्ग, ( राज० गली + कणा नहि पगरी। परम मगन हृ रही चितै मुख सब ते भाग यही (प्रत्य०) = वाली) ] अागेवाली । पूर्व की । उ०--जिण को अगरो ।--सूर (शब्द॰) । ३. चतुर । दक्ष । निपुण । ४. दिन ढोलड प्रावियउ तिण अगलूणी रात। मारू सृहिणउ लहि अधिक। ज्यादा । उ०——योजन बीस एक अरु अगरी डेरा कह्य, सखियाँ से परमात |--ढाला०, ५०१। इहि अनुसान । ब्रजवासी नर नारि अत नहि मानो सियु समान। अगवड-सज्ञा पुं० [हिं० ] दे॰ 'अगढ'। --मूर (शब्द०) । अमवढ-सहा पुं० [हिं०] दे०,‘अगढ' । अगचे---प्रव्य० [फा० अगरचे ] दे॰ 'अगरचे' । ३०---अगचे उम्र की अगवन --संज्ञा पुं० [सं० आगमन] दे० 'आगमन'। दस दिन से लव रहे खामोश । सुखन रहेगा सदा मेरी कम अगवना--क्रि० अ० [हिं० श्रागै+ना ] कोई काम करने के लिये जवानी का ----कविता को०, भा० ४, पृ० १७२ । उद्यत होना। आगे बढ़ना। अगर्दम--सच्चा पुं० [सं०] खच्चर [को० ] । अगवनिहरवा--वि० [हिं० अगवा ] किसी को बुलाने के लिये प्राया अगर्व--वि० [सं०] गवं या अभिमान से रहित । निरभिमान । हुप्रा । उ०—मतगुरु पठवा अगथनि हरबा --कवीर श०, | सीधा सादा।। | मा० ३, पृ० ४६ ।। अगहत--वि० [सं०] १. जो गहित या निंदित न हो ।२ शुद्ध [को०]। अग 1. अगवाँई-सच्ची पुं० [हिं० अगुश्रा ] उo-इसमइिल राजेंद्र गुसाई । ग्रगल'--क्रि० वि० [ स० अग्रत , प्रा० अग्गल ] १ श्रागे। उ०-~ सफदरजग भये अगवाई ---सुजान०, पृ० १४१ । यकायक कहे काफि साय चला अबू जहल अाया नवी के । अगवाँई+--सच्चा लौ० [हिं० अगवानी ]'दे० 'अगवाई। अगन्न !---ददिबनी ०, पृ० ३४६।। अगवाँसी-सल्ला क्षी० [सं० अग्रवासी ] १ हुल की वह लकडी जिसमे अगल -वि० [प्रा० अरगल ग्रधिकः । ज्यादा । ३०--सब तीन फान लगा रहता है । २ हलवाहे को पैदावार में से अशरूप में वरप्प अमी अलि । --१० २०, ५९५५ । मिलनेवाली मजदूरी। अगल बगल--क्रि० वि० [फा०1१ दान पाश्र्व में। दोनो ओर। अगवा क्रि० दि० [सं० अर ] अागे । अगाडी । उ०.-हरि ज की गैल दोनों किनारे । २ इधर उधर । आमपाम् । यह मेरी पर अगवा सौ, ह्या हुवै कढ़े चाही मोहि काम घनो अगलहिया--से। जी० [देश॰] एक चिडिया। घर को 1--ठाकुर०, पृ० २।। अगला--विर [ सं अग्र, प्रा० अग्गल ] [स्त्री भ्रगली] १ अागे का। अगवाईसच्चा बी० [सं० अग्र = मागे +हि० अवाई] अगवानी । अभ्य सामने का । अगाह का। पिछला का उलटा। जैर-~-घोडे र्थना। प्राग से जाकर लेना। उ०—अगवाई के हेतु कुँवर के का अगला पैर नफेद है (जन्द०)। उ०- -वह अगला समतल , सव नर नारी 1--बुद्ध च०, पृ० १८०।। जिमार हैं देवदारु का कानन ।--कामायनी, पृ० २७६1 अगवाई-सज्ञा पुं॰ [ स० अग्रगामी ] आगे चलनेवाला व्यक्ति । अगुवा। २ पहले क। पूर्ववर्ती। प्रथम । उ०--ग्रावे रिंगमाह हूँ । | अग्रसर । अगली मुह याद । -रा० ९०, पृ० ३५०1३ विगत समय अगवाडा-सा पुं० [सं० अग्रवाट् अथवा अप्रवर्त्त (प्रत्य०) ] घर के का 1 प्राचीन । पुराना । उ०—-रेखते व तुम्ही उम्ताद नहीं हो अागे का भाग । द्वार के सामने की भूमि । पिछयादा शब्द का गालिब। कहते हैं अगले जमाने में कोई मीर भी था।---कविता । उलटा। कौ०, मा० ४, पृ० १२२ । अगवान --मण पुं० [सं० शग्र -हि० धान । अयना प्रादि के यौ०–अगले समय । अगले लोग। मूल में स्थित द्विधातु का अश ) ! १ अगवानी या अभ्यर्थना ४, आगामी । अानेवाला । भविष्य । जैसे--में अगले माल वहाँ करनेवाला क्ति। अागे से जाकर लेनेवाला व्यक्ति। २ जाऊँगा ( शब्द०)। ५ अपर। दूसरा। एक के बाद का । विवाह में कन्यापक्ष के वे लोग जो वरात का आगे बढ़कर जैसे---‘उससे अगला हमारा घर है' (जन्द०)। स्वागत करते है। उ०---(क) अगवानन्ह जव देखि बराती । अगली-सच्चा पुं० १ अगा। अग्रगण्य । प्रधान । जैसे--‘थे मब बातो उर अनिद पुलक भर गति ।-—मानस, १५३०५ । (ख) सहित में अगले बनते हैं। (शब्द॰) । २ चतुर आदमी । चालाक । चरत राउ सनमाना। येसु माँगि फिरे भगवाना --- चुस्त पादमी । जैसे--अगला अपना काम कर गया, हम लोग मानस, १३०६ ।