पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/१५१

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अगर अगरी से विकती हैं। यह रस जितना अधिक होता है उतनी ही विशेष---इसमे अगर तथा कुछ और सुगधित वस्तु पीसकर लपेटते । लकडी उत्तम र भारी होती है । पर ऊपर से देखने से यह हैं । इसका व्यापार मद्रास र ववई में बहुत होता है । नहीं जाना जा सकता कि किस पेड़ में लकड़ी अच्छी निकलेगी । अगरवाला--सझा पुं० [ हि० अगरोहावाला, प्रागरेवाला 1 [ी। विनी माग पेद कोटे इसका पता नही लग सकता । एक अगरवालिन] वैश्यो की एक जाति जिसका आदि निवास दिल्ली से पश्चिम अगरोहा नाम की स्थान कहा जाता है । अग्रवाल । प्रच्छे पेड़े में ३००) तक का अगर निकल सकता है। पेड का । हल्का भाग जिसमें यह रस या गोद कम होता है, 'दूम' । अगरसार--संज्ञा पुं॰ [ सं० अगरु + सार ] अगर । ऊद । कहलाता है और सस्ता अर्थात् १) २) सेर विकता है, | ऋगरा --वि० [सं० अग्न ][ौ० अगरी ] १ अगला 1 प्रथम । पर असली काली काली लकडे, जो गोद अधिक होने के कारण। अगुश्रा । उ०--सुर स्याम तेरी अति गुननि माहि अगरौ ।-- सूर० १०॥३३६ । ३ वढा चढा । बढकर । श्रेष्ठ । चत्तम् । भारी होती हैं, 'गरकी' कहती है और १६) या २०) सेर उ०-हम तुम सव एक वैस काते कान अगरी । लियौ दियौ विकती हैं । यह पानी में डूब जाती है । लकडी का बुरादा धूप, दसाग आदि में पड़ता है । ववई में जलाने के लिये इसकी सोई कछु डारि देहु झगरी ।---सूर ०, १० ३३६ । ३. अधिक । ज्यादा । वडा । भारी । ४, उग्र । ५ अग्निम् । पेशगी । अगाऊ । अगरबत्ती बहूत बनती है । सिलहट में अगर का इन्न बहुत । ३०-वैल लीजे कजरा, दोम दीजे गरा-घाघ, पृ० १०७) बनता है। चोवा नाम व सुगधित लेप इसी से बनता है ।। अगरा --सच्चा पुं० । मे० आकर ] खान । अकर। उ०-~-सूरदास अगर--सा पु० [सै० प्रक्षर ] अक्षर । वर्ण । हेर्फ (डि) । उ०--- उठारे सहज जवार असुमरा लड़े हरि चापडे मार लीधा । प्रभु सव गुन्नि अगरौ ।--सूर० (राधा०), १ ५६ ।। । उचार दघ अगर र ।---रघु० रू०, पृ० १३१ । अगरा--सा पुं० [हिं० शेंगरा ] रगरी। अंडवड वात । अनुचित अगर--सज्ञा पुं॰ [सं० अगर टि० अगर] अागार। गृह । उ०- व्यवहार । ३०-दल्ल कहा अगर कह कीजै । सहिद वचन मानि जे सँसार अँधियार अगर मे भए मगनबर।--का० कौमुदी १,।। के लीजे ।--सत दरिया, पृ० ५। अगर---अव्य [फा०] यदि । जो । उ०----उसे हमने वहुन ढूंढा न । | अगराई-सज्ञा स्त्री॰ [ हि० अगरना ] आगे होने का भाव । अग्रता । पापा । अगर पाया तो खोज अपना न पाया।--ओर०, ५० श्रेष्ठत्व । उ०—गोविद गृपाई यही माँगत हौं गाद गेह गिरा १, पृ० ४१२ । अगाई गुन गरिमी गगन को ।--धनानद पृ० १६४ । मुहा०--अगर मगर करना = (१) हुज्जत करना । तर्क करना ।। अगरान--सा पुं० [हिं०] पीला लिए हुए लाल रग का घोडा जिसमे | (२) प्रोगा पीछा करना । सफेदी विशेप न झलकती हो । उ०—खुरमृज नोकिरा जरदा अगर"--क्रि० वि० [म० अग्र, प्रा० अगर ] आगे । जैसे 'अगरज' भले । म अगरान बालसिर चले |----पदमावत, पृ० ५१६ । | में 'ग्रगर ।। अगराना१७)--क्रि० स० [ देशी ]१ अधिक स्नेह या दुलार के अगरई---वि० [हिं० अगर ई (प्रत्य॰)] श्यामता लिए हुए सुनहले कारण किसी को धृष्ट बनाना। सदलो रग का। अगर के रग का । अगराना’----क्रि० प्र० स्नेहाघिय में ढिाई करना । । अगरच–अव्य० [फा०1 गो कि । यद्यपि । हरचंद । वादजद कि । अगराना 19-क्रि० अ० हिं०] दे० 'अगडाना' । ३०--कावा अगरचे टूटा क्या जाय गम है शेख |----कविता अ सा सल्ला ५° [ में अग्र श्रेशन | ८० ' अग्रा की०, भा० ४, पृ० ९८ । | ‘सास को दिखाने के लिये विल्लेसुर रोज अगरासन निकालते अगरज--सझा पुं० [ स० अज ] दे॰ 'अग्रज । उ6--ताही ते अगरज थे |--विल्ले० पृ० ८४ । भयउ सव विधि तेहि परचार 1--स० सप्तक, पृ० ४३ । | अगरी'---ज्ञा स्त्री० [सं०] १ एक प्रकार की घास' या पौer जो चूहे अगरजानी–वि० [सं० अग्र --ज्ञानी 1 पहले से ही भिंसी बात को प्रादि के विप को दूर करता हैं। देवताडे । २ विष हरनेवाला ममझने या जननेवाला । अगमजानी । उ०---ए में अगर जानी कोई भी द्रव्य [को०] । अदम की बात काटने का नतीजा सारा गाँव भोग रही हैं। अगरी’--सा जी० [ स० अर्गला, अर्नलिका 1 लकडी या लोहे का छोटा मैला० १० ३७४ 1 हुडा जो किवाड के पल्ले में कोढा लगाकर डाला रहता है । अगरनाg f-क्रि० प्र० [सं० अग्र ] अागे होना । आगे जाना। इसके इधर उधर खींचने से विवाह म्यूलते र बद होते हैं । अगाडी बढना। आगे प्रागे भागना। उ०-~-प्यारी अगरि चल किल्ली । व्योड । हरि धाए । पकरि न पावत पैर थकाए |--गिरधरदास अगरी --मझा मी० [ वैः अग्र ] फूम की छाजन का एक ढंग जिसमें (शब्द॰) । जड ढाल या उतार की ओर रखते हैं । अगरपार--सा पुं० [सं० अग्र ? 1 क्षत्रियों की एक जाति । ३०- अगरी*-- सच्चा स्त्री॰ [सं० अगीय = अवाच्य ] १ अड वड बात । क्षत्री ) बनवान बनी । अगरपार चहान चंदेली ।—जायसी, बुरी बात । अनुचित वात । २ ढिठाई। धृष्टता । (शब्द॰) ।। अगरी"--संज्ञा स्त्री० [हिं० अगरना] अमराई हुई दात । स्नेह के अगर वगर --- क्रि० वि० [हिं० ] दे॰ 'अगल बगल' ! कारण धृप्टना से की हुई क्रिया उ०-'इरि दई फटकार अगरबत्ती--सच्चा डी० [सं० प्रगवत्तिका 1 सुगध के निमित्त जलाने के हरि करत हैं लेंगरी । नित प्रति ऐसई ढग करे हमस कदै । पतली सीक चा वत्ती । अगरी --सूर० (शब्द०)।