पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/१४५

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अखेटक अखाढ अंखाढ ---सा पुं० [हिं०] ६० 'अपाढे'। उ०—-मास अबाढ उन्नत अखिल--वि० [सं०] १. संपूर्ण । समग्र । विनकुन्न । पूरा । सत्र । नवमेघ -विद्यापति, पृ० १३१ । उ०--अखिल विश्व यह मार पाया !--मानम, ७/८७ । अखति-सहा पुं० [ पु० ]१ बिना खोदा हुशा स्वाभाविक २ सवगपूर्ण । प्रवड । उ०--तुमही ब्रह्म अखिले अबिनासी जलाशय । ताल । झील । २ खाडी । ३ मनुष्य द्वारा निमित। 'भक्तन सदा सहाय --सूर (शब्द०) । ३ जी अपृष्ट या विना ' जलाशय [को॰] । जोता हुआ न हो । खेती के योग्य (को॰) । अखात-वि० बिना खोदा हुअा [को॰] । यी--अखिल विग्रह = समग्र विष्व जिसका शरीर हो, ईश्वर । अखाद--वि० [हिं०] दे॰ 'अखाद्य' । ०--खाद अखाद न छाँडे छाछ अखिलात्मा--संवा पुं० [सं०] समग्र विश्व जिमकी अामा हो । लावा. अब लौं सव मैं साघु कहावै ।---सूर०, १।१८६ ।। विवाहमा । ब्रह्म [को०]। अखाद्य-वि० [सं० 1 १ न खाने योग्य । अभक्ष्य, जैसे, गामास । अखिलिका--ससा सी० [सं॰] एक वनस्पति । करेल [को॰] । भादि । २ खाने की वस्तु से भिन्न (को॰) । अखिलेश--सा पुं० [सं०] समग्र सृष्टि का स्वामी । ईश्वर (को०]। अखाधिG--वि० [ अखाद्य, प्रा० अखादिम ] दे० 'अखाद्य' । उ०-- अखिलेश्वर--सा पु० [सं०] दे० अखिलेश' । उ॰—-मग सती जग की ब्रह्म शान होये मेमन मथन करे खाधि अखाधि सनचा। जन भवान। । पजे fafa pluvaर जानी 1-मानस. १४८। -सं० दरिया, पृ० १२१ । अखीन--वि० [सं० अक्षीण, अयपी ! न छ'जुनेवाला । अखानी-सखा स्त्री० [सं० अखान +हिं० ई (प्रत्य०) ] एक टेडी घडी न घटनेवाला । चिस्थ यी । अविनाश । नित्य । स्थिर । या लकडी जिससे देवरी या गल्ला पीटने के समय खेत से उ.-खसमहि छाडि छेम है रहई । हुण्य प्रवीन परमपद कटकर अाए हुए हठलो को बीच में करते जाते है । गई |--कबीर ( शब्द० ) । अखार--सपा पुं० [सं० अक्षा, १०, प्रा० अखे = घुरो + हि० र अबीर-मा १० [अ० अखीर ] १. प्रत । छ र । २ ममाप्ति । ( प्रत्य० ) 1 मिट्टी का छोटा सा लोदा जिसे कुम्हार लग चाके अखीर --वि० खत्म। समाप्त। उ०—-अपीर ही गए गफलत में दिन , के बीच में रख देते हैं और जिसपर थाय। उखकर नरिया जवान। ३. धरे उच्च है! प य विज नही मालूम ।विता | उतारते है। | को०, भा० ४, पृ० ३८० ।। अखार --सक्षा पुं० [हिं० अखाडा] दे० 'अख।४।' उ०--नट नाटक । पतुरिन को वाजा । अनि अखार सवै तहँ साजा --पदमावत, अखीरी'--वि० [अ० अखीर+ई (प्रत्य॰)] दे॰ अाखिरी', अखीरी' q-- वि० [हिं०] १८ 'अखिरी' । उ०—-एक अखीरी कार अखारना--क्रि० स० [सं० अक्षालन ] चारो अोर से अच्छी तरह | जपीला, सुनि अस्थूल दोइ वाणी !- गोरख०, १०१।। धोना; जैसे अखारना, पखारना । अग्युटना]---क्रि० प्र० [सं० % प्रा+y६ोट ( १ ), प्रा० ४ खोट अखारा--सा पुं० [हिं० ] दे० 'अखाडा' । --तहाँ देखि असर खुट (ला०) अथवा देश॰] लडखडाना । उ०-खुटत परत सु अखारा। नृपति कछु नहि वचन उचारा |--सूर०, ९१४॥ विह्वल भय, डरत रत सूती गृह गयौ --नद० ग्र०, १०२३१ । अखित -सम्रा पुं० [हिं०] दे० 'अक्षत'। उ०--दिम श्रखित संस अखटित--वि० [सं० अ +: कुण्ठ, प्रा० अखुट, अछुट, अथवा । केदार सागे }---पृ० ०,५६ ६१ । । सं० अ = नहीं + vोट = हाय, प्रा० ३ अखोट >अखट + इत अखिद्र---वि० [सं० ] जो थका न हो। खेदरहित [को०] । ' (प्रत्य०) ] लगातार । अनवरत । निरतर । उ०--प्रवृटित अखिन्न--वि० [सं०] १ खिन्नतारहित । खेदविहीन । उ०—सके त २टत सभीत ससकित, सुकृत शब्द नहि पार्यं ।--सूर०, १॥४८ ! जस आर कुडल। छिन्न भिन्न ।-अना- अखुट-- वि० [सं० अ + Vखुड्= तोडना अथवा स० अखोड, प्रा० मिका, पू० १२५ । २ पलेशरहित । दु ख रहित । ३ , अष्टुडु, अखुड़> अजूट ] १ जो तोही या खडित न किया प्रसन्न। विमल । उ०-- तेहिं प्राढोक्ति कहे सदा जिन्ह की वृद्धि , जा सके । अटट । उ० ---सात दीप सात सिघु थरक अखिन्न । -- भिखारी० ग्र०, भा० ३, पृ० ४६।४ अषात ।

थरक करे जाके हर दृटत खुट गढ राना के ।--अकबरी, अकेलात (को॰) ।

पृ० १४३ । २ जो न घटे या न चुके । अख४ । अक्षय । अखियात --- सज्ञा पुं० [सं० प्रख्यात] एचर्य । अचभा । ३० --- बहुत । घधिक । उ०---(क) नैना प्रतिही लोभ' भरे। संगहि ए अखियात जु उघि थाउध, सजे रुकम हरि छेद सोजि -- सग रहत वै जहें तहँ वैठत चलत खरे, । काहू की परतीति ने ' वेलि०, दू० १३३। मनित जानत सवहिनि चोर। लूटस रूप मखुटे दाम को स्याम अखियात’ --वि० १ प्रसिद्ध । अख्यिात । उ०--अखियाँ बात घस्य यों भोर ।-- सूर०, १०।२८८४ । (ख) झूठ ने कहिए बचे जरा काले डर छ ।--बाँकीदास ग्र०, मा० ३, पृ० सन को सच न कहिए झूठ। साहवे तो मानै नही लागै पाप ।। ४६ । समस्। सब । सपण । उ०—रिण पहिया प्रम रखि अखट !--ददि (शब्द॰) । अभंग अखि यात उवारे ।--रा रू०, १० ३८।३ दे० 'अक्षय' अखेट -सबा पुं० [सं० पखेट] दे० 'अखेट' । ३०-मुन्नी के उ०—-पात सुजस अखियति पयर्प दातव असमर वात दुवै |-- अखेट सो करे, विपय भोग जीवन सहर ।--सूर०, ४१२। रघु० रू०, पृ० १६ । | , अखेटक(५)--सा पुं० [सं० अखेटक ] ३० 'आखेटक' । ३ :-(क) अखिर --वि० [सं० अर, प्रा० अवखर, अखिर+हि० ई एक दिवस को अखेटक गयौ, जाइ अदिका बन तिय भयो । (प्रत्य॰)] अक्षरवाला। थोखर। उ०--प्यड ब्रह्म'डे सम तुलि सूर०, ६९।२। (ख) इक दिन राव अखेटक घमी, बिरही व्यापीले, एक ऋषिरी हम गुरमुषि जणी --गोरख०,१०१०१ । मृग मारन रिस भरघो ।--नद० प्र० १० १४० । ।