पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/१४३

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अख ६३ ३०-सुरा अमीस दीन्ह वह साजू । वह परताप अखंडित अवनकुमारी --वि० सी० [सं० अक्षीस, अदाय --कुमारिका | कुमारी । जिसकी कौमार्य भग न हुआ हो । उ०—सुदर सबही राजू । --जायसी ग्रं०, पृ० ३२ । ४ लगातार। अनवरत । सिलसिलेवार । उ---(क) धार अखडित वरमत झर झर । सौं मिली कन्या अखनकुमारि । वेश्या फिरि पतिव्रत लियौ कहत मेघ घावहु व्रज गिरिवर }--सूर०, १०1९३९ । (ख) भई सुहागन नारि ।--सुदर० ग्र०, भा० २, पृ० ७५५ । उमडी अँखियान प्रखडित घार 1---कोई कवि (शब्द०)। अखना(५'--क्रि० स० [हिं०] १० माखना' । उ०----माद चरण की कला अख–सन्ना पु० [देश॰] वा । बगीचा ( हिं० ) । अठारह अरट गीत कवि मऊ अखे |--रघु० ०, प० ६२ । अखगर--पक्ष) पुं० [फा० अगर ] चिनगारी । अग्निकण । स्फुलिग । अखनी--सच्चा स्त्री॰ [ म० यखनी ] मास को रसा। शोरया । उ० उ०--अखगर को छिपा राख में मैं देख के समझा । 'ता' अपनी वटि वामति मास परे । ठिबास सुवासिनी पाभ भरै }-- तो तहे खाक भी जलता ही रहेगा !---कविता की, भा० ४, पृ० रा०, ६३।१०० । पृ० २१८ ।। अखवार-सज्ञा पुं० [अ० खवर का बहु० ] १ समाचारपत्र 1_सवाद अखगरिया-सुच्चा पु० [फा० अस्गर + हिं० इया (प्रत्य०) ] वह घोडा पत्र । उ०—-खीचो न कमान का न तलवार निकालो । जब | जिसके बदन से मलते वक्त चिनगारी निकलती है । तोप मुकाबिल हैं तो अखबार निकालो |--कविता कौ० विशेप---अस्वशास्त्र या शालिहोने के अनुसार ऐसf घोडा ऐवी भा० ४, पृ० ६२० । २' दे० 'खबर' । उ०—-हँगे इम ताब में समझा जाता है ।। वहूत अखबार । कुछ मैं लिखता हूँ इनसते यार |---दविखनी०, अखज---वि० [ स० अखाद्य; प्र ० अखज्ज ] १ न खाने योग्य । पृ० २१८ ।। अभक्ष्य । उ०——झख मारत ततकाल ध्यान मुनिवर सो घारत । अखवारनवीस--सज्ञा पुंर ग्रि० अवार, फा०+नवीस वह जो समाविहरत पख फुलाय नहीं खज अखज विचारत ।--दीन० ग्र०, चार लिखता हो । लमाचार लेखक 1 समाचारपत्र संपादक । पृ० २०९ । २ नि कृप्ट । बुरा । खराव। उ०--वैरागी अस पत्रकार । च बताऊँ। तजे अखज तव हृस कहा 1--कवीर सा। अखबारनवीसी--मुझ स्त्री० [अ० अररबार + फा० नयीस ] शेखवरपृ.० २२१ । । नवीस का काम । पत्रकारिन। [को०] । अखट्ट---संज्ञा पुं० [सं०] प्रियल का पेड [को०] । अखवारी--वि• [ अ० अरदार + हिं० ई (प्रत्य०) ] अखबार सवधी। अखट्ट--सज्ञा स्त्री॰ [ स०] १ अशिष्ट व्यवहार । २ वचपन की अखवार का [को॰] । | वात [को० ] । अखय--वि० [सं० अाय, प्रा० अवख्य ] जि सका क्षय न हो । न अखडा-- सज्ञा पुं० [सं० अखात] ताल के बीच का गडहा जिसमें मछ - छ।जनेवाला। अविनाशी । नित्य । चिरस्थायी । उ० -खसमहि लियाँ पकडी जाती हैं। चंदवा । छोडि छेम है रहई । होय अखीन अखय पद गहई।– वीर अखत --सज्ञा पुं० [हिं० अखाड़ा+ऐत (प्रत्य०) ] मल्ल । (शब्द॰) । पहलवान। बलवान पुरुप । उ०---जंगा जीत तपोबल जालम ओप अखयकुमारी --वि० सी० [सं० अक्षयकुमारी] दे० 'अखनकुमारी'। बड़े अखडेत।-रघु० रू०, ६२।। | उ ०-- माह मास स य प अति सार। समजती धन अखये। अखड़े त+--वि० अखाडा में कुश्ती लडनेवाला जोर करनेवाला । कुमारि ।--वी० स० पृ० २१ । । अखाडिया । । अखयवद --सञ्ज्ञा पुं० [सं० शृदयिवट दे० 'अक्षयवट'। उ०—सगम अखत--वि० [सं०अति विना टूटा हुआ । अक्षत । सपूर्ण । समग्र । सिंघासन सुठि सोहा । छर्न अखयबट मुनि मन मोहा -- उ०---गिणजे सद ज्योरी जिंदगाणी, उभे विरद धरियाँ मानस, २५१०५।। खत ।--रघु० रू०, पृ० २४ ।। अखर --सा पुं० [सं० अक्षार; पा०, प्रा० अक्खर अक्षर । वर्ण । अखतियार ७t-- सज्ञा पुं० [अ० इख्तयार] दे॰ 'इख्तियार उ०-- हैफ । उ०-म द प खर ए मध्य तज झ ट क अत मत आणि ।--रघु० ६०, पृ० ६ । अव नाटक करनेवालों को अखतियार है कि सव नटिक हिंदी अखर ---वि० दे० 'अक्षर' । । भापा में करें चाहे हिंदी, उर्दू, मारवाडी और ब्रजभापा मे । | अखर-सच्च स्त्री० [हिं० अरइरन 1 अखरने का भाव या स्थिति । करें। --श्रीनिवास 7 ० (नि०), पृ० १०) अखती :---- सज्ञा स्त्री॰ [स अक्षय तृतीया, प्र० अवय--तइया, ते य] ३०--‘ह, सदूक खोलकर लाना कोई कठिन काम न हीं । अखर तो उसे होती है जिसे : कुश खोदना पडता है }-- । अक्षय तृतीया । उ०—–अखती की तीज तजवीज के सहेली । काया, पृ० ३० । जूरी, बर के निकट ठाढी भावते को घेर के । ठाकुर, । अखरताली--सल्ला स्त्री॰ [ सं० अौर + तल ] हस्ताक्षर । इस्तलेख । पृ० १७ ।। अखरना--क्रि० अ० [सं० खर= तीव्र, कट] १ । दुखदाई होना । अखतीज--सज्ञा स्त्री॰ [ सं• अक्षय तृतीया' प्रा० अक्खय-तइया, तीय] कटकर होना । उ० ---चहचहू चिरी धुनि कहकई घेकिन अक्षय तृतीया, 1 अखातीज ।। । की घघह पनसोर मुनते अखरिहै ।-भिखारी ग्र०, अखत्यार--मज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'इम्तियार' । उ०---'हम तो प्रज्ञा- । । भा० १, पृ० २२६.1 २. वुर लगना । खलना। उ०-- कारिणी दासी ठहरी, हुमारों का अखत्यार है'।--'भारतेंदु ग्र०, ‘चिट्ठी लगाना सत्तादीन की स्त्री को अवता ।'---बिल्वे मा० १, पृ० ४४७ । पृ० १६ ।