पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/१३८

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अंधानैपुण्य ७७ • अक्षयवेट । _ अक्षनैपुण्य--सज्ञा पुं० [सं०] अक्षकुशलती । अवकाशल [को०]। अमापक-पक्का पुं० [सं०] ग्रह नक्षत्री के निरीक्षण का यत्न । अक्षपटल-- सच्चा पुं० [सं०] १ न्यायालय । २ न्यायसवधी क गज [को०] । । । पत्र रखने का स्यान। ३ न्य कता। न्यायाधीश । ४ अामाला----सच्चा स्त्री० [सं०] १ रुद्राक्ष की माल । २ 'अ' से 'क्ष' अभिलेखो ( रेकाईस ) को सुरक्षित रखने का स्थान १,५" अक अक्षरों की वर्णमाला। ३. वशिष्ठ की पत्नी अरुघती । वहे कायलिय या स्थान जहाँ अाय व्यय ग्रादि का विवरण अक्षमाली--वि० [सं०] ज रुद्र क्ष की माला धारण करे । रखा जाय [को॰] । अक्षमाल-सच्च पु० -शिव को०) । अक्षपटलाधिकृत- सच्चा पुं० [स०] राजकीय अभिलेखे पत्रादि का तथा अक्षम्य--वि० [सं०] जिसे क्षमा न किया जाय । क्षमा के अयोग्य । आय व्यय अदि का निरीक्षण करनेवाला प्रधान अधिकारी। । उ०——'यह तुम्हारा अक्षम्य अपराध है' ।---स्कद०, पृ० ८२ । [को०] । । अक्षय-वि० [सं०] १ जिसका क्षय न हो। अनुश्वर । सदा बना अापटलिक-सज्ञा पुं० [सं०] दे॰ 'अक्षपटलाधिकृत' (को०] । रहनेवाला । व मी न चुकने वाला । २ कल्प'तस्थायी । यल्प अपराजय--सा पुं० [सं०) जुए की हार। जुए में हार [को०] । के अन तक रहने वाला । उ०--दिवा रात्रि या मिते वरुण की अपरि--सा पुं० [सं०] हार को पासा। पासे की वह स्थिति जिससे ' वाला है। अक्षय शृगार |--- मायनी पृ० ३६ । हर सूचित हो। अक्षय --सा पुं० १ परमात्मा । २ सन्यासी । ३ दरिद्र । ४ एफ अक्षा पाट–सन्न पुं० [म०] १ जु ।खाना । दृतगह। २ अखाडा । । ।, युग जिसमें किया हुअा पाप या पुण्य का नापा- नहीं होती म• शाला (को०)। [को०]1 - , अपाटक--सच्चा पं० [म.] न्यायाधीश । धर्माध्यक्ष [को०], अदायकुमार -सच्चा पु० दे० 'अक्षकुमार' । अक्षपात--सञ्ज्ञा पुं॰ [स०] पासा फेकने । डालने का कार्य (को०] । अक्षयगुण 'सझ--पुं० [सं॰] शिव (को०] । अधापातन---सज्ञा पुं० [सं०] दे॰ 'अक्षपात' (को०)। अदायगुण--वि०॥ क्षय न होनेवाले गुणों से युक्त [को० ]। अपाद--सज्ञा पुं॰ [सं०] १ सोलह पदार्थवादी ।। न्यायशास्त्र के अक्षयता--सच्चा स्त्री॰ [सं०] नाश या क्षय का अभाव [को०]। प्रवर्तक गौतम ऋषि । । । । । अक्षयत्तूणीर-सा ५० [ सं• ] ऐसा तरकस जिसके बाण कभी विशेप--ऐसा कहा जाता है कि गौतम ने अपने मत का खंडन समाप्त नही होते ।' उ०--'अक्षय तृणीर, अक्षय कवच' सब करनेवाले व्यास का मुख न देखने की प्रतिज्ञा की थी। पीछे लोगो ने सुना होगा, परतु इस अक्षय मजूपा का हाल मेरे सिवा से जव व्यास ने इन्हें प्रसन्न किया तब इन्होने अपने चरणो में |'। कोई नहीं जानता।--स्कद०, पृ० १७ !' नेत्र करके उन्हें देखा अर्थात् अपने चरण उन्हें दिखलायो । अंक्षयतृतीया--सह्मा जी० [सं०] वैशाख शुक्ल तृतीया । अखि तीज। इसी से गौतम का नाम अक्षपाद हुग्रा । 'सतयुग के प्रारंभ की तिथि । २. ताकिक । नैयायिक । । विशेष--इस तिथि'को'लोग स्नान, दान आदि करते हैं। सतयुग अदापीडा--सज्ञा श्री० [सं०] १. इद्रियों की वा शरीर की डि।।। का आरभ इस तिथि से माना जाता है। यदि इस ' तिथि को २ एक लता । यवतिक्त लना [को०]। कृत्तिका व रोहिणी नक्षत्र पडे तो वह बहुत ही उत्तम समझी अप्रिय--वि० [स०] जुग्रा) । जुग्रावाज [को० ]। || जाती हैं। । । । । अक्षव--संज्ञा पुं॰ [सं०] वह विद्या जिससे आसपास के लोग कुछ देख अक्षयत्व—सद्मा पुं० [सं०] दे॰ 'अदायत' [को०]। । । । अक्षयधाम--सा पुं० [सं०] १. वैकुठ। २ मोदी [को॰] । नहीं सकते। नजरबदो । अक्षयनवमी--सा स्त्री० [सं०] कातिक शुक्ल पुथा -की नवमी । अधाभा---सज्ञा सौः [सं०] अक्षाश की छाया [को०]1 • विशेष----इस तिथि को लोग स्नान, दान अादि व रते है । वेता युग अदाभाग-- सज्ञा पुं० [सं०] अक्षाश का विभाग [ को०]। • “की उत्पत्ति इसी तिथि से मानी गई है। अदाभार--सजी पुं० [सं०] गाडी का बोझ [को० ] । अक्षयनीवी--सा सी० [सं०]'स्पायी दान वा निधि ।। वह मूल संपत्ति अदभूमि---संज्ञा स्त्री० [सं०] जुआ खेलने का स्थान [को०.] । । जिसका ब्याज मात्र व्यय किया जाय। उ०-साथ ही श्रीमती ग्राम---- वि० [सं०] १ समोरहित । असहिष्णु ! २ असमयं । अशक्त । । " ने यह इच्छा प्रकट की कि इस सवघ्र में हिंदी मे, उत्तमोत्तम लाचार। ३ ईष्यल (को०)। ग्रथो के प्रकाशन के लिये एक अक्षय नीवी की व्यवस्था का भी ग्रामता--सज्ञा स्त्री॰ [सं०] १ क्षमा का अभाव। असहिष्णुता । २० सूत्रपात हो जाये |--मु० दे०, परिचय, पृ० २ । ईप । डाह् । ३ असामर्थ्य। - * - - - अक्षयपद-सज्ञा पुं० [सं०] मोक्ष [को०] श्रीमद--संज्ञा पुं० [सं० 1 जुम खेलने का ध्यसन 'यो उत्साह (को०]। अायपुरुहूत----सज्ञा पुं॰ [सं०] शिव का एक नाम Jफो०]। - । अामा--सज्ञा स्त्री० [सं०] १. अधैर्य । अधीरता। २. 'क्रोध । रोप । अदायलोक--संज्ञा पुं० [सं०] स्वर्ग। वैकुठ [को॰] । ३ ईय। डाह । ४ असमर्थता । लाचारी [ के० ]। अक्षयवट-सज्ञ। पु० [सं०] प्रयाग अर गया में एक बरगद का पेद।। श्रद्दामा-वि० क्षमा रहित [को० ] । विशेष----यह प्रक्षप इस लिये कहनाता है कि पौराणिक भाग अक्षमात्र- सज्ञा पुं० [सं०] निमेष । निमिष [को० 1 । । । । इसको नाश प्रलय मै भी नहीं मानते ।। | |