पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/१३७

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

अक्लेश अक्ष पुर्ण अक्लेश--सा पुं० [सं०] क्लेश' का अभाव । क्लेशहीनता (को०] 1 अक्षणिक---वि० [सं०] १ दृढ । स्थिर। स्थायी । ३ जो क्षणिक न अक्लेश’--वि० क्लेशरहित [को॰] । हो [को॰] । अक्षतव्य-वि० [सं० अक्षन्तव्य ] क्षमा न हो सकने योग्य । जिसे अक्षत-वि० [सं०] क्षत या घाव से रहित । व्रणशून्य । उ०— क्षमा न किया जा सके। क्षमा न करने योग्य । अक्षम्य । 'ब्राह्मण को कभी नहीं मारना पर मव घन व वेचकर अक्षत उ०--यह सुदर ग्रंथावली टीका टिप्पणी, जीवनचरित्र, केवल राज से बाहर कर देना चाहिये' ।—-4निवास ग्र०, भूमिका, चित्रादि सहित अक्षतव्य विलब' और दीर्घसूत्रते। पृ० १० । २ विना टूटा हुआ। अखदिन। सवगिपूण । के साथ सामने आई है' 1--सुदर० प्र०, मf० १, (भू०), समूचा । पृ० २०२।। अक्षत --संज्ञा पुं० १ विना टूटा हुआ चावल जे देवता की पूजा में अक्ष--सा पुं० [सं०] [स्त्री० अक्षा] १ खेलने का पास।। २ पास का चढाया जाता है। २ धान का लावा । ३ जी । ४ कोई भी खेल। चौसर । ३ छकडा । गाडी । ४ किसी गोल वर के घान्य (को०)। ५ हानि या अश में का अभाव के कल्याण बीचोबोच पिरोया हुआ वह छड यो दड जिस पर वह वस्तु । (को०)। ६ शिव (को०) । ७ हिजडा (को॰) । घूमती है। घुरः । ५ पहिए की धुरी । ६ वह कल्पित स्थिर अक्षतत्व--सज्ञा पु० [सं० अक्षतत्त्व] चूत । द्यूत विद्या । जुया [को॰] । रेखा , पृथिवी के भीतरी केंद्र से होती हुई, उसके आर पारे । अक्षतयोनि-वि० सी० [सं०] जिसका पुरुप में संसर्ग न हुआ है। दोनो ध्रुवों पर निकलती है और जिसपर पृथिवी घूमती हुई, अक्षतयोनि--सज्ञा स्त्री० १ वह वन्य जिमका पुप से समग न हुआ मानी गई है । ७ तराजू की डाँड । ६. व्यवहार । मामला। हो । ३ वह कन्या जिसका विवाह हो गया है। किंतु पति से मुकदमा। 6 इद्रिय । १०, तूतिया। ११ सौगा। १२ समागम न हुआ है। श्रख । नैन । उ० एक कह्यो अनुमानि करि एक देखिए अंदा । अक्षतवीर्य.--यि० [स०) जिसका वयंपात न हुआ है। जिसने स्त्रीसुदर अनुभव होई जव तव देखिए प्रत्यक्ष 1--सुदर ग्र०, भा० । ससर्ग न किया हो। २, पृ० ८१४। १३ बहेडा। १४ रुद्राक्ष । १५ साँप । १६ गरुड । १७ प्रात्मा ।१८. कर्प नाम की १६ माशे की एक तल । अदा | अक्षतवीर्य-संज्ञा पुं० १ शिव। २ क्षया भाव । ३ नपुसव । पुत्व विहीन (व्यंग्य) [को०] । १६ जन्मध। २० रावण का पुत्र अक्षयकुमार। उ० –रूग्व निपात खात फल रक्षक अक्ष निपाति ।-तुलस ग्र०, पृ० अक्षता'-वि० [सं०] जिसको दुरुप से सयोग न हुआ हो । २८ 1 २१ सर्चल या सोचर नमक ( को०)। २२ कानून अक्षता--संज्ञा स्त्री॰ १ वह स्त्र जिसका पुरुप से सयोग न हुआ हो । ( क )। २३. चूत (को०) । २४ ज्ञान (को०) । २५ नोप २ घर्मशास्त्र के अनुसार वह पुनभू स्त्र, जिसने पुनर्विवाह का एक मान (को०)। २६ किसी मदिर का निचला हिस्सा तक पुरुषसंयोग न किया हो ! ३ काकडामार्ग । (को०)। २७ शिव (को०)। अक्षत्र--वि० [सं०] १. क्षत्रियरहित। २ राजाहन वि॰] । अक्षक--संज्ञा पुं० [सं०] तिनिश का वृक्ष (को॰] । अक्षदड-मज्ञा पुं० [सं० अक्षदण्ड] धुर। [को॰] । अक्षकर्ण--संज्ञा पुं० [सं०] समकोण त्रिभुज में समकोण के सामने की अक्षदर्शक--सज्ञा पुं० [सं०] १ धर्माध्यक्षा । न्यायाधीश । न्यायवत । भुजा, विशेपतया धूपघड़ी के लिये वनी त्रिभुजाकृत कर्ण रेखा, २ चूत क्रीडा का निरीदक (को॰) । जिसकी छाया से समय का पता लगता है (ज्यो० ) 1 अक्षकाम---वि० [स०] जिसे द्यूतक्रीडा प्रिय हो । द्यूतप्रिय [को॰] । अक्षदाय--संज्ञा पुं० [सं०] पासे के दूसरे के हाथ में देना [को॰] । अक्षदृक--सज्ञा पु० [सं०] दे॰ 'अादर्शक' [को॰] । अक्षकितव--वि० [सं०] झूत कुशल [को०]। अक्षदेवी --वि० [सं०] जुआ खेलनेवाला । जुअरी । । अक्षकुमार-मज्ञा पु० [सं०] रावण का एक पुत्र जिसे हनुमान ने लका को प्रमोदवन उजाडते समय मारा था । अक्षयूँ--सज्ञा पु० [सं०] चूत ! जुआ (को॰] । अक्षद्युत-मज्ञा पुं॰ [सं॰] दे॰ 'अदाछू' (को॰] । - अक्षकुशल---वि० [स०] जुआ खेलने में प्रवण। द्यूतकुमाल [को०)। अक्षयूतिक--मज्ञा पुं॰ [सं०] द्यूतक्रीडा में होनेवाला झगडा [को०] । अक्षकूट-मज्ञा पु० [सं०] आँख की पुलली । अक्षितारा [को॰] । अक्षकोविद--वि० [स०] दे॰ 'अक्षाकूशल' [को०], . असदुग्ध-वि० [सं०] १ जुए के कारण तिरस्कृत। २ जुए में अस फल रहनेवाला। ३ जुए द्वारा ठगनेवाला [को॰] । अक्षक्रीडा----सज्ञा स्त्री॰ [सं०] १ पासे का खेल । चंसिर-चपड । २. अक्षद्वार--संज्ञा पुं० [सं०] धुरी का सुराख [को०]। । द्यूतक्रीडा (को०)। अक्षधर-वि० [स०] चक्र या धुरा को घारण करनेवाला [को०]। अक्षचक्र--सज्ञा पु० [स०] इद्रियों का समूह [को०]. । अधर--सज्ञा पु० १. पहिया। २. एक वा । शाखट । सिहोर। अक्षज-सज्ञा पुं० [सं०] १ हीरा । २. वय। ३ प्रत्यक्ष ज्ञान। ४. ३. विष्ण। ४. चक्र या पासे को धारण करनेवाला व्यक्ति | विष्णु [को॰] । [को०]। अक्षण--वि० [स०] असमय । अनवसर [को॰] । अक्षधुर--सम्रा पुं० [सं०] पहिए की घुरी। अक्षणा–क्रि० वि० [स०अधणी ( अक्षि का तृतीय एष व )] अाँख अक्षधूर्त--वि० [र०] दे० 'क्षकुशल' [को०] । द्वारा। उ०--सुनै न कान र क दृशै न और अदाणा- 'अक्षधूतल--सा पुं० [सं०] वृप । बेल (को०) ।। सुदर० प्र०, भा० १, पृ० २५।। असने पुण-समा पुं० [सं०] ३० अक्षनैपुण्य [को०] । 1आँख काल का०]' चपड ।