पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/१३२

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|| ॥ अकृपालु अकृच्छ—मा पु०, [ म० ] १ क्लेश का अभाव । २ मानी । अकृता--सा झी० [सं०] वह न की जो पुत्र के अधिकारवानी गान || मुगमता । अम कोच । । ली गई हो । अकृच्छ--वि० १ क्लेशणून्य । जिसे किमी प्रकार का संकोच या अकतात्मा--वि० ( म० 1 अपरिव पतिवाला । प्र । अमयते । काष्ट न हो । २ अासान । सुगम । उ०---‘दह गा वा तेज हैं, प्रकृतात्मा उसे धारण नहीं कर ।। अकृच्छ--वि॰ [स०] कठिनाई र भैप या घबराहट में मुक्त । लैश पाते' ।--भा० ई० ८०, ५० ६६५।२ ब्रह्म को न जानने विदीन ( को० ]। वाना । जो ब्रह्मज न हो (को०)। ।। प्रकृत--वि० [सं०] १ विना किया है । असपादित । २ अन्यथ।। अकृताभ्यागम-- सुद्धा पुं० [स०] विना विए हु कर्मफन किया हुआ । अडबंड किया हु ग्रा । विगाहा हु म । ३ जो किसी। की प्राप्ति । का बनाया न हो। नित्य । स्वयम् । ४ प्राकृतिक । ५ जिसकी विशेष.-न्या या प्रावि में 2 zu plना शशा है । कुछ करनी या करतून न हो। निकम्मा । बैकाम । कर्महीन । अकृतार्थ-वि० [म०] १. जिसका व यं न हुआ हो। जिम कार्य पूरा बरा | मद । उ०--नाहीं मेरे और कोउ वल, चग्न व मल न हुप्रा हो। अमृतकार्य । २ जिसको कुछ फल में मिला हो । दिन ठाउँ । हौ' असच, अमृत, अपराधी ममुख होत लजाउँ ।-- फल से वचित । फ नरहित । ३ काय भे अदक्ष । अपटू । सूर (शब्द०) । ६ कच्चा । ग्रपक्व ( भोजन ) ( को० ) । अकुशल । ७ प्रविमिन । जो बिक्रमिन न हो (को०)। अकृतार्थता--सज्ञा स्त्री० [म०] असफलता। दिफलना। ३०--'अमत| अकृत-सज्ञा पुं० १ कारण । २ मोक्ष । ३ स्वभाव । प्रकृति । । कता पलालक्ष्मी का अपमान करती हैं और कन्नालष्टमी जो पूर्ण न किया गया हो। अधूरा या अर्ण कार्य (को०) ।। उमा बदला अमृतार्थता देकर लेती है ।'--टैगोर० पृ० ४१ । अकृतवार--क्रि० वि० ऐसे ढग से जो पहनै न किया गया हो [को०]। अकृतास्त्र--वि० [स०] जो अस्त्र का प्रयोग करने में कुशल न हो अकृतकार्य--वि० [स० अ + कृतकार्य = मफन] असफल । विफल । [को॰] । । उ०--‘चावी मुझे कहीं मिली नही । अतकर्य होकर मैं बेचैन । अकृतित्व--सज्ञा पुं॰ [सं०] अकर्मण्यता [को०] । हो आई' ।--सुखदा, पृ० १६६ । | अकृती'--वि० [ स० अकृतिन् ][ मी० अफूतिना काम न केरने ये 1 । अकृतकाल--वि० [सं०] अधि या गिरवी के दो भेदों में से एव ।। नि ममा । उ०--कहाँ जयं, या वारे,, प्रभ गे अगुती ॥ छ जिसके लिये काल नियत न हो । जिसके लिये कोई समय या ये ?--साकेत, पृ० ४०५ । । मियाद न बांधी गई हो। बेमियाद । अकृती--सज्ञा पुं० वह प्रादमी जो किसी काम नायक न हो। निमा मनप्य । विशेप---धर्मशास्त्र में श्राधि या गिरवी के दो भेद किए गए गए हैं। अकृतैनस् -वि० [म०] निष्पाप । निरपराध [को॰] । जिनमे एक अद्युतकाल है अर्थात् जिसका रखनेवाला वस्तु के अकृतोद्वाह-वि० [सं०] अविवाहित [को० } छुड़ाने के लिये कोई अवधि नहीं दधता । गैरमियादी ( रेहन ) । अकृत्त---वि० [सं०] जो 'इटा न हो। जिममे कोई काट छट न की गई। अकृतचिकोप ( सधि )---सज्ञा स्त्री० [सं०] साम अदि उपायों से हो [को॰] । नई संधि करना तथा उसमे छोटे, बड़े और समान राजाओं अकृत्य-सच्ची पुं० [सं०] बुरा काम । अपराध । के अधिकारों का उचित ध्यान रखना ।। अकृत्य-वि० जो करने योग्र न हो । अरणीय [ को ० ]। अकृतज्ञ--वि० [म०] १ जो कृतज्ञ न हो । किए हुए उपकारों को जो अकृत्यकारी-वि० [सं०] अष्ट्रय करनेवाला। दुष्कर्मी [को॰] । न माने । कृतघ्न । नाजुकरी ।२ अधम । नीच । अकृत्रिम–वि० [सं०] १ अपने आप उत्पन्न । प्रकृतिसिद्ध । वै वना।। क्रि० प्र०—होना । वटी । प्राकृतिक । नैसर्गिक । स्वाभाविक । २. असलः । सच्चा। अकृतज्ञता--सझा बी० [सं०] उपवार न मानने का भाव । कृतघ्न-f। यथार्थ । वास्तविक । ३ हार्दिक। अतरिक । जैसे---'हमारा नाशुकपन । उसके ऊपर अकृत्रिम प्रेम है।' (शब्द०)। क्रि० प्र०--करना--होना । अकृत्स्न -वि० [सं०] जो पूरा या समग्र न हो। अपूर्ण [को०] । अंकृतधी-वि० [म०] अपरिपत्र बुद्धि वाला [को०] 1 अकृप---वि० [सं०] कृपारहिन । निर्दथे । निष्ठुर (को॰] । अकृतवुद्धि-वि० [सं०] अनजाने । अश ! अपरिपक्व बुद्धि । उ०— असहाय ( महायको--मत्रियो–से रहित ), मूड, लुच्छ, अकृपण --वि० [म०] जो कृपण या जस न हो। उदार [को॰] । प्रतिबद्ध भीर विषयासक्त ( राजा ) उग (द) वा न्याय अकृपणता--सपा जी० [सं०] गृपणता या अशाच । उदारता को०]। में संचालन नहीं कर सकता' |--भ० इ० ०, पृ० ९६५ । अकृपा-सपा स्त्री० [म०] पृपा का प्रभाव । कोप । ग्रोध । नाराजी । अकृतवुद्धित्व--ससा पुं० [म०] अज्ञान । अज्ञना [को॰] । उ०० "पश्चिमोत्तर प्रदेश पर अधिपतर पर मैथिर फी भगृपा अकृतव्रण--वि० [स०] जिसे घाव या व्रण न हों [को०] । प्रतीत होती है ।'--प्रेमधन , भा॰ २, ५० ५१ । अट्ट तशल्क- वि० [सं०] १ जिराने महसूल या चुगी न दी हो । २. अकृपालु--सा पु० [सं० प्र + कृपालु] जौ कृपान न हो । पारहित । जिसपर महसूल न लगा हो (माल) । निर्दय । उ०--दीनवघु दूसरी बहू पावों ? प्रभु प्रगृपाल,