पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/१२८

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अकामतें अका अकामता-सा औ० [सं०] काम या इच्छा फैा अभाव (को०] ।। अकारण--क्रि० वि० विना कारण कै । बेसबवे । व्यर्थे । अनायास। अकामनिर्जरा-सा स्त्री० [सं० ] जैन मत के अनुसार तपस्या से जो निष्प्रयोजन, जैसे--‘क्यो अकारण हँसते हो ?' (शब्द॰) । निर्जरा या कर्म का नाश होता है उसके दो भेदों में से एक । अकारता--वि० दे० 'अकारथ' । । यह निर्जरा सर्व प्राणियों को होती है क्योकि उन्हें बहुत से अकारथ --वि० [सं० अकार्यार्थ प्रा० अकारयय्य, अरग्रथ] वैवम् । क्लेश को विवश होकर महना पडता है। - निदफल । व्यर्थ । निरप्रयोजन । फजुल । ३०--विना व्याई यह अकामहत--वि० [ सं०] जो काम से प्रभावित न हो । प्रक्षुब्ध । । ।' तपस्या अकारथ होती है ।—सदल मिश्र ( पाब्द० )। शत [को॰] । जो काम से आहत न हो। को०] । । । क्रि० प्र० करना |--होना ।। अकाम'-- वि० सी० [सं०] ( स्त्री ) जिसमे काम का प्रादुर्भाव न ही अकारथः--क्रि० वि० व्यर्थ । बेकार । निष्प्रयोजन । फजुल । वैफा| हो । यौवनावस्या के पूर्व की ।। । यदी। उ०---स्वारय हू ने किया परमारथ यो ही अकारथ अकामा--सच्चा सौ० कामचेष्टा से रहित स्त्री । । । । वैस बिताई }-पदमाकर ( शब्द०)। अकामी-गि । सं० अकामिन् ] | स्त्री० प्रकामिनी ] १. कमिन क्रि० प्र०•-खोना |--ारना = व्यर्थ ही गलाना या नष्ट करना । रहित । इच्छाविहीन । निस्पृह । जिसे विसी बात की प्रकिाक्षा - उ०----प्राछो गात अकारथ गरियो। करो न प्रीति कमललोचन न हो । नि स्वयं । उ०--भजामि ते पदावुजम् । अकामिना सो जन्म जया ज्यो हारयो ।—सूर ( शब्द० ) --जाना । उ०—दिन गये अकारथै सगति 'भई न सत |--कवीर स्वधामदम् । —तुलसी (शब्द॰) । २ जो कमी न हो । । '५', ( शब्द० ) । जितेंद्रिय । । | 'अकारन ७--वि० दे० 'अकारण' । उ०—जिमि च कुशल अकारन अकाय---नि: [सं०] १ दिन] शरीरवाला । देहरहित । उ०---सत्त। कोही --मानस, १५२६७ ।। पुरुष एक रहै अकया। अस तास सोइ निरगुन अाया।-- ।. नया “* अकारना --क्रि० स० दे० 'करना' । उ०---करि साधन इह साम, घट०, पृ० २७४ । २ अशा रीर । शरीर में धारण करनेवाला । व्याधि नापत फल धारिय। गुरु उपदेसह पाइ, सकल अधीम जन्म न लेनेवाला । ३ सुपरहित ! निराकर। उ०---मगत , । अकारिय |--१० रा०, ६।२६ । वामन रूप धरि परत भयौ अव यि । सत्त धर्म सच छाँहि के । अकारात--वि० [सं० अकारान्त] जिसके अंत में 'अ' अक्षर हो [को॰] । घरयो पीठ पे पाय।--नद० ग्र०, पृ० १८१ ।। अकारादि-वि० [सं०] 'अ' वर्षों से प्रारंभ होने वाला [को॰] । अकायिक--वि० [ सं• अ +हायिक ] शरीर से सवघ न रखनेवाला ।। अकारी -वि० [सं० प्र + कारिन्] १. अनर्थ करनेवाला । अनर्थ उ०---आज अव्यभिचारिणी निज़ भक्ति का वरदान दो तो, ५ 'फारी । उ०-!- गौर मुप्प वपु स्याम गिरन सम नख्य अकारिय । निज अपार्थिव अति अकायिक लेह को स्मरदान दो तो 1-- | ---पृ० २०, २२८७ । २ तीक्ष्ण (हिं०) । उ०—ारंभ अति अपलक, पृ० ४६ । । । । । । फौज अकारी दिल्लीपति पूगी रह्यारी --राज १०, पृ० ५६ । अकार--सया पुं० [सं०] अक्षर 'अ' । ।। अकार्पण्य१-.-सच्चा पुं० [सं०] १. कृपणता का अभाव । २ दीनता का अकार--संज्ञा पुं० [सं० प्रकार] आकार । स्वरूप । प्राकृति । उ०— १ पु० [सं० प्रकार] कार स्वरुपात 9 अभाव [को॰] । |दिना प्रकार रूप नहि रेखा कौन मिलेग माय |--कवर श०, । अकार्षण्यवि जो निम्न म टीना flm fe भी ० १, पृ० ७४।। . [को०] प्रकार--वि० [सं० अ + हि० कार के कार्य ] क्रियारहित [को०]।। | अकाय'--'समा पुं० [सं०] १ कार्य का प्रभाव । अकाज । हर्ष। अकारक मिलाद-सा पुं० [सं० अकारक +हि० मिलाव ] ऐसा ।। । हानि । २ बुरा कार्य । कुकर्म । दुष्कर्म । रासायनिक मिश्रण यो मिलावट जिसमें मिली हुई वस्तु के अकार्य–वि० १, जिसका कोई परिणाम न हो। फलरहित । पृथक् गुग्ग बने रहे और ये अलग की जा सके। २. अकरणीय । न करने लायक ।। अकारज---सुझा पुं० [सं० प्रकार्य ] कार्य की हानि । हन । अकार्यचिता--सुक्षा स्त्री० [सं० अकार्यचिन्ता ] अनुचित कार्य करने नकसान । हजं । इ०--(क) अपि मरज अपनी करत कुमगत का सोचविचार । अपराध करने की मनोवृत्ति [का०]। साथ । पायं कुल्हाही देत है मूरख अपने हाथ -संभाविलास, ग्रेकाल-सी पुं० [सं० ][ वि० अकालिक ] १. अनुपयुक्त समय । (शब्द॰) । (ख) ताते न मान समान , अकारज जाको अनुि । अनवसर । अनियमित समय । ठीक समय से पहले या पीछे का । दो अधिकारी, देव कहैं कहि हित की हरि जू सो हितू न । समय । उ०-- ते रहि, हौ हा सखि ! लखौ, चढि न अटा, । । कहूँ हितकारी |--देव (शब्द०) 1' ।। वलि वाल। सबहिनु दिनु ही ममि उदय, दीजतु अरघु प्रकारा--वि० [सं०] १. बिना कारण का 1' हेरहित । विना वजह ।। अकाल ।—बिहारी र०, दो० २६८ ॥२ . दुष्काल। दुनिस । का, जैसे, 'संसार मे अकारणं प्रीति दुर्लभ होती हैं !--- : महँगी । ३ हत। जैसे-'भारतवर्ष में कई बार अकान पर (शब्द०)। उ०--‘तात !..कहाँ थे? इस बालक पर अका- । । चुका है।'--(शब्द॰) । रस क्रोध करके कहाँ छिपे थे?--स्कद०, १० ७८ । २. 1 क्रि० प्र०—-पड़ना ।। जिसकी उत्पत्ति का कोई कारण न हो । जो किसी से उत्पन्न ३. घाटा । अत्यधिक, कमी । न्यूनती । जैसे - यहाँ कप | न है। स्वयंभू । । । । । 'अकाल नहीं है ।- (शब्द॰) ।४. अशुद्ध समय | ज्यो•}। ।