पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/१२७

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राव अहु -केअर अकह–वि० [ स० अकथ, प्रा० अकह ] न कहने योग्य । जो कही अकाज-क्रि० वि० [ हि० अ+ काल ] व्यर्थ । विना कम । न जा सके । अकथनीय । अनिर्वचनीय । अवर्णनीय । ३०-- निष्प्रयोजन । उ० --वीति जैहे वीति जैहै अनम अकज । रे । नहीं ब्रह्म, नहिं जीव, न माया ज्यों का त्यो वह जाना । मन, --तेगबहादूर (शब्द॰) । बुधि, गुन, इद्रिय, नहिं जाना अलब अकह निर्वाना --केयर अकाजना --क्रि० अ० [हिं० प्रकाज से नामधातु] १ हानि होना। (शब्द॰) । । । । । खो जाना 1 ३ गत होना । जता रहना । मरना । उ०—-मोक यौ०--अकह कहानी= अनिर्वचनीय कथा । उ०—निज दल जागे विकल अति सकल समांजू । मान राज अकाजे अजू ।-- ज्योति पर दल दूनी होति, अचला चलति यह अह कहानी तुलसी (शब्द०) ।। है । पूर्ण प्रताप दीप प्रजन की राजे रेख राजत श्री रामचंद्र प्रकाजना--त्रि० स० प्रकाजि वरना । हर्ज करना । हानि करना । पानिन कृपानी है ---वे शव (शब्द॰) । विघ्न करना । नकरान करना । अकह(g)--वि० [ स० अकत्थ्य ] मुंह पर न लाने योग्य । बुरी । अकाजीपु)---वि० [हिं० अकाज + ई (प्रत्य॰)] [ मी० प्रकाजिन अनुचित । उ०-- शील सुधा वसुधा लहिकै कहै व हिकै यह ' | अकाजिनी ] अकाज करनेवाला । हर्ज करने वाला। कार्य की जीभ विगारिए ।-देव (शब्द०) । । हानि र रनेवाला । नुकसान करनेवाला । वाधक । विघ्न गरी । अकहन--वि० [हिं० ] कहना न माननेवाला । बेहुला । उ०----लाज न लागत लाज अहै तुहि जानौ में मात्र अकहनी--वि० [हिं० अफह] न चाहने योग्य । उ०-- जो सब कहनी प्रकाजिनि एरी t-- (ब्द॰) । अनी थी ।-प्रेमघन ०, मा० २, पृ० १६४ । अकोट--वि० [हिं० अ +काटप] जि मी काट न हो। जिसका धडन ने अका +--वि० दे० 'अकढुवा' ।। • हो। खडनीय ( युक्ति तर्क इत्यादि) ।। अकहुवा --वि० [ स० अफथ, प्रा० अकह + उबो (प्रत्य॰)] जो अकाटय--वि० [म ० अ + काटघ] नव ने योग्य । जिम जुन । कहा न जा सके । अत्र थनीय । उc--जाकर नाम अक्हुवी भाई । न हो म । दृढ़ । मजबूत । अटन्न । उ०—-भई बहने को तक ताकर कही २मनी भाई !-- कवीर (शब्द॰) । अटिय तुम्हार । पर मेरा ही विश्वास मत्य है सारा ।अकाड--वि० [स० अकाण्ड ] विना डाली या शाखा का । साकेत पृ० २१६ । अकाड’---क्रि० वि० अकस्मात् सहसा । बिना कारण । । यौ॰---प्रयोट्स युवित्त । अकाडजात--वि० [ स० प्रकाण्डजात ] होते ही मर जानेवाला ।। अकातर--वि० [१०] जो 1 1यर न हो । जो भयभीर न हो । उ०—जन्मते ही मर जानेवाला । | गति अनाहत तू सखा मत सहज सयत रे अकातर |-अर्चना, पृe e८ । अकाडताडव--सझा पृ० [सं० प्रकाण्ड + ताण्डव] १ असामयिक उद्धत नृत्य । करिमक उद्धत नृत्य । ३०-- श्रीध हर के कोड अकाथ- क्रि० वि० [ म० अकृतार्थ प्रा० अकारथ ] अकारथे । ताङबो के भये, भाड़ के समान सारो ब्रह्माड फूटेगो --रसके , व्यर्थ । निष्फल । निरर्थक । वृथा । फजुल । उ०--रह्यो न पर प्रेम अत्र अति जानी रजनी जात अकाथा--सुर (द०) । २० ३५१ २ व्यर्थ की उछल कूद । व्यर्थ की बवाद । वितडी । अकाथG - वि० [ स० अकथ्य ]न वहने योग्य । अकथनीय । अनिवं चनीय । उ०--अपनो यौ हरा स पर हाथ जन् । प्रकाड पात--वि० [सं० अकाण्डपात ] होते ही मर जानेवाला । जन्मते दे के तो अकाघ हा ने ऐसो मन लेहू ।-वेव ग्र०, भा० ही मर जानेवाला । अकाँडपातजात--वि० [सं० अकाण्डपातजात ] जन्म लेते ही मरने । १, पृ० ७४ । वाला [को०] । अकादर--दि. [ स ० अकातर ] ज कादर न हो । शूरवीर। साहसी । | हिम्मतवर। अकाडशल- सच्चा पुं० [ स ० अफण्डिल] प्राकस्मिक तीव्र पोहा अकाम'–वि० [ स ०1 विना कामना की । कामनाव्हेि ने । छा" या वेदना [को०] । | रहित । निस्पृह । उ०~-हमरे जान सदा सिव जोगी । अञ्च अकात--वि० [स० अकान्त] जो घात न हो । जो सुदर न हो । उ०-- अनवद्य अकाम अभंग --मानस, १।८६ ।। हरिघ कति को अब त अवलं कि तो, मदुल करेजो कुल- काम'५-–त्रि० वि० [ स ० अ + हि ० कॉम) विनों का म के । प्रिकामिनी को छिलिहे ।--रसक०, पृ० २९५ । | " योजन ध्यर्थ । ३०-—दिना मान र प रत में दित फिरे अकाउ ट्र--सञ्ज्ञा पुं० [अ०] हिसाव । लेखा । हिसाव किताब । ' , अको म ।—(शब्द॰) । अकाउ'टबुक----सा पुं० [अ० ] हिसाब की किताव । वही खाता । अकाम--सक्ष पु० दुष्कर्म । वृरा काम ( ट ० ) । उ–ज परयो लेखा । धरनि सान सिंगर । हिँ, ५ व ६ प्रताप पार---पर रा । अकाउटेंट- सी पुं० [अ०] हिसाव चिनेवाला। निरीक्षक । मुनीम् ।। ५।२४। लेखा लिखनेवाला। अकामत-क्रि० वि० [सं०] अनिच्छापूर्वक । अनचाहे कि ०] । अकाज-सी पुं० [ स० अकार्य ; प्रा ० अफज १ कार्य की हानि । अकीमत --सन्न पुं० [अ० इकामत 1 ठहरने का स्थान । निवास । नुन सान । हुजं । विघ्न । विगाड । उ०—- हरि र जस रानै स । दास । उ०-३म्र अपनी र हैं तो बीमत से सरकार। राहु से । पर अकाज भट सहसवाहु से |--तुलसी (शब्द॰) । सम* अगर इसान तो दिन रात सफर हैं -भरिता के २, बुरा कायं । दुष्कर्म । खोटा काम (को०)। भी p४,१० ५७४ ।