पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/१२५

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श्रकर्मा ६४ | अक ले मूल अकर्मा--पि० [२०] १ काम न करनेवाला। निकम्मा । वे काम ।। - वया गुई, मे यी ? को क्या हो गया था ?'--सैर०, पृढ | कार्य के लिये अनुदन्ते । २ कुकर्मी । बुरा काम करनेवाला ४१ । अफल घास चरने जाना = दे० 'अक्ल का चरने जाना। (को०) । ३ म्वेच्छाचारी (को०] । ०-- 'यहाँ प्लेग का बडा प्रकोप है, इसलिये अकेले घास अकर्मान्वित-- वि॰ [स०] १ दुष्कर्म । अपराधी । २ अयोग्य । चरने ली गई है।--पोद्दार अभि० ग्र०, पृ० ८६७ । असल वे (को०)। गुजर जाना = बुद्धि खत्म है ना। समझ को न रह जाना । अकमिणी -सद्ध स्री० [स] पाप करनेवाली । पापिन । अपराघिनी । उ०----अक्ल जाती है इस कूचे में प्रय "जामिन' गजर अकर्मी--- वि० [सं० श्रम मिन] [ स्त्री प्रकर्मणः ] बुर काम करने पहले ---कविता कौ०, मा० ४ पृ० ५६२ । । वाला । पारी । दुष्कर्मी । ५.५"ध। । ६०-- राजा वेश्या जात अकलखुरा-- वि० [हिं० अकेल + फा० खोर= खानेवाला ] १ अकेले चिरी । महा ६ मविप य दिवारी }-- ३ वीर म०, खानेवाला । दीर्थी । मत्लवी । लालची । २ जो मिलनसार न पृ० ४५६ । । हो । रूखा । मनहूस । ३ ईयल । २० ।--'कलखुरा अकपण(५'--सज्ञा पुं० दे० 'कर्षण' ।। विसी को देख नहीं सकता। 'कलखुरा जग से बुरा अकर्पना)--- त्रि० प्र० [स० अाकर्षण प्रकर्षण वरना । खीचनी ।। (शब्द॰) । अाकर्पत । उ०-~-देवकि गर्भ 24 वि राहिनी आप दास करि अकलना---क्रि० स० [सं० अव लुन] जानना । समझना । स०--- लीन । सूर०, १०१६२२। । वीमा नरिंद इह भय अवलि, लहै न कहु निस दिन चयन ।-- अकलक'---वि॰ [ स० अकलङ्क] [सच्चा फलकतो, वि० अकलफित पृ० र ० १५२०४।। निकलक । दोपहित । वेव । निर्दोष । वेदाग । उ०-- अकलप --वि० [सं० प्रकल्प्य ] जिस की कल्पना न की जा रे के। अल बिचारि रुव तजहु अमका । सर्वाहि भांति स पर प्रक कन्धन तीत । उ• -मम । अविगत रता असे लप प्रास। लवा ।--मानम, १७२।

  • जीति । राम अमलि मात' रहै जीवत मुकति अतति -- अवलक’- सर १० एक जैन लेखक जिनका नाम भट्ट असे लक देव कवीर। था (को०] ।

| अकलप G--सझ' पुं० [सं० अकल्प | वल्प पर्यंत । अनेक युग अकलक -ज्ञा पुं॰ [ २ ० श्यलडू ] दाप ।। लाछन । ऐव। दाग । । तक। - - सन तजि अन जिनि जावो । अकलप घि इ०--टाने अन जेठानिन । सब लोगन है अक्लक लगाए । वैठा ख वो -- गख०, प ० २३६ । -- ई वि (शब्द०)। अकलवर---सच्चा पुं० दे० 'अक नवीर। अकलता--- सन्न नी [H० अर्व लड़ता निर्दोपता। सफ ई । पलक- अक्लवीर--सा पुं० [सं० ६ रवी ] माँग की तरह का एक पौधा । हीनता । उ०--लोभ ल लुप कल कीरति चई। अकलकता । विशेष—-2 हिमालय पर मिमीर से लेकर नेपाल तक हो त कि कमी लई }--तुलर्स ( शन्द०) । है। इस व ड ३शम पर पीले रंग चढ़ने में कमि में अकलकित---वि० [सं० अकलङ्कित ] निप्पलक । निर्दोष । बेदाग। श्रोतं। है ।। | माप । गद्ध । ३।। ३ । उ०---तामहैं पठि जी नेवसे, अकलकित पयाकलबार । वन । भगजल । मी साधु --*मच, पृ० १५० ।। शव लीम-- सवा ली • [ ० इस्लम] १ मा १ । उ०--सह तण। अवलकी--वि | म ० अलड़िन 1 जिसपर कोई ३ लक न हो। खूनी सवल प्राय बचे इण ठर। सातू व लस में चावो निर्दोप। वैऐ३ [को०] । गढ़ चीतौड --वाँकी० ग्र०, ० ३, पृ० ६२।२ वादशाहत । शक्ल-वि० [सं० अ --- कल] १ जिमके अवयव न हो। अवयवरहित । ज्य । उ०---प्रवे जो अव लीम' सात हैक सुरतरै । नहीं उ.- ब्रह्म जी व्यापक विरज अज अक्ल अर्न हु अभेद --मनस जिवा दे नम ईछ लेवा प्राठ्मी --वकी ग्र०, भा० ३ १५० । ३ जमके ख द न । स्वगपूण । प्रखड । उ०-- पृ० ५८ । । अन्न बाला क खुल बनया, अनत रूप दिखाइया |--- अकलष--वि० [सं० ] कल पता से रहित। निमल । शुद्ध । साफ । गुल०, प ० ३८।३ जिसका अनुमान ने लगाया जा सके। उ०--स्नेह सुख में बढ सखि चिरकाल, दीप की अकलुप खी परमात्मा का एक दिए । उ6- -व्यापक प्रकल नह ज़। समान --गुजन, पृ० ३१ । निरगुन नाम न F५ ।मानस, १२०} । ४. ७ विना गुण अलषित--वि' [ सं० 1 जो कल षित न हुआ हो । पवित्र । उचतुराई का । ये लाह न । फ्रिन चाही धरा पै मैं घरि अव लुपित पाँव । घरि हुँदै सेज अकल-- - -वि० [८० + हिं० पल = पैन] विकल । व्याकुल । । मेरो, वास सूनो ठाँव ।-बुद्ध० च०, पृ० -६ । १ - देचैन । इ०-नाम्नि के अकल नपुर, भामिनी के हृदय में अकलेस(५ - वि० स० अखिलेश ] समग्र विश्व के स्वामी । उ०—भय |---अचना, पृ० ६३ ।। ॐ' नाम सिव स ल । नमो अकलेस इकल मति। -- अकल" - मा" मी दे० 'क्ल'। उ---मरदूद तुझे मरना सही। रा०, १।१४। । य!' में प्रयले के-के व ही --मत तुरस ० १० १४। अकलैमल--वि० [ प्रा० एकलइ = एक ही + सं० मूल ] जिस में महा०-६न्त गद्दी में होना - बुद्धि या व मि न करना। अचल का आगे पं छे कोई हो। अवे ला । तनहा उ०-- मधला प्रकले छिप रहना । --- 'इन्होंने सब कुछ यहा। भापकी मकल मूल पातर खाउँ खाउँ कर भूखा ।--सूर०, १॥१८६ ।।