पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/१२४

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अकरमी, अकर्मशीले || डि०]। अकरमी -सच्चा पुं० दे० 'अकर्मी' । उ०—-महा अकरमी जीव हम अकण-वि० [सं०] १ कान से रहित । र्णहीन । उ०--जो अकर्ण । सबहि. लेहु मुकुताय |-कबीर मा०, पृ० ५५० ।। । अहि को भी सहसा कर दे मत्रमुग्ध नहफ्न ।—प्रवध ० । अकरा-नझा स्त्री० [l०] अमल की । आँवला [को०] । -- २ छोटे कानोवाला। लघकर्ण (को०)। ३ सुनने की शक्ति अकरा--वि० [सं० अक्रव्य प्रा० अवरय्य, अकरय] [स्त्री अँकरो] १ न , १ से रहित । बधिर। बहरा (को०)। ४ पतवार विहीन । मोल लेने योग्य । महंगा । अधिक दाम का । कीमती । उ०--ले अये हो नफा जानि के मवै वस्तु अकरी ।---सूर०, १०।३१ ०४ 1 अकर्ण’---सझा पुं० सई । साँप को॰] । २ खरा । श्रेष्ठ । उत्तम । अमूल्य । उd ---अरतपालु अकर्णक---वि० [सं०] कान से रहित । कर्णहीन (को॰] । कृपालु जी राम, जेही मुमिरे, तेहि को तहँ ठाढे । नाम प्रताप अकर्णधार---चि० [सं०] पतवार चलानेवाले से रहित । चालकविहीन महा महिमा, अकरे किये खोटे, छोटेउ वाढे |--- तुलसी ग्र०, . (को०)। भा० २, पृ०२२६ । | अकयै--वि० [सं०] वह जो कानो न सुना जाय । अश्राव्य (को०) । अकराथ( वि० [सं० अकाथ्यर्थि, पा० अकारियल्य] अकारय । अकर्तन--वि० [सं०] १ बनि । २ जो न काटे (को०] । व्यर्थ । निष्फल । उ०—ाण राखि प्रवाधिए। शं न सुने अकर्तव्य१-- वि० [सं०] न करने यौग्य । करने के अयोग्य । जिसको । अकथ |--कवर (शब्द०)। । । - करना उचित न हो । अकराम-सज्ञा पुं० [अ० करम का ब० ब०] वखिशश । मृपः । अनुग्रह अकर्तव्य ---सहा पुं० न करने योग्य कार्य । अनुचित कर्म । उ०—को०]] सिद्ध होत विनहू जतन मिथ्या मिश्रित य ज । अकर्तव्य से अकरार( = हिं० अकराल) भयानक । उ----ॐ ह्या प्रिया |.। म्व नहू मन न घरो महज --धं निवाम ग्र०, पृ० • ६७ । । एकत सुपन पाय) अरारिय --पृ० रा०, ६६।२१०५ ।। अकर्ता'- वि० [सं०] कर्म को न करनेवाला । कर्म से अलग । उ--- अकरार+---सच्ची पुं० [ अ ० इकरार या करार) कोल । प्रतिज्ञा चेतन ज्यो को त्यो सदा सदा आकर्ता होय ।---भक्ति० | इकरार। पृ० ३:०। अकराल"--.वि | स०] ज भयकर न हो । सौम्य । सुदर अच्छी । अकर्ता..-- मधा पुं० साक्ष्य के अनुसार एप का नाम जो कम से अकराल (५):--वि० [सं० कराल ] भयकर । भयानक । डरावना ।। निलम रहता है। | अकतै क--सष्ठ पुं॰ [सं०] विना क्त या । जिम का कोई न त या अकरास--संज्ञा पुं० [हिं० अकड + मास (प्रत्य०) ] अँगहराई । देह । रचयिता न हो। जो किसी के द्वारा रचा न गया हो । कत। टूटना। विहीन । । । अकरास’---सा पुं० [सं० अकर] अलस्य । सुन्ती । कायाथिलता। अकतृ त्व--सझा पुं० [सं०] १ कर्तृत्व का अभाव। २ य तृव का अकरासार--संज्ञा पुं० दे• 'अकरास"। उ ----छुट्टी में पड़ चली गई अभिमान न होन। [को०] । रही। हमका बहुत अकरासा लागन रहा ।——'भस्मा० चि०, अकलू भाव---सच्चा सुं० [म.] कुछ न करने का भाव । कर्म से पृथकता । अकर्म--मधा पुं० [म०] १ न वे रने योग्य कार्य । दुष्कर्म । अकरासू–नि० सी० [ मे० प्रकर = आलस्य ] गर्भवती । जो हमल बुरा काम । उ०—-यह अकर्म शास्त्र के विरुद्ध हैं।---कवीर से है। सी०, पृ० ६६४ । २ कर्म का अभाव है। प्रेकरी १-सज्ञा स्त्री० [सं०= भलीभाँति + किरण (कृ) बिखेरना) अकमक'-- वि० [सं०] [वि॰ स्त्री० अकमका व्याकरण में क्रिया के वीज गिरने के लिये हल में जो पला वाँस लगा दी मुख्य में दो में से एक । यह उस क्रिया को व हते हैं जिसे । किसी कर्म की आवश्यकना न हो कत तक ही क्रिया का रहना है उसके ऊपर का लपडी का चोगा जिसमे वीज डाला कार्य समाप्त हो जाय , जैसे-'लडका दहिता है, इस वाक्य जाता है। में 'दोहता है' अकर्मक क्रिया है। अकरी-सक्षा सौ० [?] असगध की जाति का एक पौधा या झाडी अकमक'--सच्चा पुं० प मामा [को०1। । । जो पजाब सिंध और अफगानिस्तान आदि देश में होती है। अकरी --वि० [हिं० प्रफर - ई] न करनेवाला। अकत । अक्रिय । अकमण्य–वि० [सं०] कुछ काम न करनेवाला । बेवाम् । निकम्मा। असली । उ०—'सधै ऐसे अवर्मण्य युवक को आर्य उ०-अकरी अलख अरूप अनादी तिमिर नही उजियारा ? साम्राज्य के सिंहासन पर नहीं देखना चाहता है-- स्कद० ---चरण ०, भा॰ २, पृ० १४० ।।

  • पृ० १४० । । अकरुण--वि० [मु.] करुणाशून्य । निर्दयी । निष्ठुर । कोर (उ०--- अकरुण वसुधा से एक झलक । वह स्मित मिलने को रहा अकर्मण्यता--सच्चा स्त्री० [सं०] अकर्मण्य होने को मव । निकम्मापन।

ग्रालसीपन [को०)। । उ०—ललक 1--लहर, प ० ३४। । अकस्र --सच्चा पु० दे० 'अक्रूर' । उ-- लै अकरूर चले मधुवन कौ, अकर्मभोग-सँवा पु० [सं०] वर्मफल के भौगन में मुक्ति था म्वत्रिय [को॰] । सव ब्रज अति भै भात |--पोद्दार अभि० ग्र०, पृ० २३७ ।। अकर्कश--वि० [सं० 1 जो कठोर न हो। मृदु । मुलायम । नरमे अकर्मणील-- वि० [ सं . ] गाम ने रयान्न।। अागो । मुस्त ।। को]। | कि०] । । ।