पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/१२१

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अकइना' अऊलना अऊलना--क्रि० अ० [सं० उले = जलना] १, जलना । गरम होना। उ०—तुलसौ म अयचम विहृष्टि दिन दिन बाद मसीन।---- • २ गरमी पडनी । दे० 'अलिना' । स० राप्तक, १ ० ४७ । अऊलना-क्रिया अ० [सं० आ = अच्छी तरह + शूल, प्रा० सल, हि० २. दु । ३ नई (को०) । ४ चिह; (को०) । हुलना ] छिलना। छिदना। चुना। उ---छत अजु को अक --वि० दे० 'एक' । उ०——ही फार अव दा गुनाई। देखि कहीं कहा, छतिया नित ऐसे अॐ लति है ।.रघुनाथ -घट०, पृ० ८५ । (शब्द०)। अकच-वि० [ १० ] विना वन का। गंजा 1 प्रत्याट । अऋण-वि० [सं०] विना कर्ज का। जिसपर कर्ज न हो। अकच -सझा पुं० नै हुग्रह । ऋणमुक्त । अकचकाना-क्रि० अ० [मः (अपरमात्) + च = चकितहोना] अऋणी--वि० [सं०] जिसपर कर्ज न हो। ऋणमुक्त । विस्मित होना । उप विर] होना । उ॰----() युवा के रहन अएरना -क्रि० स० [सं० अङ्गीकरण; प्रा० अगीअरण, हि० पर वालक में प्राचीन ग्रा बैठ ।।-- या, अँगेरना ] अगीकार करना। अँगेरना। स्वीकार करना। पृ० १०७ । ( 3 ) वह अचव अवपाल की अार ताना धारण करना। ३०---दियी सु सीस चढाइ लै अाछी, मति रह गया ।—बं० न०, पृ० २५५ ।। अएरि। जोपै सुषु चाहतु लियः तावे दुखहि न फेरि।-- अकच्छ--वि० [सं० अ - रहित + यच्छ यो प = घोती, परिधान) बिहारी०, पृ० ३८ । १ नग्न । नगा। २ व्यभिचारी । मन्त्रीगामी । अोधG-वि० दे० 'अंउध' । उ०---अधर मगइते अग्रोध कर माथ । अकटक--वि० [सं॰] १ जो थेट न हो। मधुर । २ सहए न पार पयोघर हाथ।--विद्यापति, पृ० २८३ । । प्रधान | प्रवलत (पो०)। अश्रोधा--वि० दे० 'श्रींघा' उ०--अशोधा मल काति नहि पूरए अकटोटा--मद्रा पु० [सं० प्र= छाप, तिलपदेश ० टोटा पद, हेरहूँ त जुग वहि जाइ |--विद्यापति, पृ० ३६। देला ] का?, मिट्टी से तैयार यि मा चदन 1०---- अकटक---वि० [सं० अकण्टफ ] १ विना काटे का। कटकरहित । अब टोटा को घमि तिन”, नवी निये गाया ---प्रेमघन, २ बाघारहित निविघ्न । विना रोक टोक का। वेधडक। ना० १, पृ० १५२ ।। उ०---समृझि काम मुख सोचह भोगी । भये अकटक साधक अकठौर---वि० [सं०] जो वठोर न । मुलायम । मल [को०] । जोगी ।—मानस, १'८७ । ३ शवरहित । उ०-~-जर्नाह सानुज अकडम–स पुं० [सं० ] एक प्रकार का तरविय चक्र (को०)। रामह मारी। करौं अफटक 'राज सुखारी ।---मानस, अकडमचक्र—समा १० [सं० ] ३६ 'स, इम' (को०] । २११८६। अकडोडा---सा पुं० [सं० अर्फ+तु, प्रा० अक्क - संड ] मार को अकठ-वि० [सं० अ कण्ठ] १ कठरहित । जिसे कंठ न हो । स्वर- फल । मदार की ढोढ़ी । उ०---वन की हैकैमें अकोड़े हीन । कर्कश [को॰] । जात है !--सुदर०, २, ५० २, पृ० ४५७ । अकड--वि० [हिं० अकड] तेज । अकडदार । उ०—‘इशा' बदल के अकडत-- सच्चा स्त्री० [हिं० प्रकट + अंत (प्रय) ] अब उ, दर्प । | काफिये रख खेडछाड के, चढ़ वैट एक और बछडे अकड घमड। उ०---तरने की तरह इन नि न जावे । तेरे आगे पर--कविता को०, भा० ४, पृ० २७८। । जो दो करे सडत ।--कविता क०, भा० ४. पु० ९४ । , अकप-वि० [सं० अकम्प] न काँपनेवाला। स्थिर । उ॰—-मत्य भी अकड-संज्ञा स्त्री० [सं० मा = अच्छी तरह+कापड= गठ, पोर, शव-सा अकप कठोर ?--साकेत, पृ० १६१ । | अकडे = गाँठ की तरह कडा ] ऐठ। नाव । मुरो । बल । -- अकपत्व--संज्ञा पुं० [सं० अकम्पत्व ] १ कांपने का अभाव । न अकड’--समा सौ. [ देश० ] 1. घम। अर्गार'। खी। काँपने की दशा । कपहीनता । २ वशी बजाने में उगलियों का मुहा०---अकड दिखाना = घमट ३ खी दिखाना। उ०—मार एक गुण । अर्कपत्वं । न काँपना। खाव तो बदन झाडकर फिर भी भय दिखाग्रा ।--प्रेमघन॰, अकपन--वि० [ स० अफम्पन ] [ वि० अकम्पित, अकम्प्य, सच्चा | भ० २, ३०८। । अकम्पत्व ] न काँपनेवाला । स्थिर। २. धृष्टता । ढिठाई । ३. हठ । प्र । जिद । अपन--सा पुं० रावण को अनुचर एक राक्षस जिसने खर के वघ अकड तकड--संवा स्त्री० [हिं० अब +तफ<तग } १. ऐठन । ।। का वृत्तात उससे कहा था। २ तेजी । ताव । घमड। अभिमान ०-- प्रवडू, वह उत्तम अकपित--वि० [सं० अकम्पित ] जो कॅपा न हो। अटल। निश्चल ।। बहुत सारी थी।---इशा०, पृ० ९१ । । । । अकपित'.-सझा पुं० वौद्ध गणाधिपो का एक भेद। अकड़ना)---क्रि० अ० [ ६० ‘अकड से नाम० ] १ सूखकर अकंप्य---वि० [सं० अकम्प्य ]न काँपनेवाला । हिलने ,या डिगने सिकुडनी और १ डा होना । खरा होन।। ऐंठना । जैसे, पट| वाला। अटल स्थिर । अचेल । रियाँ घर में रखने से अनड गई ( "व्द०)।-२ ठिठुरन। अक’--सा पुं० [सं॰] १ पाप । पातक । स्तब्ध होना । सुन्न होना, जैसे-..-सरदी , से पकड - जागे यौ०-प्रकहीन = पापहीन । उ०--बरबस करत विरोघ हठि होन । (मान्द०)। ३. छाती को उभाडनर डील को थोडा पीछे की चहुत अफहीन स० सप्तक, पृ० ४७ । पयस = पापवा । मोर झुकाना । तनना, जैसे----वह मकडकर मलता है (शब्द॰)