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संपादकीय प्रस्तावना निघटु: आर्यभाषा का प्रथम शब्दकोश (समाम्नाय। नाम, प्रख्यात और अव्यय शब्दो का सकलन किया गया है। यह गछ माध्यम से हुआ है, छदोबद्ध नहीं है । पर्यायसकलन या अन्यसंग्रहण वैदिक (विरल या क्लिप्ट) शब्दो के सह को ‘न्घिटु' बहते थे । द्वार। इसका उद्देश्य बेद के शब्दों का अर्थ स्पष्ट करना था। इसमें 'पाक' का निरुक्त वैदिक निघट का भाष्य है। यास्क से पूर्ववर्ती तिइ न (अख्यात), सुबत (नामपद) और अव्यय हैं। निघमो मे कमात्र यही निघट्ट उपलव्ध है । पर निरुक्त' से जान पडता है कि यास्क' के पूर्व अनेक निघट बन चुके थे। इस विषय शरद-सकलन-पद्धति की दृष्टि से इसमे पर्यायवाची, अनेकार्थक की सक्षिप्त चर्चा झागे होगी । यही ‘यास्क' द्वारा व्याख्यात 'निघट्ट । | और विरल शब्दो का संग्रह मिलता है । इन्हें हम चार विभागो मे घाँट का परिचय दिया जा रहा है। सकते हैं -- (१) समानार्थक धातुरूप, (२) एकार्थक अथवा पर्याय वाचः भिन्न भिन्न शब्दों का संग्रह, (३) अनेकार्थं शब्दो का संग्रह | यह 'निघटू पचाध्यायी कहा जाता है। इसके प्रथम तीन अध्यायो और (४) देवता के प्रमुख और अप्रमुख नामो का संग्रह । को 'नैघटुक वाड' कहा गया है। इन काहो के शब्दों की निरक्त के अज्ञात-व्याकरर -सस्कारवाले शब्द भी सगृहीत हैं। द्वितीय प्रौर तृतीय अध्याय में 'याक' ने व्याख्या की है इनमे १३४१ शब्द हैं, यद्यपि व्याख्या २३० शब्दो की हुई है निघट्ट के परिगणित उपलब्ध ‘निंघट' के अतिरिक्त अन्य अनेक नि घट्' भी अवश्य शब्दो मे सज्ञा अर्थात् नाम और प्रख्यात एव अव्यय पदो का सवलन ही रहे होगे । 'यस्व' के 'निरुक्त' से भी इतना स्पष्ट है कि उनसे पूर्व है। सबसे प्रथम पृथ्वी के बोधक २१ पर्यायवाची शब्दों का परिचय जिस प्रकार अन् के वयाकरण एवं अनेफ निरुक्तार हो चुके थे उसी दिया गया है तदनंतर ज्येलनार्थक अग्नि के ११ पय हित गए । प्रकार उपलब्ध निध' के अतिरिक्त अन्य निघट भी बत मान थे। इसी रीति से पूरे तीनो अध्यायों में पर्यायव ची अथवा सम नार्थ- यास्क के निद । । १।२० था ७ १५) से संकेत मिलता है कि 'नि घट्ट बधक शब्दो का समह है इनमे भी अप मारूद ऐसे है जो अनेकार्थक शन्द अनेक निपटा फ ब धक है। आचार्य भगवद्दत्त के वक्तव्य से हैं। 'निपट' में तो उनका संग्रह पर्याय रूप में ही हुअा है, पर "निर क्त अनुमान किया जा स५ ता है कि निघ' अनेक थे । अथर्व परिशिष्ट के निर्मपन में उनके अनेक अर्थ सोदाहरण वताए गए हैं। 'गो' शब्द का ४६वां मा भी कोत्सव्य है । सकलित 'निघट ही है। यास्क' की निरु व्याख्यों में इस शब्द के अनेक अर्थों का निर्देश है। न 'या। पूणि' में उल्लेख किया है । वृहद्दवता में भी ग्यास्क' के साथ चतुर्थ अध्याय मे २७८ स्वतन्न पदों का जो किसी के पर्याय नहीं हैं। साथ अनके बार उनका नाम देख कर अनुमान किया जाता है कि दोनो एकत्रीकरण दिया गया है। इनमें मुख्य दो प्रकार के शब्द है--- ही ग्रंथ--'निघटु' और 'निरुक्त'- उन्ही के रचित थे। इधर पूना से ( १ ) वे शब्द जिन के अनेक अर्थ हैं और ( २ ) वे शब्द जिनका १ का 'शाकपूणि' का एक निघट्ट भी प्रकाशित किया गया है। इन सबके व्याकरण मूलक सस्कोर ( व्युत्पत्ति ) अवगत नही हैं। अति में पचम आधार पर यह कहना कदाचित् असगत न हो कि 'मास्क' के समय अध्याय को दैवतकांड कहा गया है जिसमे वैदिक देवता-बोधक १५१ तक बहुत से निपटू ग्रंथ निर्मित हो चुके थे। नाम मिलते हैं। | ‘यास्क' के कथनानुसार ‘निघटु’ का अर्थ है-वह शब्दसमूह इस निघट' के निर्माता का नामनिर्णय विवादास्पद है । इतना जो वेदो से चुनकर एकत्र किए हुए शब्दो का अर्थद्योतन करे। इस ही नहीं, इनमे कुछ विद्वान अनेक पुरुषों की रचना मानते हैं। हा० अर्थद्यतन मे अनेक शब्द का अर्थद्योतन में भी एक साथ होता है। लक्ष्मणस्वरूप इनमें प्रमुख हैं। डा० कोल्ड ने भी इस्तलिखित ग्रयो के और कभी पथक् पृथक् । इसमें सामान्यत शब्द-सपालन-विधान की भाधार पर निर्णय दिया है कि 'निरुक्त के पूर्व षड़क और उत्तरषड्क-- निम्नलिखित विधि की सय जन) मिलती है, चाहे वे सभी विधियाँ एक दोनों की शैलियाँ भिन्न हैं और दोनों के निर्माता भी समवेत भिन्न निघटु मे हीं अथवा न हो--(१) समानार्थक धातुओं का संग्रह, (२) रहे होंगे। परतु राजवाडे ने डा० लक्ष्मण स्वरूप के मत का अनेक तक किसी एक सत्व अथवा पदार्थ के नाना नामधेयो एव अव्ययपदो का के आधार पर खडन किया है। ऐसे भी पति हैं जो 'मास्क' को ही सग्रह, ( ३ ) एक शब्द के अनेक अर्थों का अभिधीन र (४) निघट्ट और निरुक्त--दोनो का रचयिता मानते हैं । स्कद दुर्ग तथा देवता मो के नाम । माहेश्वर अादि प्राचीन प्राचार्य 'निघ' को किसी ऐसे वेदज्ञ ऋषि प्रोफेसर ‘राजवाडे' का व थन है कि अनेक पर्यों का एक अभिघान का ग्रंथ मानते हैं जिसका नाम अब तक ज्ञात नही है । द्वारा कथन--8 से उपलब्ध ‘निपट' में नहीं हैं। फिर भी एकपदिक कोशविद्या के विचार से 'निघट्' अथ को विकासक्रम का कोड में कुछ अनेकार्थक शब्द भी हैं हैं जा सकते हैं और व्याकरण प्रारंभिक और प्रथम उपलव्ध रूप कहा जा सकता है। इसमे विशिष्ट की दृष्टि से अव्युत्पन्न शब्द भी। 'ऐकपदिक' झाड में तया वैदिक ग्रंथ के शब्दों का संग्रह तो है पर वह समस्त शब्दों का ने कथित अमूत्पन्न शब्द लक्षण सबधी उपयुक्त अगों में नहीं आते। होकर कतिपय कट्रिन और दुर्बोध शब्दो का सकलन है। इस कोश में अत कह सकते हैं कि निरुक्तोक्त अगो की अपेक्षा यहाँ कुछ अधिकता