पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/११४

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अंगोछी अंजान अँगोछी--सच्चा स्त्री॰ [ सं० अङ्गोछा + हिं० ई (प्रत्य॰)] १ देह पोछने यौ०--अँचर धरैया = दे० 'अँचरा पकडाई ।। के लिये छोटा कपडा २ बच्चो की छोटी घौती जिससे कमर अॅवरा -[ स० अञ्चल ] १ साडी का वह् छोर जो छाती पर से प्राधी जाँघ तक ढक जाये । यह प्रायः छोटे लडके लड़कियो रहता है । साढे या प्रोढनी का वह भा7 जा सिर पर होता के लिये होती हैं । हुअा सामने छाती पर फैला हो । पल्ला। २ दुपट्टे या दुशाले के । अॅगोजुना--क्रि० स० दे० 'अंगेजना' । दोनों छोर । छीर । उ०--क्व मेरो, अँचरा गहि मोहन जो६ अँगोट--सवा स्त्री० [ मे० अङ्ग + वर्म,, प्रा० अग + वेट्ट}, शरीर सोइ कहि मोसी झगरे ।—सूर०, १०७६ ।। को गठन । देह की बनावट । यौ० ---अँचरा पकडाई = विवाह की एक प्रथा जिसमे वर कन्या । अँगोटना--क्रि० स० दे० 'अगोटन' । उ०-देखि री देखि अँगोटि की माता तथा उसकै कुटुब की और स्त्रियों का प्रचल पकढता के नैननि कोटि मनोज मनोहर मृरति ।—भिखारी ० अ०, भा० हैं और कुछ लेने पर छोड़ता है। इस राति को तथा उस वस्तु | १, पृ० १३७ । 'को जो वर को मिलती है, अँचरा पकडाई या अँचर धरैया अँगोरा+--सच्चा पुं० [देश॰] मच्छर । भुनेगा। । अँगोरा’---सा पुं० [अ० अङ्गार ] अँगा । अँगार। उ०—-भयउ। मुहा०—–अँचरा पसारना = ( १ ) क्रिसी वडे या देवता से कुछ | अदग सो लाल चंगोरा। कहे अागि में अगिनि अंजोरा |~ माँगते समय (स्त्रियों का) अपने अंचल को अागे फैं नाना जिससे | सुं० दरिया, पृ० २३ ।। दीनता र उद्वेग सूचित होती है। विनती करना। दीनता | गोरी--सा जी० दे० 'अँगारी' । दिखाना । उ०—-ए विधिना तो सो अँचरा पसारि माँगो जनम । अँगाँगा-सञ्ज्ञा पुं० [सं० अग्र = अगला +अ = माग अन्न या और जनम दीजो या ही व्रज वसिदो--छीतस्वामी (शब्द०)। (२) किमी वस्तु को वह भाग जो घर्मार्थं पहले निकाल लिया जाये । भीख माँगने की एक मुद्रा । कोई वस्तु लेने के लिये देनेवाले के सामने अचल रोपना । । ३) दीनता और विनय के साथ घमयिं वदने या देवता को चढ़ाने के लिये अलग निकाला हुआ माँगना। अश। अंगळे । पुजारा।। अँचल--सच्ची पुं० दे० 'अचल--१' । उ॰—अँचल ध्वज मधलाकि अँगछना(+---क्रि० स० दे० 'अँछिना' । उ॰--उत्तम 'विधि 'सौं नाही घरत पिये मन धीर ।—सूर०, १०५२४४९।। मुख पखरायो, प्रोदे वसन अँगीछि —सूर०, १०।६०६ । चला--संज्ञा पुं॰ [ स० अञ्चल ] १. दे० 'अँचरा' । २ कपडे का एक अगछिी--सी पुं० दे० 'अँगीठा' । उ6--अंग में मॉम और पोथी . टुकडा जिसे-साधु लोग नाभि के ऊपर धोती के स्थान पर लपेटे | के चौगे में मद्य छिपाई जाती है।--मारतेंदु २०, भा० १, पृ० ८२ । अँचली--संज्ञा स्त्री० [हिं० अचल +ई ( प्रत्य० ) | दे० 'अँचरा', अँगीठी--सज्ञा स्त्री० दे० 'अँगाछी' । उ०—एक अँगछी अपने अपने 'अँचला'। उ०—-उलटन पलटत जग की अँचली। जैसे फेरे गले में डाले आकर सत्यगुरु के चरणों पर गिरे .!--कवीर | पान तमोली ।—मलूक०, पृ० १३ । । • म०, पृ० ५०६ ।। अँचवन -सा पु० दे० 'अचवन । उ०—-हसन को विश्राम, अँगटी--सज्ञा स्त्री० [सं० अङ्गीकृति या अङ्गवत्र्म ? ] अग का गठ्न। पुरुप द अचवन सुधा ।---कबीर सा०, पृ० १५ ।। आकृति । बनावट । अँगोट। अँचवना --क्रि० स० दे० 'अचेवना' । उ०—-परि हरि चारिउ अँगौड़ा-सा पुं० [ 1 किसी देवता को अर्पण करने के लिये मास जी अंचवें जल स्वाति को -तुलसी ग्र०, पृ० १०७ ।। | निकाला गया पदार्थ । देवा । . अँचवनी--सच्चा स्त्री॰ [ सं० अचमनी ] आचमन करने का छोटा अॅगौरिया--सबा पुं० [ सै० अङ्ग = भाग] १ वह हलवाहा जिसे कुछ पात्र । आचमनी ।। मजदूरी न देकर हुल बैल देते हैं जिनसे वह अपने खेत भी जोत अचवाना --क्रि० स० दे० 'अचवाना' । उ०=-आँचवाह दीन्हे पान नेता है । २ मजदूरी के स्थान पर हुल बैल मॅगनी देना। ।"। गधने व स जहें जाको रह्यो ।—मानस, ११६ ६ । अँग्रज-मृद्ध पुं० दे० अँगरेज । | अँचार ----सद्मा १० दे० प्रचार ।----उ० ---पापर, बरी, अँचार परम अँघडा+--सच्ची पुं० [सं० अघ्रि ] कांसे का एक प्रकार का छल्ला सुचि । अदरख अ६ निवृद्मनि खैहैं रुचि 1--सूर०, १०1१२१३ । - जि में एक वर्ग की स्त्रियाँ पैर के अँगूठे में पहनती हैं। अचुला--संज्ञा स्त्री० दे० अजली १ । ०-~-जनम यहि धोखे वीता जात, जस जेल में अँचुली में भल सीझै ।—कवीर श०, अँघराई--सच्चा स्त्री॰ [देश॰] एक कर जो पहले पो पर लगाया मा० ३, पृ० ३७ । । । | जाता था । अॅजना)---क्रि० अ० [सं० अञ्ज, प्रा० अज ] स्निग्ध होना । उ०-- अँघिया--सझा स्त्री० [ देण० ] झीने कपड़े से मढी हुई आटा या मैदा । देखत रूप निरजन अँजेऊ ।--८० सागर, पृ० ६४ । चालने का चलनी । अँगिया । अाखा । अँजली--सल्ला स्त्री० दे० 'अजली' । चना(0--क्रि० स० दे० 'अँचवना' । उ०—पुट एके इत मदचेत में जवाना--क्रि० स० [हिं० जना का प्रेर० ] अजन लगवाना । | अमृत प्रापु अंचे अँचवावै ।- सूर०, १०1१२४६ । । | सुरमा लगवाना।। अँचर]---सच्चा पुं० दे० 'अँचरा' । उ०--गज गति चाल अँचर गति अँज़ाना-क्रि० स० दे० 'अॅजवाना'। उ.--झाँख अंजाइ पहिरि कर | धुजा ।—जायसी ग्र० ( गुप्त )-पू० ३४७ । । चुरी, हारे मोहन गिरधारी ।--भारतेंदु ग्र०, भा २, पृ० ३८१।