पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/१११

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मॅगनैत अँगाकर अँगनैत--प्रज्ञा पुं० [सं० अङ्गन, हिं० अाँगन, अँगना +ऐत (प्रत्ये०)] अॅगराना(५ --क्रि० अ० दे० 'अँगडाना' । उ०(क) वरवधू पिय | अगिन का स्वामी । घर का मालिक । गृहस्वामी । गृहपति ।। पथ लखि अँगरानी अँग मोरि --मति० ग्र०, पृ० ३०६ । अँगनैया--संक्षा स्त्री० [स० अङ्गन, हिं० आँगन-मॅग्न 4- ऎया (ख) पलक अधखुली दृगनि सो अँग अगरात जम्हात । ---व्रज ( प्रत्य० )] अगिन । अँगन। उ० --मनि खभनि प्रतिबिंब ग्र०, पृ० ६३ । । झलक, छदि छलविहे भरि अंगनैया । —तुलसी ग्र०, अॅगरीG+--संज्ञा स्त्री० [सं० अङ्ग+री ] कवच । झिलम् । अतर! पृ० २७३ । वक्तर। उ०---प्रेगरी पहिरि ढूंढी सिर घरहे। । फरसा बास अँगबदन--सच्चा पुं० [सं० अङ्ग + बन्धन, तु० फा० बद] अगवन् । सेल समे करहीं । --मानम, २०१६१ ।। शरीर का वधन । उ०——ज्यो अहिपति केंचुरि को लघु लघु अँगरी--सन्न रुसी० [ स० अङ्गरीय ] उँगलियो को घनृप की रगर से छोरत है अँगबदन । ---सूर०, १०।११५८ । बचाने के लिये गोह के चमड़े का दस्तानी । अगुलित्रण ।। अँगवलित--वि० [ स० अङ्कवलित ] अगो से लिपटा हुआ । उ०—-व्रज अँगरेज--सज्ञा पुं० [ ॐ ० अगलेज, पुर्त० इलेज, अ० इगलिश अघिप अगवलित सुरति समय सोहत वाली --भिखारी प्र०, [ वि० गतेजी ] इंगलैंड देण का निवासी। इगलिस्तान को भा० १, पृ० १३१ । रहने वाला आदमी । उ०--प्रमिवर अँगरेजै घलि घलि तेज अँगरेंग - सम्रा पुं० [स० अङ्ग्रङ्ग] शरीर की काति या दीप्ति । उ०८ अरिगन भे। सूर को ! --हिम्मत०, पृ० ४२ । तेरे ही F व जीवन के अंग रंग सुभ लागत परम सुहाए।-- अगरेजियत--सज्ञा जी० [हिं० प्रगरेज -+फा० इयत (प्रत्य०' ] अंगनद० ग्र०, पृ० ३४६ । रेजी५न । अंगरेजी र गढग की । ३०---हममें तो भाई यह अँगरखा-सञ्ज्ञा पुं० [सं० अङ्ग = देह -- 'रक्षक= बचानेवाला, प्रा० ग्रंगरेजियत नहीं देखी जाती -- वन, पृ० ११२ । । रख 9, हि० रखा ] एक पुराना मर्दाना पहिनावा जो घुटनो के विशेप---१ भी कभी शासक और शांगित के बीच अंगरेज शासको नीचे तक लवा होता है और जिसमे चाँघने के लिये वद टैके। की अकड या अपने को भेठ ममझने का अभिमान भी इस प्रये रहते हैं । बददार अगा। चपकन। में मिला रहता है। विशेष—इसे हिंदू और मुसलमान दोनो बहुत दिनों से पहनते अँगरेजीसम स्ली० [हिं० अँगरेज +ई । प्रत्य० ) ] अंगरेजों की आते हैं। इसके दो भेद हैं--(१) छकलिया, जिसमे छह भापा । ईगनि । गापा । कलियाँ होती है और चार वेद लगे रहते हैं। इसके वगन के अँगरेजी--३० अंगरेज़ सबधी । अगरेज का । वद भीतर वा नीचे की ओर वाँधे जाते हैं, ऊपर नहीं दिखाई अँगलेट-सद्मा पुं० [सं० अङ्ग, हि० अग् + लेट ? ] शरीर के गठन । पडते, अर्थात् इसकी वह पल्ला जिसका बद बगल में बाधा जाता काठी । उठाने । देह का ढाँचा। अंगेट । है भीतर वा नीचे होता है, उसके ऊपर वह पल्ला होता है अँगवना(+---क्रि० स० [सं० शङ्ग से नाम०] १ अगीकार करना जिसका बद सामने छाती पर बाधा जाता है । ( २ ) धरल।। स्वीकार करना। उ०---दाप पतंग होइ अंगएउ मागी ।वर, जिसमे चार कलियाँ होती है और छह बद लगे रहते हैं । जायसी ग्र० ( गुप्त ), पृ० ३२८।२ ओढ़ना । अपने सिर पर इसको बगल में वाँधनेवाला पल्ला नीचे रहता है और दूसरी लेना । ३ सहना । बरदाश्त करना । २०--अपना घर सुख उसके ऊपर छाती पर से होता हुआ दूसरी बगल में जाकर छाडि के अंगवै दुख को भार |--कवीर शा०, भा० ४, पृ० २७ । वाँधा जाता है। अतः उसके सामने के और एक बगल के वद ४ उठाना । उ०--घरत भार न अंगवै पाँव धरत उठ हाल । दिखाई पड़ते हैं । कूर्म टूट मुंह फाटी तिन हस्तिन की चाल 1-—जायसी अँगरखी--सच्ची खी० दे० 'अगरखा' । ( शब्द०)। अँगरना(j)--क्रि० अ० दे० 'अॅगराना । अँगवनिहारा--वि० हि० अँगनवी + हारा (प्रत्य॰)] सहनेवाला। अँगरा--सा पुं० [ स० अङ्गार ] १ अँगार। अँगारी । दहकता सहन करनेव ली। वरदास्त करने वाल। ३०-सूल कुलिस असि हुमा कोयला । २ कोयला। अगवनिहारे। ते रतिनाथ सुमन सर मारे। —मानस, २२५ । मुहा०--अॅगरा दरना=अनुचित कार्य की हद करना। अशोभन अँगवाना---क्रि० स० [हिं० अॅगवना। अग मे लगाना या मलेना। या अशुभ कार्य करना । उ०-• चदन और अरगजा न्यौ अपने कर बल कै मॅगवान्यौ । विशेष--स्त्रियाँ परस्पर कलह मे सोहागिनो के प्रति अशुभ भाव --सूर०, १०।१२१३ । व्यक्त करती हुई 'माँग मे अंगरा दर दूंगी', प्राय ऐसा अँगवारा-सा पुं० [सं० अङ्ग= भाग, सहायता + कार या हिं० कहती हैं। वारी = वाला] १ गाँव के एक छोटे भाग का मालिक या ३ बैल के पैर टपकने या रह रहकर द६ करने का एक रोग। हिस्सेदार । २ खेत की जुलाई में एक दूसरे की सहायता। | इस रोग मे वैले बार बार पैर उठाया करता है । | अँगसँग-सझा पुं० दे० 'अगसग' । उ०----यह जग अँगसँग में मत अँगराई+---सझा भी० दे० अँगडाई' । उ०—-है रात घूम अाई मघुवन वारा, चावे विषय भोग अनुसार । ---रत्न०, पृ० ६ ० । | यह मालस की अँगराई है। --लहर, पृ० २०।। अँगाकरि+---सज्ञा स्त्री० दे० 'अगाकडी'। उ०—अबही अँगाकरि अँगरागq--संज्ञा पुं० दे० 'अगराग'-१। उ०—-नृप द्वार कुमारि तुरत बनाई । जे भजि मजि ग्वालिनि सँग खाई ।---सुर०, चली पुर की, अंगरागसुगंध उडे गहरी ।-बुद्ध च०, पृ० २४ । १०।१२१३ ।