पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/१०७

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अंशुमत्फल असुमाले अशुमत्फला--सहा स्त्री० [सं० ] केले की वृक्ष और उसका फल [को०] । असधन-सच्चा पुं० [सं० अाधन ] हिस्से का घन । उ०--ज़ कछ अशुमर्दन--सज्ञा पुं० [सं० ] ज्योतिष में ग्रहयुद्ध के चार भेदो मे से असघन हुती जो साथ । सो दीन माता के हाथ |-- एक । इस ग्रहयुद्ध में राजाशों से युद्ध, रोग और भूख की पीडा । अर्घ ० । अादि होती है। दे० 'ग्रहयुद्ध' । । असपुरसा--सच्चा पृ• [ स० अश+पुरुष ] अषापुरुप । वलयान अशुमान--वि० [सं०] १. रेशेदार । २. सोम से संपन्न। सोमरस से व्यक्ति । उ०---दवार असपुरस' तणी, प्राय वणी जग भर हुन्न । ३ चमकीला । दीप्तिमान् । ४. नुकीला (को०)। ऊपरी ।---रा० रू०, पृ० २३ । अशुमान--सद्मा पु० [सं० अणुमत् ] १ सूर्य । २. चंद्रमा (क्व०) । असफलक-सच्चा पु० [सं०] रीढ़ का ऊपरी भा', [फा०1। । ३ अयोध्या के सूर्यवंशी राजा सगर के पौत्र, असमजस के असभार’--वि० कधो पर वोझा ढोनेवाला । बहेगीदार [को० ]। पुत्र और दिलीप के पित।। सगर के अश्वमेध का घोडा ये ही असभार--सम्रा पुं० सं० ] कधो का बोझ । वोझ जो कंधे पर ढोया ढूंढकर लाए थे और सगर के ६०,००० पुत्री के शव को जाय [को० ]। इन्ही ने पाया था। असभारिक-- वि० [सं०] कधो पर वोझ ढोनेवाला [को० ]। अशमाला--सा पुं० [सं० 1 ज्योतिर्वलय । प्रकाश का घेरा । असारी_वि० [ na 1 ३० ग्राभाविक' [ को 1। तेजोवलय (को०)। असर -सच्चर पुं० [अ० उन्सर ] तत्व । उ०—–के हैं पाँच असर सू अशुमाली-सहा पुं० [सं० अशुमालिन् ] १ सूर्य । २ वरह की | फला यो तन, के माटी होर पानी व बारा तू गिन ।-- सख्या [को॰] । दक्खिनी॰, पृ० २०८ ।। अशन--मष्ट पुं० [सं०] १. चाणक्य मुनि । २ मुनि [को० ]। असलु--वि० [स०] पुष्ट कधोवाला। दृढस्कृघ । चलवान् [को०] । अशुल?--वि० प्रकाशपूण [ को० ]। अससुता-~-सझा ली० [सं० अशु ( = सूर्य ) + सुता ] कालिदी । अशुविमर्द--सच्चा पुं० [सं०] किरणो के मद या धुंधली होने की। जमुना । सूर्य तयना। उ०—सूरदास प्रभु अससुना तट क्रीडत । स्थिति [को० ]। राधी नेदकुमार ।--सूर०, १०।१८०२ । अशदक-ससा पुं० [सं० ] धूप या चोदनी में रखा हुआ जल [फा०] असिक(--सि ० अशक] अ धारण करनेवाला । अास भूत । " अश्य-वि० [सं०] १ बाँटने योग्य । विभाजनीय । २ विभाग । सुर असिक सव कपि अरु रीछा । जिए सकल रघुपति के प्राप्य [को०]। ईछा ।—मानस, ६।११३ ।। अस’---सभा पुं० [सं०] १ भाग । अश । खड। अवयव । उ०---ईश्वर ३१ असी)- वि० | स० अशी ] अशवाला । अंशधारी । उ०—-द्वारपाल अस, जीव अविनासी ।--मानस, ७११७ । २ स्कघ । कधी । इहे कही, जोघा कोउ बचे नहीं, कांधे गजदत धरे सर ब्रह्म उ०—अभयद भुजदड़ मूल, अस पीने सानुकूल, कनक मेखला असी --सूर०, १० ३ ०७४।। दुकूल दामिनि घरखी री 1-सूर०, १०।१३८४ । ३ चतुर्भुज असू ---सा पुं० [ स० अशु, प्रा० असु] किरण। उ०--सरद का कोई कोण (को०)। ४ बेदी के कोई दो स्कध यो । | निसि को असु अगनित इदु भा हरनि ।---सूर०, १०५३५१ । कोण (को०)। यौ०--असुपति, ससुमान, असुमाल= सूर्य । अस’ -सा मुं० [सं० अश ] १ कला। उ०——ापर उरग पर दरग अंसG--स। पुं० [ स० अस] भाग । अश। उ०—-लोभ लई नीचे इंस -मछा in । म । ग्रसित तव सोभित पूरन अस ससी --सूर०, १०1११६६ । २. ज्ञान चलाचल है। को अस अत है क्रिया पाताल निंदा रस ही सूर्य । जैसे 'अससुता' मे । ३ अपनत्व । सवध । अधिकार । को खानि-भिखारी० ग्र०, भा० २, पृ० २१२।। उ०—-अव इन कृपा करी ब्रज आए जानि अपना अस । अस(0--सी पुं० [सं० अत1 स्कघ। फधा । ३०-सखा असु पर सूर०, १०३५८७ ।। | भुज दीन्हें लीन्हें मुरलि अघर मधुर विश्व भरन ।--सूर०) अस --सुझा ० [ स० अशु ] किरण । उ०—-सित कमल बस १०1६२४। । सी सीतकर अस सी ।—भिखारी० ग्र०, भा०, १, पृ० २३४। असु -सच्चा पु० [सं० अश्रु, प्रा० अस्सु, असु] असू । अनु । उ० अस७४-सम्रा पुं० [सं० अर्भ या अश्] असू । अनु । उ०--भुज , गहुत बाल पिय पानि स गुरु जन सभरे। लोचन मोचि सुरग सु फरकनि तरकनि कचकि कच छुरि ज़ रहे छुरि अस ।--पोद्दार असु वहे खरे ---पृ० रा०, २५२७५ ।। अमि० अ०, पृ० ३८३ । | असूq--सुब्बा पु० [स० अश्व, प्रा० अस्स] अश्व । घोडा। उ:-- असकूट–सच्चा • [ स० ] साँद के कधी के बीच का ऊपर उठा हुला पय मडिह भसु धरै उलटा। मनो विटय देखि चलै कुलटा ।-- भाग ! फेवर। कुब । कुदं । 'पृ० रा ०, २७।३५ ।। असपाटी–संझा स्त्री० [सं० अनशन + हि० पाटी] दे० 'खटपाटी' । असूक--सका पु० [सं० अशुफ, प्रा० असुक, अपुग 1 वस्त्र । कपडा । कि० प्र०—लेना = खेटपटी लेना । क्रोघ यो हृढ़ के कारण काम । उ०—- अंक जिमि फूल सलोना ।--इद्रा०, पृ० १२८ । काज न करना । काम धाम से विरक्त होना। --तो वाकी असुग -सा पू० दे० 'असुक' । उ०---कासमीर असुग दए सवे जोधन मा प्रसटपाटी ले के परि गई ।--पोद्दार अभि० प्र०, पहिय ।-१० रा ०, पृ० १६४ ।। पु० १००६ । असुमाल -सा स्त्री॰ [ स० अशु, प्रा० असु + स० प्रा० माल] किरण पंसत्र--संज्ञा पुं० [सं०] १. स्कघाण । कधौ की रक्षा के लिये घारण । समूह । उ०—जागिर्ये गोपाललाल, प्रगट भई असुमाल मिटी किया जाने वाला लौहपट्ट। २, घनुष [को० ]। अघकाल, उठो जननी सुखदाई।-सूर०, १०/६१६ ।